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Showing posts from November, 2012

144, हरि नगर, आश्रम

डियर सर, जो एक गुमनाम चिठ्ठी आज सुबह लेटर बाॅक्स की अंदरूनी दीवार से होकर नीचे गिरी है, उस पर धुंधली सी अर्द्धचंद्रकार मुहर बताती है कि वह जंगपुरा डाकघर को कल दोपहर प्राप्त हुई है, जैसा कि रिवाज़ और कहावत है कि लिफाफा देखकर ही खत का मजमून जान लेते हैं तो प्रथम दृष्ट्या अनुमान यह लगता है कि यह चिठ्ठी आपके किसी जानने वाले ने ही आपको भेजी है, स्पष्ट है कि प्रेषक का नाम इसमें कहीं नहीं लिखा जो कि जानबूझ कर किया गया लगता है, लेकिन जोड़ना चाहूंगा कि ऐसा कर प्रेषक अक्सर यह समझते हैं कि वे पहचान में नहीं आएंगे लेकिन होता इसका उल्टा है। बस फ्राॅम वाले काॅलम में घसीटे हुए अक्षर में एम का इनिशियल लिखा है जो आगे चलकर आर में बदल गया है। लेकिन सर, मैं जानता हूं कि हम भारत में हैं और आप जेम्स बांड नहीं हैं जिससे यह ज्ञात हो कि यह खत आपके बाॅस का है। वैसे भी आपकी बाॅस आपको खत भेजकर बुलाने से रही (वो आपको आधी रात निक्कर में ही आपको अपनी गाड़ी में उठाकर आॅफिस लाने का माद्दा रखती है) पीले रंग की लिफाफे में जोकि अंदर से प्लास्टिक कोटेड है जो यह बताता है कि कोई ऐसे अक्षर उनमें लिखे हैं जिसे कि बारिश-

किताबों से जुड़ाव हमारा कोई पुश्तैनी शौक नहीं अभाव से उपजा एक रोग है

वो आई और चली गई। मेरे पास अब सिर्फ यह तसल्ली बची है कि वो अपने जीवनकाल के कुछ क्षण मेरे साथ और मेरे लिए बिता कर गई। और जब से वह गई है मैं मरा हुआ महसूस कर रहा हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि वो जी रही होगी कहीं। उसे जीना आता है और मुझे मरना। वो भी थोड़ा थोड़ा मर लेती है मगर मैं जी नहीं पाता। मैं मरे हुए में जीता हूं। वो जीते जीते ज़रा ज़रा मर लेती है। वो गई है और मुझे लगता है कि नहीं गई है। हर उजले उपन्यास के कुछ पृष्ठ काले होते हैं या कालेपन से संबंध रखते हैं। आज रम पीते हुए और उसके साथ मूंग की सूखी दाल चबाते हुए मैं सोच रहा हूं कि कई बार हम किसी उजले शक्स के लिए एक टेस्ट होते हैं जिसे गले से उतारना खासा चुनौतीपूर्ण होता है। और इसी कारण यह एक थ्रिल भी होता है। जीवन के किसी कोने में सबका स्थान होता है। बेहद कड़वी शराब पीने की जगह भी हमें अवचेतन में मालूम होती है। सामने वाले की आंखों में कातरता देख अपनी जि़ल्लत भरी कहानी के पन्ने खोलने को भी हम तैयार हो जाते हैं। अंदर कुछ ऐसा भी होता है कई बार जो हमारे मूल नाम के साथ लिखने को तैयार नहीं होता मगर वो जो अमर्यादित और अनैतिक पंक्तियां हैं

पीली बत्ती

इस वक्त, हां इसी वक्त जब नवंबर अपने पैरों में लगती ठंड से बचने के लिए रजाई में अपने पैर सिकोड़ रही है। इसी वक्त जब मैं माज़ी में घटे हालात पर हैरां होता हुआ चीनी मिट्टी में तेज़ी से ठंडे होते हुए चाय के घूंट सुड़क रहा हूं। इसी वक्त जब कम्प्यूटर की स्क्रीन अपने तकनीकी खराबी के बायस अपनी पलकें झपका रही है और ऐसा लग रहा है जैसे इतनी रात गए मैं माॅनिटर के नहीं आईने के सामने बैठा हूं। दिल में रह रह कर सवाल उठ रहा है कि जिंदगी किसलिए ? इतने दोस्त क्यों, हम कहां तक? किसी का साथ कब तक? कैसे हो गया इतना सब कुछ कि अब तक यही लगता रहा कि कुछ भी तो नहीं हुआ है। आज क्या हुआ है कि सबके चेहरे यकायक पराए लगने लगे हैं। तस्वीरें खिंचवाता हुआ आदमी उस वक्त खुद को किस आवरण में ढ़कता है ? क्या यकायक लापरवाही से यह नहीं मान लेता है कि जिं़दगी सुंदर है। दो मिनट दो तो किसी आत्मीय या किसी आशिक की कही बातें याद करता है कि तुम्हारा मुकम्मल वजूद हंसने में ही छंक पाता है। हंसी का बर्तन कैसा आयतन रखता है। तो क्या सन्तानवे फीसदी लोग हंसने से ही अलग हो पाते हैं और इतने ही प्रतिशत लोग अगर उदास हों तो सारी शक्लें एक

निरक्षर लिखता है पहला अक्षर

स्याही में जो इत्र की खुशबू घुली है  उनमें रक्त, पसीने और आंसू  के मिश्रण  हैं   जिसने ख़त भेजे हैं अक्षरों में उनका चेहरा उगता है उनकी आँखें कच्चे जवान आम की महकती फांके हैं खटमिट्ठी सी महकती हैं वे आँखें और तब  निरक्षर लिखता है पहला अक्षर। ***** प्रिय ब, आईने में किसी वस्तु का प्रतिबिंब उतनी ही दूरी पर बनता है जिस दूरी पर वह वस्तु वास्तव में रखी हुई है। आज दिन भर  तुम्हारे  मेल्स पढ़े। पढ़े, पढ़े और फिर से पढ़े। पढ़े हुओं को फिर से पढ़ा। पढ़ते पढते तुम्हारी अनामिका और कनिष्ठा उंगली दिखाई देने लगी। दिन भर किसी के इस्तेमाल किए हुए शब्दों के साथ होना वैसा ही लगा जैसे कोई परीक्षार्थी किसी दूर के रिश्तेदार के यहां परीक्षा के दौरान रूकता है और उस दौरान उसके घर के तेल, साबुन, शैम्पू, तौलिये का इस्तेमाल करता है।  मैं भी  जाते  नवंबर की गरमाती धूप की तरफ पीठ करके दिन भर तुम्हें पढ़ता और सोचता रहा। और अब ऐसा लग रहा है मैंने तुम्हारे ही कपड़े पहने हैं, ज़रा ज़रा गुमसाया हुआ जिसमें तुम्हारे बदन की गंध घुली है, कुरती के पीठ वाले हिस्से पर तुम्हारे बालों की ख

कोई जिस्म के ताखे पर रखी डिबिया आँखों की रास कम कर दे

एक ने अपना भाई खोया तो दूसरे ने अपना घर। कभी कभी मन थकने, उसमें शून्य भरने और दुनिया बोझिल लगने के लिए दिन भर के दुख की जरूरत नहीं होती। खबर मात्र ही वो खालीपन का भारीपन ला देता है। कोई पैर झटक कर चला जाता है और पहले से खोखली चौखट के पास उसकी धमक बची रह जाती है जो उसके अनुपस्थिति में सुनाई दे जाती है। एक ही हांडी में दो अलग अलग जगह के चावल के दाने सीझ रहे थे। तल में वे सीझ रहे थे और ऊपर उनके सीझने का अक्स उबाल में तब्दील हो रहा था। ऐसा भी नहीं था कि वे सबसे नीचे थे। सबसे नीचे तो आंच थी जो उन्हें उबाल रही थी। बदन जब सोने का बन रहा था तो मन तप रहा था। शरीर इस्तेमाल होते हुए भी निरपेक्ष था। शरीर भी क्या अजीब चीज़ है, भक्ति में डालो ढ़ल जाता है, वासना में ढ़ालो उतर जाता है। कई बार उस मजदूर की तरह लगता है जो घुटनों तक उस गाढ़े मिट्टी और पानी के मिश्रण में सना है, एक ऐसी दीवार खड़ा करता जिसमें न गिट्टी है और न ही सीमेंट ही। क्या दुख पर कोई कवर नहीं होता या हर कवर के नीचे दुख ही सोया रहता है? क्या दुख हमारे सिरहाने तकिया बनकर नहीं रखा जिसपर हम कभी बेचैन और कभी सुक