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Showing posts with the label Saagar-O-Meena

रूठ कर गया है जो बच्चा अभी अभी

दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ  उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना  हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे  बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना *** बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग-ए-मेहफ़िल  जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला. -----  चचा ***** उंगलियों से उनका नाम दीवार पर लिखते रहे और दीवार था कि खुद उनका आशिक था। जिसकी दुआ थी बुत से इन्सा में बदल कर सांस लूं वो बस इक मेरा नाम लिखने से आमीन हुआ। लिखा जिनके नाम खत सुब्हों शाम सागर, वो खुद ही सोचा किये मेरे यार के मुताल्लिक। इश्क की पेंचदार गलियां हैं, किसी के हो जाने से पहले जिनसे कुर्बत की तमन्ना थी वो फिदा होने के बाद जि़ना कर गया। कहां सर फोड़े और अपनी जज्बातों की रूई धुना करें, आईए कहीं ज़ार ज़ार बैठ रोएं, दारू पिएं। पीएं के यह भी तय था हमने नहीं चाहा था। जो चाहा था वो भी अपना होना कब तय था। गर जिंदगी मुहब्बत है तो इसकी कोई वसीयत नहीं होती। अगर यह नफरत ही है तो इसका अंजाम मुझको मालूम है। नुक्श तो जहान में है काफिर फिर क्यों सोचता है सर खुजाते ह...

मेरी कलाई पर घडी मत बांधो, अपने कहे में वक्त को बाँधा करते हैं हम

चिंता की कोई बात नहीं। उल्टी नहीं हुई बस थोड़ा सा मुंह खुला किया और चुल्लू भर नमकीन पानी निकला। और निकल कर भी रूका कहां ? बिस्तर ने फटाफट सोख लिया। ये प्यास भी बड़ी संक्रामक चीज़ होती है बाबू। मेरी जिंदगी की तरह ही मेरे बिस्तर और तकिए तक प्यासे हैं ये आंसू तो आंसू मेरी नींद तक सोख लेते हैं। कुछ भी यहां नहीं टिकता। हमने कितनी रातें साथ गुज़ारी मगर ये हसरत ही रह गई कि तुम्हारे जाने के बाद भी तुम्हारे देह की गंध इसमें बसी रहे और मैं तुम्हारे होने को, तुम्हारे बदन की खूशबू से मालूम कर सकूं। मुझे लगा करे कि जैसे एक अंधे को किसी लम्बी टहनी का सहारा मिला है मैं तुम्हारे रोम रूपी हरेक कांटों को टटोलता चलूं। कितनी ही पी ली आज लेकिन अंदर की खराश मिट नहीं रही। लगता है दिल की दीवार पर किसी मौकापरस्त बिल्ली ने अपने पिछले पंजों से खुरच कर चंद निशान छोड़े हैं। हां अब मैं अपने दिल को देख पा रहा हूं। नाजी सैनिकों की देखरेख में काम करता किसी यहूदी सा, हाड़ तोड़ मेहनत करता, कोयले खदान में भागता, किसी दवाई के कारखाने में तैयार शीशियों पर लगतार लेबल लगाता। जून महीने में...

कहना खुदा के साथ संगत करना था

पुरानी झील का पानी हवा से इत्तेफाक रख रही थी। छोटी छोटी नावों में बैठे जोड़े हौले हौले पैडल मार रहे थे। मुहाने पर बांस को ज़वान होता पेड़ था। थोड़ी सी हवा लगने पर ही खिलखिला कर हंसा करता। एक डाली लरज कर पानी में गिर आई थी। जब हवा तेज़ चलती पानी से डाॅल्फिन की तरह निकलती और पास के बोट में बैठे जोड़े पर छींटा मार उसका स्वागत करती। बांस का पेड़ उभयचर बन गया था। जैसे मेंढ़क, मगर और कछुआ होता है। जल और ज़मीन दोनों पर रहने वाला। थोड़ा ऊपर अड़हुल का छोटा सा पौधा था। लेकिन कहने भर को छोटा। हुस्न टूट कर बरसा है उस पर। पत्तों से ज्यादा फूल खिले हैं। सुर्ख। हवा तेज़ होती। सब आपस में लड़ने लगते। ऐसा भी लगता जैसे किसी ने चुटकुला सुनाया हो और हँस हँस कर पेट दर्द हो रहा हो। कई बार ऐसा भी लगता एक ही घने पेड़ में ख्वाहिशों भरी कई कई पतंग फंसे हों। गोया पूरा नज़ारा ही ईश्क से फल फूल रहा हो।  और किले के ऊपरी खिड़की पर जहां से पूरा आसमान दिखता है और नीचे से सिर्फ खिड़की देखो तो एक आसमान का एक टुकड़ा दिखता है। एक संगत बैठती है। कुछ हस्सास तो कुछ कद्रदान की मंडली। शायर से पेशकश की जाती है। ...

दिल एक टिन का जंग खाया कनस्तर था जिसको लोहार हर कुछ दिन पर ठोक-पीट कर मार्केट में फजीहत से चलने लायक बना देता

हम दोनों तैरना नहीं जानते हम दोनों एक दूजे को बचाना चाहते हैं तुम्हें यह झूठा दंभ कि उबार लोगी मुझको मुझे यह गुमां कि प्यार करता रहूंगा तुमको मुझसे रिश्ता जोड़ने में होने वाले संभावित खतरों का ज्ञान था तुम्हें सबसे ज्यादा आत्मविश्वास से तुमने सबसे ज्यादा संशय चुना मैं केवल दो ही चीज़ जानता था  या तो प्यार है या कि नहीं है प्यार...। किसी पनडुब्बी की तरह एक साथ लगाए डुबकी के बाद जहां कहीं भी हम निकले इक सैलाब ही घेरे था। कृपया आप कैमरे की आंख ज़ूम कर के देखें। क्या आपको हिलोरें मारती पानी नहीं दिखतीं, एकदम पास? आपकी आंख (एकवचन) के ठीक सामने? इत्ता सामने कि वो ठीक से नज़र तक नहीं आता। अब लांग शाॅट में देखते हैं तो भी वही पानी। और एक्सट्रा लांग शाॅट में वहीं पानी। कहीं, कोई द्वीप नहीं। अनवरत बस अपनी थकी बांहों की पतवार चलना। धाराएं तेज़ लेकिन विस्तार इस तरह कि जैसे किसी हौद में उपलाया हुआ पानी जिसका कोई आदि अंत नहीं। अभी ठीक, यहीं इसी जगह यहां आकर तुम भूल जाओगे कि इस विशाल, अथाह, अपार जलराशि का उद्गम स्थान कहां है, इसका आदि और अंत क्या है? यह जल का निर्जन प्रदेश है। यहां हरे शैवाल त...

शहनाई की छोटी-छोटी, तीखी धुनें-1

लौटना पहले भी हुआ था जब उसका पीछा करते करते उसके घर पहुंचा था, ग्रिल को पकड के उसे एक मौन आवाज़ दी थी. लड़की तब भी नहीं पलटी थी. करना तो प्यार था, लेकिन शुरुआत दोस्ती से भी हो जाए तो क्या बुरा है. मगर ये कहने में ही चेहरा लाल हो आया. भरे बाज़ार जब हाथ में एक कागज़ ले कर यह कहा तो चेहरे पर की आग से हाथ के कागज़ पिघल गए. हाथ के कागज़ प्यार के ख़त थे लेकिन इस वक्त किसी थर्ड क्लास सिनेमाघर की बेहद सस्ती सी टिकट लग रहे थे जो हथेली के पसीने में ही गल जाते हैं.  सबसे महान प्रेम सबसे सस्ते तरीके से शुरू हो रहा था.  XXXXX उस सदी में पटना की सड़क पर ऑटो हिचकोले खाते हुए चलते. बोरिंग रोड पर के मुहाने पर के रेस्तरां में लड़का पहली बार डेट पर था. टिप से वास्ता ना था लेकिन दोस्त ने बताया था की कुछ पैसे प्लेट में छोड़ देना. बहरहाल दोनों ने आंचलिक भाषा में बात करते हुए विश्व कवियों की भाषा को मात दी. छोड़ना वो कुछ भी नहीं चाहते थे मगर सब छूट रहा था. सीट पर लड़की के कुल्हे की गर्माहट से लेकर, वेटर को दिया गया ऑर्डर तक...  उस सदी का फलता हुआ इतिहास, भूगोल जब अब इतिहास है.  ...

गीत हमारे प्यार की दोहराएंगी जवानियाँ

एक एरा जीने का मन होता है। कि जैसे उन्नीस की उम्र में श्री 420 देखे हफ्ता ही हुआ हो और बारिश से रिलेटेड कुछ फिल्मी और कुछ अपनी इल्मी दृश्य गंुथ रहे हों। मन निर्देशक और नायक दोनों हो चला हो। रही पटकथा लेखक की भूमिका तो वो बीत जाने के बाद किसी घोर विरह में निभाई जाएगी (जैसे कि अभी निभाई जा रही है) तो बारिश ऐसी है कि हवा किधर से आ रही है आज अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। पहले अंधड़ उठा, धूप छांव में बदला, फिर अंधेरा में, नारियल और ताड़ के पेड़ बड़े भोंपू की शक्ल में तब्दील हो गए। सड़क पर हवा के गोल गोल डरावने भंवर बनने लगे और लाइब्रेरी जाने के रास्ते में उस भंवर में सिमटते चले गए। लाइब्रेरी में कुछ खास नहीं करना था। कोर्स की किताबों को दरकिनार करते हुए आषाढ़ का एक दिन और धर्मवीर भारती को पढ़ते हुए दो यादगार प्रेम पत्र लिखने थे। प्रेमिका को इस सदी की सबसे महान और खूबसूरत खोज बताते हुए कुछ मौलिक इन्सीडेंट्स की याद दिलानी थी। परवाहों को किनारे रख कर अमर प्रेम करना था। पत्र में कुछ दृश्य यूं साकार कर देने थे कि लड़की अपना घर बार और हकीकत को भूल बैठे, हमारे पैरों की हवाई चप्पल तलवे पर कैसे घिसती...

इस मँझधार में...

ये क्या उमर है कि अब हम प्रेम नहीं करते सिर्फ प्यार से जुड़ी बातें करते है। स्याह खोह से बिस्तर गर्म करती औरतें नहीं है मगर उनके दिए हुए वे पल और ख्याल हैं। ऐसा अब नहीं होता कि तुम देर तक साथ में बैठो तो मैं उठ कर तुम्हारा कंधा दबाने लगूं और थोड़ी देर बाद तुम उठ कर मेरी आंखों में गहरे झांको। हमारी सांसे उलझती। मैं कमरे की दीवार पर तुम्हें घेर दूं और छिपकली की तरह हम दोनों दीवार से चिपक जाएं। हवा का एक कतरा भी फिर हमारे बीच से पार ना होने पाए। अब नहीं होता ऐसा।  XXXXX एक किसी किताब पर हम घंटों बातें करते हैं। तुम्हारी सोच किसी रहस्य किताब की तरह खुलती जाती है और मेरी उमर की उंगलियां उसे पलटते पलटते घिसती जाती है। क्या प्यार में गर्क होना या फिर तबाह हो जाना, उमर बीताना इसे ही तो नहीं कहते कि हो और मेरी किसी पार्क में बैठ कर जिंदगी पर पूरी पूरी शाम बातें करते हैं। जवानी अच्छी थी, एक जूनून हुआ करता था। जवानी अच्छी थी एक जूनून हुआ करता था। कंठ फूटने के दिन थे और खाली वक्त में बाज ख्याल ऐसे आते थे कि जिनसे निजात ना मिले तो किसी चैराहे पर खुद पर किरोसिन छिड़क आग लगा ली जाए। जाने कौन...

सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं

शरणार्थी तो हम थे ही, यह हमें भलिभांति ज्ञात था लेकिन वो होता है न कि किसी दोस्त के जन्मदिन की पार्टी में हम भूलने की कोशिश करते हैं कि हमारे साथ पिछला क्या बुरा हुआ है। तो बस आधी रात को वही थोड़ी के लिए भुला बैठे थे। पानी भरने के लिए जगने का अलार्म लगाया था। कभी कभी ऐसा होता है न कि बिस्तर पर पूरी रात बिताने के बाद भी लगता है दिमाग जागा रहा और हम बस आंखे मूंदे पड़े रहे इस इंतज़ार में कि अब नींद आ जाएगी। अंधेरे में अंधेरा ज्यादा होता है। कोई दोस्त कमरे की लाइट जला दे तो पलकों के पर्दे के पार अंधेरा हल्का हो जाता। ऐसे में आंखें जोर से भींच लेते। मस्तिष्क पर एक अतिरिक्त दवाब बनता और सवेरे लगता है जागते हुए ही रात कटी है। लगता लेकिन नींद तयशुदा वक्त से पांच मिनट पहले खुल गई। मन हुआ नल चेक करें क्या पता पानी आना शुरू हो गया हो। पीठ पसीने से तर थी। बिस्तर पर के चादर में चिपटी हुई..... गीली। उचाट सा उठा, किचन गया, नल खोली। पानी नहीं था लेकिन उसने आने की आहट थी। आधी रात के सन्नाटे में सांय सांय की शोर करता नल... कहने को शांति में खलल डालता लेकिन जिसके मधुर आमद का स्वर... ऐसा ही लगा जैसे सू...

एक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब, जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब

जिस तरह का दिल है लगता है थोड़ा बीमार हूं और अब बिस्तर छोड़कर उठ जाने में दो चार दिन ही बचे हैं। कफ सीरफ से चम्मच पर निकाल की दवाई दी जा रही है। मीठी दवाई जिसमें थोड़ी कड़वाहट का पुट मिश्रण भी है उस चम्मच में एक जहाज की भांति हिचकोले खाती हुई लगती है। बहुत गहरे में पैठ बनाती हुई। अत्यंत कलात्मक दृश्य जैसे गदराए समतल पेट पर से फिसलते हुए पानी की एक बूंद नाभि प्रदेश की ओर गमन करती हुई उसमें प्रवेश करती है। क्यों लगता है जैसे बहुत कुछ कर सकता हूं पर हो नहीं रहा ? क्यों लगता है अब सब कुछ अच्छा हो जाएगा लेकिन वैसे का बना रहता है। देर तक कबूतर आकाश में उड़ा तो हमें भी उड़ने का मन हो आया। हमने जी भर का नृत्य किया। नाचने के दौरान हर खुद का पक्षी भी मान लिया और भाव भंगिमा पक्षी जैसी बना कर उड़ने की नकल भी की। गोया सब कुछ कर लिया उड़ने की अनुभूति भी हुई लेकिन उड़ नहीं सका। हम हर बार लौट कर घर को ही क्यों आ जाते हैं ? एक इंसान भावनाओं से इतना लबालब क्यों होता है कि हर बार कल्पना का सहारा लेकर ही खुद को सुकून देना पड़ता है। पढ़ा लेकिन ऐसा कि लगा पूरा नहीं समझ सका। जिया लेकिन अब भी प्यास बाकी है...

ये खूं की महक है कि लब-ए-यार की खुशबू

इक तरफ ज़िन्दगी, इक तरफ तनहाई दो औरतों के बीच लेटा हुआ हूं मैं --- बशीर बद्र ***** एक भयंकर ऊब और चिड़चिड़ापन, शरीर की मुद्रा किसी भी पोजीशन में सहज नहीं मगर मन अपने से बाहर जाए भी तो कहां ? भरी दुपहरी फुटबाल खेलने की ज़िद और आज्ञा न मिलने पर खुद को सज़ा देना जैसे खुदा जानता हो कि अब खेलने को नहीं मिला तो पढ़ने में या और भी जो तसल्लीबख्श काम हों उनमें मन लगेगा। तो जि़द बांधकर ज़मीन पर ही लोटने लगा।  / CUT TO: / एक दृश्य, ज़मीन पर लोटने का  / CUT TO: / दूसरा, बुखार में गर्म और सुस्त बदन माथे में अमृतांजन लगा पसीने पसीने हो तकिए में सर रगड़ना  ... यातना और याचना के दो शदीद मंज़र।  कुछ ऐसा ही रेगिस्तान फैला होगा। यहां से वहां तक सुनहरे बदन लिए एक हसीन औरत, पूरा जिस्म खोले और रेत की टोलियां ऐसे कि समतल पेट पर नाभि का एहसास...कि जिस पर इंसानी ख्वाब चमकते हैं, कि जिस पर पानी का भी गुमां होता है कि जिस पर धोखा भी तैरता है। सूरज का प्रकाश छल्ले से जब कट कर आता है तो घट रही कहानियों पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ? फफक कर रो ही लो तो कौन माथा सहलाता है ? आ...

सम्मन जारी किया गया

पुराने किले से सदा आती है। हवा उन दीवारों को छूते हुए आती है, किसी घुमावदार सुरंग तो तय करती। हवा इनमें जब भी घुसती या निकलती है मानो को काई अजगर पैठ या निकल रहा हो। बहुत सारा वज़न लिए। मुहाने पर निगरानी करता नीम का पेड़ बारिश का पानी पी कर मदमस्त हो चला है। तने ऐसे सूजे हैं जैसे किसी नींद में एक पुष्ठ छाती वाली  औरत लेटी हो जिसके बच्चे ने उसका ब्लाउज सरका दूध मन भर पिया हो।  xxxxx पीपल के पत्ते की तरह नज़र आते हैं कुछ लोग। अपनी जगह पर हिलते, हवा के चलने पर सरसराते। हवा कोई खबर लिए पेड़ में घुसती है और तने को पनघट मान सारे पत्ते एक दूसरे से सटकर वो खबर सुनने गुनने लगते हैं। ये बड़े क्षणिक पत्ते हैं। जीते जागते हुए भी एक मरियल हथेली से। अपनी जड़ों से तुरंत उखड़ आने वाले। एक दिखावटी टा टा करता, हिलता कोई हाथ। पलट कर देखो तो ऐसा ही लगे कि किसी अपने की तलाश में पराए घर में आया था। मेहमान होते हुए खुद खर्च किया और जाते वक्त पूरा घर लाज लिहाज के मारे हाथ रूख्स्त कर रहा हो।  xxxxx एक दयनीय सी स्थिति यह है कि हमारे चारो ओर दलदल है, पीठ के नीचे कांटे हैं, दिमाग में रेंगता ...

शीशे का खिलौना था, कुछ ना कुछ तो होना था ! हुआ.

  मैं:  आज आया तुम्हारे घर,  कुछ वक्त बिताया रोशनदान देखे, अलमारी, अलगनी, दीवार और पंखे के ऊपर लगा जाला भी देखा।  पांच रूपए का बेसन, एक पाव दूध, सोयाबीन ढ़ाई सौ ग्राम और आटा आधा किलो रद्दी अखबारों के बीच किसी किसी काग़ज़ पर लिखा यह बजट भी देखा उदास किताबों के बीच मोड़े मोड़े पन्ने देखे लगा तुम्हारा उचाट जी, जम्हाई, बेवक्त किसी की पुकार अभी तक वहीं रखा है। ठीक उसी कांटी पर टंगा है अब भी तुम्हारा बी. एड. वाला बस्ता और टीचर्स डे के बहाने चश्मीश शिशिर का दिया बिना डंठल वाला गुलाब (यह अलग से छुपा कर ‘गुनाहों के देवता‘ में रखा है) ज्यादातर फूल की प्रजातियां, शब्दों के उद्गम, उनकी विशेषताएं और प्रयोग तो याद है पर क्या अब भी रोमांचित होती हो ? दिमाग में झटका लगता है ? कोई विलक्षण किरदार मिलता है ? साड़ी अब सिर्फ कपड़ा भर क्यों है ? रंग गैर जरूरी हुआ ? सुलोचना का जवाब: बावजूद सबके समंदर नहीं होते हम कि पर्याप्त मात्रा में ही होता है हममें नमक जैसा कुछ तो यूँ समझो कि धूप बेहद तेज़ खिली और जो तुम खोज रहे हो उसका वाष्पीकरण हो गया रूको-रूको-रूको  जो इतनी घनीभूत भी न...

पार्क में उड़ता पर्चा...

गन्ने का जूस निकालने वाले मशीन और जीवन में यही समानता है कि दोनों रस भरे आदमी का कचूमर निकाल देते हैं। कहीं कारखाने का मशीन भी ऐसा करती है तो कहीं किसी प्राईवेट आॅफिस में काम करने वाला मुलाजिम का भी यही हाल होता है। नया नया प्रेस ज्वाइन किया हुआ पत्रकार भी पिसता है। तो सिर्फ जवान और खूबसूरत होने की योग्यता, जब बोलने पर हावी हो जाए तो देर रात तक लम्बी शिफ्टों में समाचार पढ़ने वाली टी.वी. एंकर भी, जो चैनल वाले कम पैसों पर नियुक्त करते हैं। मतलब कि शोषण हर जगह है। मंटो से मुत्तासिर मैं सबसे पहले इसलिए हुआ कि उसने पचास बरस पहले यह लिख गया कि मौजूदा दौर किसी इंसान की गोश्त या खून की वाजिब कीमत अदा नहीं करता। अव्वल तो वो अदा करना नहीं चाहता। लेकिन मैं यह सब तुमसे क्यों कह रहा हूं? जाने कहां से ख्याल आया मुझे कि अधिकतर इंसान भी इंसान से एक खास समय तक ही मुहब्बत रखते हैं गोया वो इंसान नहीं जैसे एक रस भरा आम हो उसे सबसे जवान समय में चूसो और जब लगे कि उसमें कुछ बाकी न रहा हो तो कोई दूसरा खोजने में लग जाओ। इसे मेरी तल्खी से जोड़कर मत देखो कि तुम्हें भी ईश्क में जूनून चाहिए था जो मुझे जैसे आशि...

दीबाचा

जिंदगी मौत का दीबाचा (भूमिका) है, क्या अजब कि इनको पढ़कर आपको मरने का सलीका आ जाए    ----- सआदत हसन मंटो  ***** बड़े से आँगन के किनारे ढेर सारी अगरबत्तियां जल रही हैं... कुछ लोग खाना खा रहे हैं ... एक आदमी के सामने मैं बैठा हूँ... हालांकि वो खा रहा है फिर भी   जबरदस्ती उसे खाने का आग्रह कर रहा हूँ. वो हाथ लगाकर इनकार कर रहा है. मैं ताली बजाकर परोसने वाले को बुलाता हूँ. लड़का बाल्टी ले कर आया है. खाने वाला शोव्ल ओढ़ कर बैठा है.. वो नहीं खाना चाहता ...लड़के के आते ही वो पत्तल लेकर उठ पड़ा है... गीली दाल किनारे से बहने लगा है... वो आदमी अब लगभग उठ खड़ा हुआ है...   मैं उसका हाथ पकड़कर उसे उसकी जगह पर बैठने का जिरह करता हूँ... बहुत मान मनौव्वल के बाद वो बैठ जाता है. वो और खाना लेने से फिर से इनकार कर रहा है. उसका हाथ बार बार उत्तेजना में सख्त मनाही के रूप में उठता है... मैंने जिद बाँध ली है... पत्तल की   दाल अब लगभग ख़त्म हो चुकी है... टप... टप... टप ! जैसे   सईदा की पायल .. छम.. छम.. ! छम...छम... !   छिः ! मैं श्राद्ध भोज में भी कैसी बाते...