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Showing posts from July, 2011

आत्मकथ्य : एक कविता

जुदाईयों के जंगल हैं। नज़र के इस छोर से दूर औकात तक विचित्र अनगिन प्रजाति के वनस्पति हैं। कुछ अंतराल सपाट मैदान हैं। पेशाब किए जाने के बाद जूझता घास का पीलापन है। बीच से गुजरती छोटी लाइन की सीटी है। सालों से कार्य प्रगति पर है का बोर्ड लगाए सुस्ताते और हवा में तिरते, भूले से भटके और कभी किसी सोचे समझे शातिर मुजरिम की चाल कर बिसरे से लय पकड़ते, तंबाकू खाते, जानबूझ कर छींकते, कभी सिसकारी तो कभी  अंगुलियां क्रास कर ज़मीन पर तीन लकीर खींचते, तो कभी गैरतमंद सा पसीना पोंछते, मुंह ढंके शिकायत और तौबा करते गैंगमैन हैं। बीड़ी पीते सुख बांटने की धुन है। सबका सबसे ज्यादा रोना है।  मेहनत से उगाया हुआ सत्य है कि इरादतन पाॅजीवीटी की शुरूआत तब हुई जब सामने वाला हमसे ज्यादा रो रहा था। उनके रोने से हम मजबूत हुए और हिम्मत बढ़ाने लगे। एक पैर का दर्द असह्य होने को चला तो दूसरे को लहूलुहान कर लिया गरज ये कि पहले पैर के दर्द से निजात मिले। कम से कम ध्यान तो भटके !  अंधेरे में किसी का चेहरा पकड़ा और गीली मिट्टी में ढाल दिया। बूढ़ी हथेलियों से गले को गुंथा गया फिर कई शक्ल बने। अनुभव ने कई बार हलाल किया। आ

माँ, तुलसी के गले का रोआं सिहरता है क्या...!

मां जब  तुम   थोड़ा डरती हो और तुम्हारा दिल धक से रह जाता है तो शर्मीला टैगोर जैसी लगती हो। तुम्हारी आंखें और आंचल भी उसी जैसा लगता है। प्रकाश तुम्हारी आंखों से परावर्तित होकर ज्यादा चमकदार लगती है। पापा को शक हो न हो मुझे हमेशा लगता रहा है तुम पर कोई दूसरे घर की बालकनी से कोई आइना चमकाता रहता है। मेरी आंखें चैंधिया जाती हैं मां। हां ये सच है कि सबसे टपका तो मां पर अटका। अपनी शादी के लिए दसियों लड़की से प्रेम करने, और तमाम लड़कियों को जानने के बाद मैं भी पापा की तरह ही तुम्हें चिठ्ठी लिख रहा हूं कि तुम्हारे जैसी नहीं मिल रही। ऐसा नहीं था कि मिलने वाली बुरी हैं बल्कि वो बेमिसाल हैं। नहीं-नहीं तुम्हें बहलाने के लिए ऐसा नहीं कह रहा, ना ही अपनी नादानी परोस रहा हूं। गहराई से बेसिक सा अंतर बतला रहा हूं कि उनकी आवाज़ में खनक तो था पर झोले में सूप से झर-झर गिरते गेहूं जैसी आवाज़ का रहस्य नदारद था। लड़कियां मिली जिन्होंने प्यार दिया लेकिन किसी ने अपने जुल्फों को सहलाते हुए यह नहीं कहा कि सैंया भोर को होने दे, तू तो रात बन कर मेरे साथ रह। मां कोई तुम जैसा बहरूपिया नहीं मिला। गाए जा चुके गीत क

आ मेरी जान, मुझे धोखा दे

घंटों टेबल पर झुके रहने के बाद, अपने हथेली से उसने छुप कर ढेर सारी दयनीयता आंखों में डाली और आखिरकार सर उठा कर हाथ जोड़ते हुए बड़े की कमज़ोर लहजे में कुल छः शब्द कहा - मैं परमेश्वर से डरती हूं, प्लीज़। इन छः शब्दों में ढेर सारे चीज़े छुपी हुई थी जो वो मुझसे मांग रही थी। जैसे उसका खुदा मैं ही हो आया था जो उस पर उपकार कर दूं। यह एहसान उसे छोड़ देने का था। महबूब आशिक से अपने को छोड़ दिए की याचना लिए बैठी थी। दिखने में बैठी थी दरअसल वो हाथ जोड़े उल्टा लटकी थी। बड़े पद पर बैठी महिला एक कैजुअल के आगे प्रेम में छोटी साबित हुई थी।  स्पर्श के लिए बीच के मेज़ की दूरी हमने कभी नहीं पार की लेकिन कभी कभार उसके कम्पयूटर की तकनीकी समस्या दूर करने, किसी विभाग के आला अफसरों के घुमावदार अक्षरों में किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंचने वाली नोट को पढ़ने, एक्सेल की डाटा शीट को थोड़ा और चैड़ा करने। वर्ड की फाइल में टेबल की फाॅरमेटिंग करने के दौरान मैं उसके सिरहाने खड़ा हो जाया करता था। बाज लम्हे ऐ से  होते जब सधे कंधों से चलने वाली और दिखने में पुष्ट सीना लिए उसपर एक पंखे की एक पंखी का गुज़रते हुए हवा का एक दस्त

रिफ्लेक्शन... बर्फीले पहाड़ के गालों पर धूप और बादलों का रंग

कल्पना वास्तविक कैसे हो सकती है ? इसमें संदेह नहीं कि मुझे जिस तरह की चित्र की दरकार है उसकी पूर्ति विश्व सिनेमा करती है लेकिन मेरा मन सप्ताहांत ब्लू फिल्में देखने का भी होता है। कुछ अन्य चित्रों के अलावा मैं जो चित्र बनाना चाहता हूं वो इस तरह कि कोई लंबे से महीन श्वेत वस्त्र में नायिका लिपटी हो। वस्त्र अधखुली हो और जैसे तैसे उसके कमर के आस पास लिपटी हो। एक नज़र में अल्हड़पन का रिफलेक्शन आता हो। जिसके पैर आगे की ओर खुले हों, एक सीधी हो दूसरी टांग घुटने से मुड़ कर सतह से चार इंच ऊपर हो। पीठ पीछे की ओर ढुलकी और दोनों हाथों की हथेलियां ज़मीन से लगी हो जिसके सारी उंगलियां उठी हुई हो। उंगलियां लम्बी और पतली हो। केश खुले हों (ये सीधे हो या घुंघराले इस पर अभी मुझे सोचना है) और आधे आधे आगे पीछे बंटे हों। सीना बिल्कुल अनावृत्त हो। नायिका उम्रदराज़ हो और स्तन हल्के लचर होते हुए भी बेहद आकर्षक हो। कुचाग्र युग्म (निप्पल) नहा कर दस मिनट पहले सोए हुए नवजात शिशु से हों। होंठ एक विशेष प्रकार के संबोधन के उच्चारण में रूके हुए। आंखों के नीचे हल्के काले घेरे हों। चेहरे पर जाते हुए सांवले यौवन का नमक व

रूई का एक गीला फाहा, जादू और हथेली का ग़मगीन होना.

दुनिया जब हमें तनहा समझ रही थी हम कोहरे वाले पहाड़ पर किसी के प्रेम में गुम थे। अंर्तमन से एक आवाज़ आती। कोई पुकारता मगर उसमें आने या बुलाने का आग्रह लेशमात्र भी नहीं होता। पर कुछ वजह रही होगी कि हम ओवर कोट पहन पहाड़ के आखिरी सिरे तक चले जाते। तुम वहीं मिलती। किसी पत्थर पर बैठे एक धंुधली सी तस्वीर की तरह तुम नज़र आती। एक चुप्पी भरा मौसम था। बहुत ठंडा प्रदेश और मैं रात भर का जागा था। सोने की कोई वजह नहीं थी। खिड़की की ज्यादा पारदर्शी और थोड़े धुंधले शीशे के पार से रात भर होते बर्फबारी या थोड़े थोड़े अंतराल पर होते बारिश को देखते देखते ही जैसे रात कटी हो। सोफे पर कोहनी के नीचे एक तकिया और इंतज़ार थोड़ी सुबह होने का। तुम्हारी आवाज़ जिसे रात भर खिड़की के उस पार घटते/होते देखना था। कभी कभी कैसा होता है प्रेम कि यही हमें अनंत, अतल धैर्य भी दे जाता है। मैं मानता हूं कि अभी स्थिति वैसी नहीं आई है कि तुम्हारे वियोग में ज़हर खा ली जाए या फिर अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर माचिस मार ली जाए। जैसे मस्तिष्क में कोई आॅडियो कैसेट चलता हो। हम रिवाईंड कर के सुनते हैं। भोर पहर नींद में किसी सुखद सपने

घूँट-घूँट सिहरन...

जीने के मानी उतने ही होते हैं जितने में जी भर जाए। जी लेने के तुरंत बाद मरना मंजूर है। मरते हुए जीने के लिए भाग रहे हैं। जिन क्षणों में मर रहे हैं वह सिर्फ जिस्म को मार रहा है। बेचैनी हर बार बच निकलती है। एक मुकम्मल मौत चाहिए। पूरा का पूरा। वक्त की प्रकार में कसे पेंच पर पेंसिल सा लगा मैं हल्के हाथ से पूरा घूम जाना चाहता हूं।  जिस्म एक समतल पार्क है। वक्त की डायल वहां माली सा घूमता रहता है। जब भी कुछ उठाओ बड़ी निर्ममता से छांट देता है। एकांत में बैठकर दो उंगली अपनी पलक पर रखो तो थरथराती प्रतीत होती है जैसे हल्की रोशनी में अधजगे से सो रहे हों। पलकें आंखे छोड़ कर भाग जाना चाहती है। आंखें लाचार और बीमार दिमाग छोड़कर। क्या ऐसा होगा कि यदि मेरी आंखें किसी को लगा दी जाए तो उसमें फिर उस व्यक्ति का मस्तिष्क प्रतिबिंबित होगा ? एक सड़क दीखती है। लम्बी और आगे जाकर मुड़ती सी। दोपहर का सूरज तेज़ है। उसकी गर्मी से सड़क पर का पूरा कोलतार पिघल गया है। रास्ता काले मैग्मे का पूरा नदी बन गया है। नंगे पैर उस पर चलना होता है। पहला पग रखते ही तलवे की नर्म परत की छाल शरीर से अलग हो रास्ते पर चिपक जाते