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किताबों से जुड़ाव हमारा कोई पुश्तैनी शौक नहीं अभाव से उपजा एक रोग है

वो आई और चली गई। मेरे पास अब सिर्फ यह तसल्ली बची है कि वो अपने जीवनकाल के कुछ क्षण मेरे साथ और मेरे लिए बिता कर गई। और जब से वह गई है मैं मरा हुआ महसूस कर रहा हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि वो जी रही होगी कहीं। उसे जीना आता है और मुझे मरना। वो भी थोड़ा थोड़ा मर लेती है मगर मैं जी नहीं पाता। मैं मरे हुए में जीता हूं। वो जीते जीते ज़रा ज़रा मर लेती है। वो गई है और मुझे लगता है कि नहीं गई है। हर उजले उपन्यास के कुछ पृष्ठ काले होते हैं या कालेपन से संबंध रखते हैं। आज रम पीते हुए और उसके साथ मूंग की सूखी दाल चबाते हुए मैं सोच रहा हूं कि कई बार हम किसी उजले शक्स के लिए एक टेस्ट होते हैं जिसे गले से उतारना खासा चुनौतीपूर्ण होता है। और इसी कारण यह एक थ्रिल भी होता है। जीवन के किसी कोने में सबका स्थान होता है। बेहद कड़वी शराब पीने की जगह भी हमें अवचेतन में मालूम होती है। सामने वाले की आंखों में कातरता देख अपनी जि़ल्लत भरी कहानी के पन्ने खोलने को भी हम तैयार हो जाते हैं। अंदर कुछ ऐसा भी होता है कई बार जो हमारे मूल नाम के साथ लिखने को तैयार नहीं होता मगर वो जो अमर्यादित और अनैतिक पंक्तियां हैं...

निरक्षर लिखता है पहला अक्षर

स्याही में जो इत्र की खुशबू घुली है  उनमें रक्त, पसीने और आंसू  के मिश्रण  हैं   जिसने ख़त भेजे हैं अक्षरों में उनका चेहरा उगता है उनकी आँखें कच्चे जवान आम की महकती फांके हैं खटमिट्ठी सी महकती हैं वे आँखें और तब  निरक्षर लिखता है पहला अक्षर। ***** प्रिय ब, आईने में किसी वस्तु का प्रतिबिंब उतनी ही दूरी पर बनता है जिस दूरी पर वह वस्तु वास्तव में रखी हुई है। आज दिन भर  तुम्हारे  मेल्स पढ़े। पढ़े, पढ़े और फिर से पढ़े। पढ़े हुओं को फिर से पढ़ा। पढ़ते पढते तुम्हारी अनामिका और कनिष्ठा उंगली दिखाई देने लगी। दिन भर किसी के इस्तेमाल किए हुए शब्दों के साथ होना वैसा ही लगा जैसे कोई परीक्षार्थी किसी दूर के रिश्तेदार के यहां परीक्षा के दौरान रूकता है और उस दौरान उसके घर के तेल, साबुन, शैम्पू, तौलिये का इस्तेमाल करता है।  मैं भी  जाते  नवंबर की गरमाती धूप की तरफ पीठ करके दिन भर तुम्हें पढ़ता और सोचता रहा। और अब ऐसा लग रहा है मैंने तुम्हारे ही कपड़े पहने हैं, ज़रा ज़रा गुमसाया हुआ जिसमें तुम्हारे बदन की गंध घुली है...

बालिग़ सिर्फ उम्र से ही नहीं हो रहे थे

क्या करूं उम्म... उससे पैसे मांगू या नहीं ? कपिल से तो ले नहीं सकता। उसकी खुद की हज़ार समस्याएं हैं। गौतम दे सकता है लेकिन देगा नहीं। सुनीती आज देगी तो कल मांगने लगेगी। अविनाश एक सौ देता है तो दो घंटे बाद खुद उसे डेढ़ सौ की जरूरत पड़ जाती है। सौमित्र के पास पान गुटके खाने के लिए तो पैसे जुट जाएंगे लेकिन मेरे मामले में वो लाचार है, जुगाड़ नहीं कर सकेगा। रोहित से कहूंगा कि पैसे चाहिए तो तुरंत नया बैट दिखा देगा कि अभी अभी छाबड़ा स्पोर्टस् से खरीद कर लाया हूं, मेरा बजट तो सोलह सौ का ही था लेकिन इसमें स्ट्रोक है और साथ ही हल्का भी सो पसंद भी यही आया इसके लिए चैबीस सौ का इंतजाम करना पड़ा। सो तुम्हें क्या तो दूंगा उल्टे आठ सौ रूपिया उधार ही लगवा के आया हूं। घर के रिश्तेदारों में कौन दे सकता है उम्मम... संजन दीदी ! ना उसके अंटी से तो पैसे निकलते ही नहीं हैं। अंजन दीदी मुंह देखते ही अपना रोना रोने लगती है। उसके मन में यही डर बैठा रहता है कि कोई हमको देखते ही पैसे ना मांगना शुरू कर दे सो बेहतर है पहले मैं ही शुरू हो जाऊं। दिनेश भैया को मालूम है कि मुझे पैसे चाहिए सो वो आंख ही ...

हलाल

रात भर बकरा टातिये के साथ बंधा म्महें - म्महें करता रहा । प्लास्टिक की रस्सी से बंधे अपनी गर्दन दिन भर झुड़ाने की कोशिश करता रहा । बकरा बेचने वाले ने खुद मुझे सलाह दी थी कि ऐसे सड़क पर घसीट कर ले जाने से कोमल गर्दन में निशान पड़ जाएंगे जो उसकी खराब तबीयत का बायस होगा। सो उसने खुद उसके खुर के बीच से रस्सी लेते हुए एक गांठ उसके पिछले बांए पैर में बांध दी। मैंने मालिक को उसके बाकी रह गए पैसे दिए और मैंने ले जाने के लिए जैसे ही रस्सी को झटका दिया, खींचा बकरे ने जोरदार बगावत कर दी। बकरे का मालिक जो कि अपने शर्ट का चार बटन खोले बैठा था और जिसके दांतों के बीच फांक में पान का कतरा अब भी फंसा था ऐसे में हंस रहा था। चूंकि मैं ऊंची जाति से आता हूं और वो मेरा देनदार रहा है सो वह मेरे सामने नीम की एक पतली सींक ले जोकि अमूमन खाने के बाद दांत में फंसे अनाज के टुकड़े को छुड़ाने के लिए किसी मुठ्ठा बनाकर छप्पड़ में टांगा जाता है वह उससे अपने कान की अंदर की सतह पर वो टुकड़ा घुमा सहलाने का आनंद ले रहा था। बकरा अब भी मुझसे अपरिचित की तरह व्यवहार कर रही थी। वह अपने चारों पैरों को फैलाकर जा...

बक रहा हूँ जुनूं में क्या क्या कुछ, कुछ ना समझे खुदा करे कोई

सुख था। इतना कि लोग सुखरोग कहने लगे थे। उन सुखों को हाय लग गई। सुख था जब पापा प्रेस से चार बजे सुबह लौटते थे और मैं जागता हुआ, पापा और अखबार दोनों का इंतज़ार कर रहा होता था। सुबह सात बजे जब प्रसाद अंकल अपने गेट से अखबार उठाते हुए कहते - पता है सागर, आज के अखबार से ताज़ी कोई खबर और कल के अखबार से पुराना कोई अखबार नहीं, तो मेरे अंदर उनसे भी तीन घंटे पहले अखबार पढ़ जाने का सुख था। रात भर की जिज्ञासा के बाद दोस्तों को सबसे पहले शारजाह में सचिन का अपने जन्मदिन पर 143 रन बनाए जाने के समाचार सुनाने का सुख था।  सुख था कि मुहल्ले में मृदुला द्विवेदी के आए सात महीने हो गए थे और संवाद कायम के तमाम रास्ते नाकाम रहे थे तो अचानक एक सुबह द्विवेदी अंकल ने साहबजादी को मैट्रिक के सेंटर पर उसे साथ ले जाने को कहना, आश्चर्यजनक रूप से एक अप्रत्याशित सुख था। पापा का अपने अनुभव से यह कहना कि दुख नैसर्गिक है और लिखा है यह मान कर चलो और यदि ऐसे में सुख मिले तो उसे भी घी लगी दुख समझना, पापा के रूंधे गले से घुटी घुटी दोशीज़ा आवाज़ को यूं अंर्तमन में तब सहेजना भी सुख था। आज भी जब अकेलेपन में जिंदगी के कैसेट ...

रूठ कर गया है जो बच्चा अभी अभी

दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ  उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना  हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे  बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना *** बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग-ए-मेहफ़िल  जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला. -----  चचा ***** उंगलियों से उनका नाम दीवार पर लिखते रहे और दीवार था कि खुद उनका आशिक था। जिसकी दुआ थी बुत से इन्सा में बदल कर सांस लूं वो बस इक मेरा नाम लिखने से आमीन हुआ। लिखा जिनके नाम खत सुब्हों शाम सागर, वो खुद ही सोचा किये मेरे यार के मुताल्लिक। इश्क की पेंचदार गलियां हैं, किसी के हो जाने से पहले जिनसे कुर्बत की तमन्ना थी वो फिदा होने के बाद जि़ना कर गया। कहां सर फोड़े और अपनी जज्बातों की रूई धुना करें, आईए कहीं ज़ार ज़ार बैठ रोएं, दारू पिएं। पीएं के यह भी तय था हमने नहीं चाहा था। जो चाहा था वो भी अपना होना कब तय था। गर जिंदगी मुहब्बत है तो इसकी कोई वसीयत नहीं होती। अगर यह नफरत ही है तो इसका अंजाम मुझको मालूम है। नुक्श तो जहान में है काफिर फिर क्यों सोचता है सर खुजाते ह...

इतिहास पलटो नदी का जहां खड़े हो कभी वहीँ से बहा करती थी

मुझे लगता है हमारे प्यार में अब वो स्थिति आ चुकी है जब मैं तुम्हें उस पुल पर बुला, बिना कुछ कहे ईशारा मात्र करूंगा और तुम वोल्गा में छलांग लगा दोगी। अरी पगली! जितनी सीधी तुम थी उतने हम कहां थे। तुम प्रेम जीने लगी थी और मैं प्रेम खेलने लगा था। सकर्स के किसी कुशल खिलाड़ी की तरह मैं एक ही वक्त पर कई प्रेम को गेंद की तरह हवा में खिला रहा था। उन दिनों मेरा आत्मविश्वास देखते ही बनता था। तुम दायरे के बाहर से मुझे मंत्रमुग्ध होकर देखती रहती और मैं उन गेंदों के साथ सालसा कर रहा होता। सर्कस की नियमित परिधि को एक अलग दुनिया जो ठीक तुम्हारे सामानांतर चल रही होती उस पर मैं अपने काम में तल्लीनता से लगा होता। मुग्ध हो जाने को बस वही एकमात्र क्षण था जब मैं अपने कर्म में रत था। ठीक निराला की तरह जब वह पत्थर तोड़ रही थी कवि उस पर मुग्ध था। वो पत्थरों को आकार दे रही थी और कविता का आधार रच रही थी, उधर वो कवि उस पर मुग्ध था। उस मुग्धता में भी जाने उसने अपनी कौन सी इंद्रिय बचा रखी थी जो उसके दर्द की परतें उधेड़ता है। मैं भी वही था एक कर्मयोगी सा चेहरा जिससे तुम प्यार कर बैठी थी, था तो आखिर वो आदमी का ही...

मेरी कलाई पर घडी मत बांधो, अपने कहे में वक्त को बाँधा करते हैं हम

चिंता की कोई बात नहीं। उल्टी नहीं हुई बस थोड़ा सा मुंह खुला किया और चुल्लू भर नमकीन पानी निकला। और निकल कर भी रूका कहां ? बिस्तर ने फटाफट सोख लिया। ये प्यास भी बड़ी संक्रामक चीज़ होती है बाबू। मेरी जिंदगी की तरह ही मेरे बिस्तर और तकिए तक प्यासे हैं ये आंसू तो आंसू मेरी नींद तक सोख लेते हैं। कुछ भी यहां नहीं टिकता। हमने कितनी रातें साथ गुज़ारी मगर ये हसरत ही रह गई कि तुम्हारे जाने के बाद भी तुम्हारे देह की गंध इसमें बसी रहे और मैं तुम्हारे होने को, तुम्हारे बदन की खूशबू से मालूम कर सकूं। मुझे लगा करे कि जैसे एक अंधे को किसी लम्बी टहनी का सहारा मिला है मैं तुम्हारे रोम रूपी हरेक कांटों को टटोलता चलूं। कितनी ही पी ली आज लेकिन अंदर की खराश मिट नहीं रही। लगता है दिल की दीवार पर किसी मौकापरस्त बिल्ली ने अपने पिछले पंजों से खुरच कर चंद निशान छोड़े हैं। हां अब मैं अपने दिल को देख पा रहा हूं। नाजी सैनिकों की देखरेख में काम करता किसी यहूदी सा, हाड़ तोड़ मेहनत करता, कोयले खदान में भागता, किसी दवाई के कारखाने में तैयार शीशियों पर लगतार लेबल लगाता। जून महीने में...

कुछ तो करो सुनीता !

ठंड की दुपहरी में क्या भात खा कर बैठी हो  जो शोव्ल में कांपती हो  बच्चे की ज़रा मालिश ही कर दो  या फिर  किसी से लड़ ही पड़ो  कुछ तो करो...  चापाकल इतना चलाओ कि  लगे  खुद से ही पानी गिरने  लगा हो   साफ कपड़ों को ही धो लो फिर से  या फिर काले बाल ही फिर से काले करवा लो  कुछ तो करो...  देहरी पर बैठ कर साफ चावल चुनो  संतोषी माता के कथा में चली जाओ  चलो सुनना नहीं तुम पाठ ही कर देना  आंच तेज़ कर दूध की उबाल फूको  कुछ तो करो...  ना सुनीता,  पेंट मत करो,  कविता ना लिखो  न ही पढ़ो उपन्यास कोई  किसी चाहने वाले को फोन कर  कहो  कि  तुम्हें चूमे यहां वहां  पड़ोसी से वादे लो कि आज रात  तुम्हें  मिले  कोई गंदी सी फिल्म देख लो  सुनो, फटे कपड़ों की इस्त्री कर लो सुनीता!  ...कुछ तो करो।

वक़्त को स्टेचयू कहा है हमने, जरुरत क्या तस्वीर की; फुर्सत की

Chubby cheeks, dimple chin   Rosy lips, teeth within,   Curly hair, very fair,   Eyes are blue, lovely too,   Mama's pet, is that you??   Yes! Yes! Yes! बहती नाक में इत्ते सारे काम गिल्ली ही संभाल सकती है। गिल्ली। इस नाम के पीछे सीधा सा परिचय यह कि महादेवी वर्मा के एक कविता की आधार पर यह नाम रखा गया है। लंबे   से   एक नेवी ब्लू स्कर्ट और सफेद कमीज़ में डेढ़ हाथ की गिल्ली। बदन पर एक तिहाई कमीज और दो तिहाई बहुमत में लिपटी गिल्ली। प्यारी गिल्ली। दुलारी गिल्ली। मोटू गिल्ली। ऐसी गिल्ली, वैसी गिल्ली। जाने, कैसी कैसी गिल्ली। पूरे घर में बस गिल्ल ही गिल्ली। मां-पापा ने कुछ सोच कर रही इत्ता लंबा स्कर्ट खरीदा है कि कम से कम इस खेप से ही वो दसवीं कर लेगी। कम से आठवीं का टारगेट तो पूरा कर ही लेगी! करना कुछ नहीं है, अगर कमर का साइज ठीक रहा तो बस नीचे के बंधन बढ़ती उम्र के साथ खोलती जाएगी। स्कर्ट ऑटोमेटिक रूप से उसकी लंबाई को कवर करता चलेगा। एक सौ सत्तर रूपए में एक ही थान से भाई के लिए हाफ पैंट और बहन के लिए स्कर्ट खरीदी गई है। खैर...! एनुअल ...