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Showing posts from October, 2011

इश्क के जिस्म का घुटना आगे से सख्त मगर पीछे से चिकना, बिना रोओं का रंदा पड़ा और अनछुआ है

(अंजुमन-ए-इस्लामिया के पार्क में बैठकर ...) नज़ाकत बस नाम का ही नज़ाकत है। नाजुकी तो उसमें है ही नहीं। अल्ला झूठ न बुलाए यास्मीन लेकिन मुझे शक होता है कि मियां खत भी दूसरों का ख्याल सुनकर ही लिखते होंगे। हुस्ना के चेहरे पर का नमक नाक के पास तेज़ हो आया है। मिलावट भरी खफगी से संगुफ्ता से कहती है। खुदा जाने लिखते हैं या दूसरों से लिखवाते हैं। गोया यह भी कोई उमर है सैनिक की तरह सलामी देने की! अरे इतना भी नहीं जानते कि मुहब्बत को सलाम करना भी इश्क का एक रूमानी अंदाज़ है। सलाम यूं हो कि वजूद का पूरा हाल बयां हो जाए। हाल-ए-दिल नुमायां हो जाए और दिल के गोशे-गोशे में सिमटा पाक मुहब्बत इत्र बन पूरी वादी को महका जाए। पाकीज़गी का एहसास हो और... और मैं तो कहती हूं सलाम ऐसा हो कि बस यूं लगे कि कुछ पल के लिए सांस रूके भी, थमे भी। इक ज़रा देर दम घुटे, सांस खींचू और महसूस हो कि वो रूखसार को छूते छूते रह गया।  बेशक वो रह जाए लेकिन एक शदीद किस्म की छूअन का एहसास हो। संगुफ्ता ने ऊपर कहे पान में जर्दा लगाया। संगुफ्ता, संगुफ्ता यास्मीन जो अभी जाहिद के अचानक दिख जाने के बाद हुस्ना को कोहनी

पेड़ के तने और फुनगी में बहुत विरोधाभास है

किसी टेसन से कोई कोयले वाली गाड़ी छूटने की अंतिम चेतावनी देती है। प्रभाती गाई जा चुकी है। कोई टूटा सा राग याद आता है। पहले मन में गुनगुनाती है फिर आधार लेती हुई मैया शुरू करती है - उम्महूुं, हूं हूं हूं हूं, ला ला ला ला लाला ला ला... अनाचक लय पकड़ में आ जाता है और अबकी दूसरी लाइन से शुरू करती है। 'कि रानी बेटी राज करेगी। महलों का राजा मिला रानी बेटी राज करेगी।' सर्दियों की सुबह है। धूप खिली है। आंगन में खटिया पर मैया अपने अपनी दोनों पैरों को सामने सीधा करके बैठी है। और पैरों पर ही रानी बेटी लेटी है। आंखें में काजल, बाईं तरफ माथे पर काजल का गोल टीका, हाथ-पांव फेंकते, हल्की जुकाम से परेशान, अनमयस्क सी। बीच बीच में मन बहल जाता है तो पैर के अंगूठे को उठा कर मुंह में रख लेती है। सरसों तेल की मालिश हो रही है। मैया बड़े जतन से बहलाती हुई, कभी डांट कर कभी ध्यान बंटा कर मालिश कर रही है। एक हथेली जित्ता पेट, दो अंगुल का माथा, थोड़ा लंबा घुंघराले केश, कुल मिला कर एक गोल तकिए जैसी आकृति, गुल गुल करती, स्पंजी। गुंधे हुए गीले आटे के स्पर्श सी। कभी कभी हैरान होती हुई

महज़ छाती भर ही नहीं, ना पसली का पिंजरा ही, अन्दर एक विला है

पूअर काॅन्शनट्रेशन का शिकार हो गए हो तुम। कि जब एक पूरी कविता तुम्हारी सामने खड़ी होती है तो तुम कभी उसके होंठ देखते हो कभी आंखें। डूब कर देख पाने का तुममें वो आत्मविश्वास जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि वो अब तुम्हारे सामने झुकती नहीं लेकिन तुमने अपने जिंदगी को ही कुछ इस कदर उलझा और जंजालों के भरा बना लिया है कि उसके उभारों के कटाव को देर तक नहीं पाते। बेशक तुम वही देखने की कामना लिए फिरते हो लेकिन तुम्हारा दिमाग यंत्रवत हो गया है। तालाब में उतरते हो लेकिन डूब नहीं पाते, तुमने झुकना बंद कर दिया है। घुटने मोड़ने से परहेज करते हो और इस यंत्रवत दिमाग में संदर्भों से भरा उदाहरण है जो अब मौलिकता पर काबिज हो रही है। करना तो तुम्हें यह चाहिए कि... छोड़ो मैं क्या बताऊं तुम्हें, तुम्हें खुद यह पता है। पर प्रभु लौटना भी तो इसी जनम में होता है न? आखिर किसी के भटकते रहने की अधिकतम उम्र क्या डिसाइड कर रखी है आपने ? खासकर तब जब सभी सामने से अपने रस्ते जा रहे हों। भले ही वो सभी अच्छे इंसान हैं मगर ऐसा क्यों लगता है कि नए घर में घुसने से ठीक पहले वो मुझे ठेंगा दिखा जाते हैं ? यह क्या होता है ?

हर कण की मर्ज़ी थी आत्महत्या. यह देर-सवेर सबका अपना-अपना समवेत निर्णय था.

गांव आने के बाद सब कुछ नया नया लग रहा था। नया नया गांव लग रहा था। गांव भी नया-नया ही लग रहा था। नीले आसमान में कहीं कहीं ठहरे हुए उजले बादलों का थक्का तो पुराना था लेकिन उससे रूई की तरह एक-एक टुकड़े का छूटना नया था। ज़मीन सामान्यतः समतल ही थी लेकिन कदमों को ढ़लान लगना नया था। उसमें छिछले भंवर बन चार मुठ्ठी पानी का जमाव का लगना नया था। पेड़ में लगे हुए पत्ते नए लग रहे थे। दोनों तरफ घास लगी हुई पतले से रास्ते पर पगडंडी भी नई लग रही थी। रास्तों से ज़रा सा पैर भटका तो पैर को खेत में आया हुआ पाया। पैर के साथ साथ शरीर भी खेत में आ गया। पैर पहले आया फिर शरीर आया। फिर नएपन का एहसास और ज्यादा आया। रबड़ के पेड़ के पत्ते छूने पर कुछ ऐसे लगे जैसे ये दो चार दिन पेड़ से टूट गिर भी जाएंगे तो बेजान नहीं लगेंगे। मटर की छीमियों के पेट चीरे तो गोल गोल दाने थे। कुछ छोटे छोटे दाने भी थो जो काग़ज़ पर एक मोटे बिन्दु की तरह लगते थे। अब मन भी नया हो आया था। मैं भी अपने आप को नया लग रहा रहा था। जैसे ही इस नएपन का यकीन हुआ तो अचानक यह यकीन खो बैठा। इस संदेह को दूर करने के लिए मन से सहसा इसे बोलने का इरादा क

कहना खुदा के साथ संगत करना था

पुरानी झील का पानी हवा से इत्तेफाक रख रही थी। छोटी छोटी नावों में बैठे जोड़े हौले हौले पैडल मार रहे थे। मुहाने पर बांस को ज़वान होता पेड़ था। थोड़ी सी हवा लगने पर ही खिलखिला कर हंसा करता। एक डाली लरज कर पानी में गिर आई थी। जब हवा तेज़ चलती पानी से डाॅल्फिन की तरह निकलती और पास के बोट में बैठे जोड़े पर छींटा मार उसका स्वागत करती। बांस का पेड़ उभयचर बन गया था। जैसे मेंढ़क, मगर और कछुआ होता है। जल और ज़मीन दोनों पर रहने वाला। थोड़ा ऊपर अड़हुल का छोटा सा पौधा था। लेकिन कहने भर को छोटा। हुस्न टूट कर बरसा है उस पर। पत्तों से ज्यादा फूल खिले हैं। सुर्ख। हवा तेज़ होती। सब आपस में लड़ने लगते। ऐसा भी लगता जैसे किसी ने चुटकुला सुनाया हो और हँस हँस कर पेट दर्द हो रहा हो। कई बार ऐसा भी लगता एक ही घने पेड़ में ख्वाहिशों भरी कई कई पतंग फंसे हों। गोया पूरा नज़ारा ही ईश्क से फल फूल रहा हो।  और किले के ऊपरी खिड़की पर जहां से पूरा आसमान दिखता है और नीचे से सिर्फ खिड़की देखो तो एक आसमान का एक टुकड़ा दिखता है। एक संगत बैठती है। कुछ हस्सास तो कुछ कद्रदान की मंडली। शायर से पेशकश की जाती है। बहुत

Vomit

मन पर एक बड़ा भारी बोझ रखा है। मैं जी भर कर शराब पी लूं। अत्यधिक नींद की गोलियां खा लूं, तुम्हें बेतहाशा चूम लूं और इन सब में भी कहीं, कोई कमी रह जाए तो कलाई दुखने तक लिख लूं। मसलन  आजकल चीन का रवैया ऐसा है कि अंटार्कटिका को भी अपनी ज़मीन का हिस्सा बता दे।  अफगानिस्तान के राष्ट्रपति कितने बेबस हैं, यात्रा ही करते रहते हैं। उनका देश क्या से क्या हो गया। उन बला की खूबसूरत पठानी औरतों को क्यों नहीं आज़ादी दी जाती ?  मैं जी भर कर लिख लूं। मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है।  आखिर हमारा स्पर्श इतना पराया सा क्यों है? क्या जो चीजें हैं उनके सामने होने पर भी मुझे संशय होता रहता है ? किसी भी चीज या घटना को सर्वाधिक महत्व देकर या फिर नगण्य मान ही तो चला करता हूं। स्वार्थ इतना कि अंजुमन में देर तक ठहाकों के इक्को सुनाई दे। आत्मा की एक भटकन होती है, जिस्म अपने अंदर एक बड़ा झाड़ू लिए घूमता है। रोज़ सुबह शरीर कई भागों में बंट जाता है और नियमित रूप से सारे शहर को बुहारता चलता है। सारी स्मृतियों को साफ-साफ कर देता है। दैनिक कार्यों में कितनी ही भूलें होती रहे लेकिन जो बुनावट की याददाश्त है उ

मरियम...

तुम जानते हो सुख क्या है ? बहुत हद तक तो मैं भी नहीं जानती लेकिन फिर भी उसके आसपास का सच महसूस करती हूं। वैसे भी इंसानी एहसासों को पूरी तरह से जानने का दावा कौन कर सकता है? बड़े बड़े मनोवैज्ञानिक भी ग्राफ चार्ट की मदद, सर्वे, प्रतिशतों का खेल, औसत लोगों पर किए गए अध्ययन से ही अनुमान लगाते हैं। पूरी तरह से जानने का दावा वो भी नहीं कर पाता। कभी उनके कथनों पर गौर करना तुम्हें मैं सोचता हूं कि, मुझे लगता है कि, ऐसे मामलों में मुख्यतः ऐसा होता है कि, सामान्यतः लोग ऐसा कहते/करते हैं, मेरा अनुभव या अध्ययन फलाना कहता है, मिस्टर एम के साथ इसी हालात में चिलाना कदम उठाया था, कई इंसान औरत की तरह भी हो सकते हैं, वो पानी की तरह हो सकते हैं, जो ढ़लान देखकर उधर की ओर सरक जाता है। ब्ला...  ब्ला... ब्ला... मैं अपनी हाल-ए-दिल कहूं तो मुझे आज तक नहीं लगा कि मैं प्यार में हूं। वो जब मेरे साथ होता है तो मुझे बस अच्छा लगता है। जरूरी नहीं है कि मैं उसका चेहरा देखती रहूं। हम पार्क में एक दूसरे से उलट अपनी पीठ सटाए मूंगफली खाते हैं तो भी मुझे सूकून रहता है। और उसके आस पास होने का भ्रम भी मुझे संत

मैं धारक को पचास रुपए अदा करने का वचन देता हूँ

हां बाबूजी, पचास का नोट मैंने पूरा का पूरा बचा रखा है। बेशक दो दिन हो गए, मैंने अभी तक कुछ नहीं खाया है और अभी कम से कम तीन दिन इस बात की नौबत नहीं आने दूंगा कि इसके खुल्ले कराने पड़ जाएं। दिन के डेढ़ बज रहे हैं। और मैं ट्रेन के जनरल बोगी से लगे स्पीलर क्लास की बोगी से सटे बाथरूम के बाईं ओर दरवाज़े पर खड़ा हूं।  हवा लू के गर्म थपेड़े लगाते हुए उल्टी बह रही है। मेरे बालों की मांग रोजमर्रा के की गई कंघी से उलटे दिशा में हो गई है। मैं राॅड पकड़ कर झूल रहा हूं। थोड़ी थोड़ी देर पर चक्कर आते हैं और बहुत संभव है मैं गिर कर बेहोश भी हो जाऊं लेकिन मैं इस बात की यकीन दिला देना चाहता हूं कि बेशक मैं कहीं भी गिरूं, चाहे वो नदी हो, पहाड़ हो, पुल हो, बाड़ा हो, खाई हो, या जंगल हो मैं अपनी मुठ्ठी से यह पचास रूपए का नोट छूटने न दूंगा। यह मेरा अपने पर असीम भरोसा ही कह लो कि मैं इस मामले में अपनी जेब पर भी भरोसा नहीं कर रहा। जेब से जुड़े अपने खतरे हैं। कोई जेब मार सकता है। मेरे पैसे खुद-ब-खुद कहीं गिर सकते हैं लेकिन अगर कोई मेरे इस मुठ्ठी में बंधा पचास का नोट छीनना भी चाहेगा तो उसे पहले मुझसे लड़ना हो