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Showing posts from February, 2012

मेरी कलाई पर घडी मत बांधो, अपने कहे में वक्त को बाँधा करते हैं हम

चिंता की कोई बात नहीं। उल्टी नहीं हुई बस थोड़ा सा मुंह खुला किया और चुल्लू भर नमकीन पानी निकला। और निकल कर भी रूका कहां ? बिस्तर ने फटाफट सोख लिया। ये प्यास भी बड़ी संक्रामक चीज़ होती है बाबू। मेरी जिंदगी की तरह ही मेरे बिस्तर और तकिए तक प्यासे हैं ये आंसू तो आंसू मेरी नींद तक सोख लेते हैं। कुछ भी यहां नहीं टिकता। हमने कितनी रातें साथ गुज़ारी मगर ये हसरत ही रह गई कि तुम्हारे जाने के बाद भी तुम्हारे देह की गंध इसमें बसी रहे और मैं तुम्हारे होने को, तुम्हारे बदन की खूशबू से मालूम कर सकूं। मुझे लगा करे कि जैसे एक अंधे को किसी लम्बी टहनी का सहारा मिला है मैं तुम्हारे रोम रूपी हरेक कांटों को टटोलता चलूं। कितनी ही पी ली आज लेकिन अंदर की खराश मिट नहीं रही। लगता है दिल की दीवार पर किसी मौकापरस्त बिल्ली ने अपने पिछले पंजों से खुरच कर चंद निशान छोड़े हैं। हां अब मैं अपने दिल को देख पा रहा हूं। नाजी सैनिकों की देखरेख में काम करता किसी यहूदी सा, हाड़ तोड़ मेहनत करता, कोयले खदान में भागता, किसी दवाई के कारखाने में तैयार शीशियों पर लगतार लेबल लगाता। जून महीने में

रानों पर के नीले दाग

दोपहर आज अपने जिस्म में नहीं थी। घर की बनी रोटी ढ़ाबे पर सख्त आटे से बना तंदूरी रोटी सा लगता रहा जिसे बनने के चार घंटे बाद खा रहा हूं। खाने के कौर खाए नहीं चबाये जा रहे थे। लगता था कुछ शापित सा समय जबड़ों में फंसा था जो छूटता नहीं था। एक एक निवाला नतीजे पर पहुंचने की तलाश में जानबूझ कर ज्यादा चबाया गया था लेकिन फिर भी हलक में अटक जाता। कई बार ऐसा भी लगा जैसे थाली में चूइंगम परोसा हो।  उन ऊबाउ से कुछ घंटों में वक्त ठहर गया था। पहाड़ हो गया था या यों कहें महासागर हो गया था। प्यास बहुत लगती थी और घूंट-घूंट पानी गटकते हुए दीवार और छत के मिलन स्थल को देखा करता रहा। हथेली यूं गीली हो जाती जैसे क्लास से भाग कर सिनेमा हाॅल में बैठे हों और हाथ में साइकिल के पार्किंग का मुड़ा-तुड़ा छोटा सा रसीद हो।  कमरे के इस कोने से उस कोने तक ठीक बीचोंबीच एक रस्सी तनी थी। वो हमारे रिश्तों के तनाव जैसा प्रतीत होता रहा। अगर उंगली रख कर छोड़ दो तो थोड़ी देर कंपन के साथ हिलता रहता। यह तनाव जड़ी रस्सी लोगों के अंदेशों और अंदाजे के बोझ को उठाया करती। कमरे के दोनों दीवारों में धंसे हम उन दो कील जैसे थे जिसमें

आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई

तुम कहोगे  तीक है - तीक है  जबकि तुम्हारे मुंह में  तारीफ से ज्यादा  पान की पीक है ----- धूमिल  मैं जानता हूं, सेकेण्ड फलोर पर वन रूम सेट में रहने वाला मैं, एक   ' ऐब - नोर्मल'   आदमी के रूप में अपने मुहल्ले में जाना जाता हूं जिसके आवाज़ का उतार चढ़ाव बहुत अधिक है। जो रूमानी बातें बड़े मिसरी जैसे लहजे में कहता है और अपने विरोध का हस्ताक्षर ऊंचे आवाज़ में दर्ज़ करवा कर चुप्पी साध लेता है। पिछले एक साल से मैंने जीने का यह एक नया तरीका ईजाद किया है कि विरोध जता लेने के बाद मैं उस आदमी को दोस्त बना देता हूं जो गलत है। विरोध जता लेने से मेरे मन का बोझ हल्का हो जाता है और मैं अपने आप को सामान्य मनुष्य की श्रेणी में खड़ा पाता हूं। यह मैंने अपना ज़मीर जिंदा रखने के लिए एक रास्ता खोजा है।  हां यह सच है कि पहले मेरे अंदर विनम्रता नहीं थी लेकिन अब वादा करता हूं जब भी आपसे मुखातिब होऊंगा तो मेरे शरीर का एक हिस्सा हमेशा आगे की ओर अदब से झुकता महसूस होगा। मैं पहले आपके हर चीज़ की तारीफ करूंगा, उक्त दिशा में उठाए जा रहे आपके कदमों का स्वागत करूंगा और अंततः आपके प्रयासों की सराहना करूंगा।

कुछ तो करो सुनीता !

ठंड की दुपहरी में क्या भात खा कर बैठी हो  जो शोव्ल में कांपती हो  बच्चे की ज़रा मालिश ही कर दो  या फिर  किसी से लड़ ही पड़ो  कुछ तो करो...  चापाकल इतना चलाओ कि  लगे  खुद से ही पानी गिरने  लगा हो   साफ कपड़ों को ही धो लो फिर से  या फिर काले बाल ही फिर से काले करवा लो  कुछ तो करो...  देहरी पर बैठ कर साफ चावल चुनो  संतोषी माता के कथा में चली जाओ  चलो सुनना नहीं तुम पाठ ही कर देना  आंच तेज़ कर दूध की उबाल फूको  कुछ तो करो...  ना सुनीता,  पेंट मत करो,  कविता ना लिखो  न ही पढ़ो उपन्यास कोई  किसी चाहने वाले को फोन कर  कहो  कि  तुम्हें चूमे यहां वहां  पड़ोसी से वादे लो कि आज रात  तुम्हें  मिले  कोई गंदी सी फिल्म देख लो  सुनो, फटे कपड़ों की इस्त्री कर लो सुनीता!  ...कुछ तो करो।

वक़्त को स्टेचयू कहा है हमने, जरुरत क्या तस्वीर की; फुर्सत की

Chubby cheeks, dimple chin   Rosy lips, teeth within,   Curly hair, very fair,   Eyes are blue, lovely too,   Mama's pet, is that you??   Yes! Yes! Yes! बहती नाक में इत्ते सारे काम गिल्ली ही संभाल सकती है। गिल्ली। इस नाम के पीछे सीधा सा परिचय यह कि महादेवी वर्मा के एक कविता की आधार पर यह नाम रखा गया है। लंबे   से   एक नेवी ब्लू स्कर्ट और सफेद कमीज़ में डेढ़ हाथ की गिल्ली। बदन पर एक तिहाई कमीज और दो तिहाई बहुमत में लिपटी गिल्ली। प्यारी गिल्ली। दुलारी गिल्ली। मोटू गिल्ली। ऐसी गिल्ली, वैसी गिल्ली। जाने, कैसी कैसी गिल्ली। पूरे घर में बस गिल्ल ही गिल्ली। मां-पापा ने कुछ सोच कर रही इत्ता लंबा स्कर्ट खरीदा है कि कम से कम इस खेप से ही वो दसवीं कर लेगी। कम से आठवीं का टारगेट तो पूरा कर ही लेगी! करना कुछ नहीं है, अगर कमर का साइज ठीक रहा तो बस नीचे के बंधन बढ़ती उम्र के साथ खोलती जाएगी। स्कर्ट ऑटोमेटिक रूप से उसकी लंबाई को कवर करता चलेगा। एक सौ सत्तर रूपए में एक ही थान से भाई के लिए हाफ पैंट और बहन के लिए स्कर्ट खरीदी गई है। खैर...! एनुअल फंक्शन के लिए रिहर्सल कर रही ह

काले धुंआ सा तवील तहरीर है ज़हन में, हम अपना अहवाल कुछ यूँ बयां करेंगे

पूरे तीन बरस से  बिस्तर पर  सो रही है कविता । उसका नींद में होना यों भी थोड़ा अल्हड़ सा लगता। लटें बेतरतीब होकर यहां वहां फैल गए हैं । एक गुच्छा बायीं पलक में फंसा रहा। सोते सोते कभी कभी उसकी पलकें थरथरातीं, मुझे उसके आंख अब खोल देने का भ्रम होता। कई बार ऐसा भी दिल हुआ कि मैं अपने होंठ उसके चांद जैसे माथे पर रख दूं ताकि प्यार और दुआ का यह एहसास त्वचा उसके मस्तिष्क को संप्रेषित करे। कविता नींद में कितनी सुदंर लगती है। हां, कपड़े ज़रा बहके हुए हो जाते हैं जो कि होना भी चाहिए। तभी अपने शानदार और गरिमामयी व्यक्तित्व एक लापरवाही अंदाज़ में लिपटा नज़र आ आपको खूब आकर्षित करता है। तो कविता जो कि एक बेहद सुंदर देहयष्टि काया वाली लड़की जो मेरे अंदर करीब करीब औरत भी बन चुकने हो है अब इस अंदाज़ से सोई है कि उसके कंधे पर की  गाउन   की किनारी ज़रा खिसक गई है और उसे ब्रा के स्ट्रेप्स भी उसके बदन पर नींद में ऊंघता सा है। मैंने उसके सोने की अदा के एक एक फ्रेम को अपनी आंखों में संजोया है।  मगर वो गरहोश सोती रही। नींद कितनी भयंकर आई कि जिस करवट लेती फिर बेहोश हो जाती। मैं फिर से पास जाता हूं। मेरी