(अंजुमन-ए-इस्लामिया के पार्क में बैठकर ...) नज़ाकत बस नाम का ही नज़ाकत है। नाजुकी तो उसमें है ही नहीं। अल्ला झूठ न बुलाए यास्मीन लेकिन मुझे शक होता है कि मियां खत भी दूसरों का ख्याल सुनकर ही लिखते होंगे। हुस्ना के चेहरे पर का नमक नाक के पास तेज़ हो आया है। मिलावट भरी खफगी से संगुफ्ता से कहती है। खुदा जाने लिखते हैं या दूसरों से लिखवाते हैं। गोया यह भी कोई उमर है सैनिक की तरह सलामी देने की! अरे इतना भी नहीं जानते कि मुहब्बत को सलाम करना भी इश्क का एक रूमानी अंदाज़ है। सलाम यूं हो कि वजूद का पूरा हाल बयां हो जाए। हाल-ए-दिल नुमायां हो जाए और दिल के गोशे-गोशे में सिमटा पाक मुहब्बत इत्र बन पूरी वादी को महका जाए। पाकीज़गी का एहसास हो और... और मैं तो कहती हूं सलाम ऐसा हो कि बस यूं लगे कि कुछ पल के लिए सांस रूके भी, थमे भी। इक ज़रा देर दम घुटे, सांस खींचू और महसूस हो कि वो रूखसार को छूते छूते रह गया। बेशक वो रह जाए लेकिन एक शदीद किस्म की छूअन का एहसास हो। संगुफ्ता ने ऊपर कहे पान में जर्दा लगाया। संगुफ्ता, संगुफ्ता यास्मीन जो अभी जाहिद के अचानक दिख जाने के बाद हुस्ना को कोहनी
I do not expect any level of decency from a brat like you..