विगत डेढ़ महीन से रेडियो और टी.वी. के लिए स्क्रिप्टों पर काम कर रहा हूं। दिमाग भन्ना सा गया है। कुछ अपनी पसंद का नॉवेल पढ़ने, संगीत सुनने और डायरी लिखने का मन तभी होता है ऐसे किसी प्रोजेक्ट पर काम कर रहा होता हूं। दिमाग की हालत हमेशा से बदहवाशी की तरह रही है। सीखता बहुत देर से हूं लेकिन पानी तेज़ी से चढ़ता है। जिस चीज़ से गुज़र रहा होता हूं उसी फॉमेट में दिमाग दौड़ने और सोचने लगता है। अगर किसी उमेठ कर लिखे हुए दिलचस्प नॉवल के पांच पन्ने पढ़ने के बाद उसी तरह से दुनिया दिखने लगती है। आधे होते होते लगता है जैसे मेरी किताब है, उत्तेजना बनी रहती है और पूरा होते होते सारा जोश ठंडा हो जाता है जैसे ऐसी भी कोई खास बात नहीं थी मेरे लिखने में। यही वजह है कि कभी कभी शब्द फीके लगते हैं। विभिन्न जॉर्नर में और अलग अलग मीडियम के लिए लिखने में एक बड़ा खतरा एक खास तरह की बीमारी के शिकार हो जाने का खतरा रहता है जिसमें वहीं चीजों को जोकि कागज़ या कंप्यूटर पर लिखी जा रही होती है सामने घटती हुई प्रतीत होती है, लिखने वाला अपनी सोच के मार्फम अपनी कलम की रोशनाई से गुज़रता हुआ कागज़ पर लिखे जा रहे घटनाओं के बाज़ार क
I do not expect any level of decency from a brat like you..