प्रेम बहुत काॅम्पलीकेटेड विषय बना दिया है हमने। या कि प्रेम जटिल ही है? शायद दिल के लगने से कहीं कोई बड़ा वस्तु है प्रेम। हमारी तो भाषा भी बहुत गरीब है कि हम झट किसी अच्छे लगने वाले एहसास को प्रेम का नाम दे देते हैं। क्या कभी हमारे समझ में आएगा प्रेम? बहुत विरोधाभास है। अगर रोज़ प्रेम को लेकर कुछ नया नया या अलग से एहसास या समझ उपजते रहते हैं तो इस तरह को कभी नहीं समझ सकेंगे कि क्या है प्रेम या रोज़ ही समझते रहेंगे। तो क्या अनपढ़ और जाहिल व्यक्ति नहीं करता प्रेम ? क्या उसके प्रेम करने की योग्यता नहीं है? उसके अंदर उस बुद्धि विशेष का अभाव है? वह कैच नहीं कर पाएगा प्रेम की नित नई परिभाषा को ? अब तो कई बार यह भी लगता है कि हमने प्रेम का सतहीकरण और सरलीकरण कर दिया है। कई बार लगता है प्रेम को हमने दूषित कर दिया है। आम आदमी का रंग देने में, ऊपर ही ऊपर इसे सबकी जिंदगी से जोड़ने में। तो क्या प्रेम संबंधों के इतर भी होता है। हम पहाड़ पर बिना किसी के संपर्क में (यहां तक कि प्रकृति भी) रहकर प्रेम में होने का दावा कर सकते हैं या प्रेम पर भाषण दे सकते हैं। समय के साथ प्रेम बस चर्चा करने, पढ़ने,
I do not expect any level of decency from a brat like you..