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समानांतर सिनेमा और दर्शकों की बेरुखी

समानांतर सिनेमा को प्रारंभिक दौर में काफी दर्शक मिले. मगर बाद में धीरे-धीरे इस तरह की फिल्मों के दर्शक कम होते चले गए. अस्सी और नब्बे के दशक के आखिर में सार्थक सिनेमा का आंदोलन धीमा पड़ गया. प्रकाश झा और सई परांजपे जैसे फिल्मकार व्यावसायिक सिनेमा की तरफ मुड गए. श्याम बेनेगल बीच में लंबे समय तक टेलीविजन के लिए धारावाहिक बनाते रहे. समानांतर सिनेमा की अंदरूनी कमियों के कारण भी यह आन्दोलन सुस्त पड़ने लगा. कारण यह हैं :- सार्थक सिनेमा आंदोलन से जुड़े फिल्मकारों ने अपने चारों ओर एक ऐसा कल्पनालोक रच डाला है, जिसमें से निकलना ना वे चाहते हैं और ना उनके लिए अब मुमकिन रह गया है.  उनके इस कल्पनालोक कला के लिए तो भरपूर स्थान है, पर व्यवसाय के लिए नहीं. जबकि इस मत पर कोई दो राय नहीं हो सकती है की कला और व्यवसाय में एक वैज्ञानिक रिश्ता होता है. यह रिश्ता ही कला को लोगों से जोड़ता है. चलताऊ फिल्मों के भीड़ के बीच जब दो-एक साफ़-सुथरी फ़िल्में आई तो इन्हें पहले अच्छा सिनेमा कहा गया. बाद में यह समानांतर सिनेमा हो गया. शुरू में मुख्यधारा की फिल्मों और समानांतर सिनेमा का कोई दर्शक व...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...