दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना *** बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग-ए-मेहफ़िल जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला. ----- चचा ***** उंगलियों से उनका नाम दीवार पर लिखते रहे और दीवार था कि खुद उनका आशिक था। जिसकी दुआ थी बुत से इन्सा में बदल कर सांस लूं वो बस इक मेरा नाम लिखने से आमीन हुआ। लिखा जिनके नाम खत सुब्हों शाम सागर, वो खुद ही सोचा किये मेरे यार के मुताल्लिक। इश्क की पेंचदार गलियां हैं, किसी के हो जाने से पहले जिनसे कुर्बत की तमन्ना थी वो फिदा होने के बाद जि़ना कर गया। कहां सर फोड़े और अपनी जज्बातों की रूई धुना करें, आईए कहीं ज़ार ज़ार बैठ रोएं, दारू पिएं। पीएं के यह भी तय था हमने नहीं चाहा था। जो चाहा था वो भी अपना होना कब तय था। गर जिंदगी मुहब्बत है तो इसकी कोई वसीयत नहीं होती। अगर यह नफरत ही है तो इसका अंजाम मुझको मालूम है। नुक्श तो जहान में है काफिर फिर क्यों सोचता है सर खुजाते ह...
I do not expect any level of decency from a brat like you..