बुखार के यही दिन थे। उस पल दोनों कमज़ोर हो गए थे। भूल गए थे अपने होने के पीछे का वजूद। अपनी निम्नवर्गीय परिवार पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर रवि का भाईयों में सबसे बड़ा होना और उधर हुस्ना पर मर्यादा की मार। तुर्रा ये दोनों एक परिपक्व प्रेम के बारे में साहित्य में पढ़ रहे थे। होनहार थे तो जाहिर है पढ़कर सिहरते भी और रोते भी। लेकिन उस वक्त शायद एक रंग में रंग गए थे। एक के ख्याल दूसरे को अपने लगने लगे थे । यहां सोचने समझने की ऐसी परत तैयार हो गयी थी कि दोनों अलग-अलग हैं ही नहीं। बुखार से तपते रवि ने पागलों जैसे ढ़ेर सारी बातें करने के बाद हुस्ना के गले पर अपनी तपती छाप क्या छोड़ी। हुस्ना पिघलती गई। दोनों को खुद से ही प्यार होने लगा था और वो अपनी ही परछाई में छुप जाना चाहते थे। छिप जाना चाहते थे मानों ठण्ड में बारिश हुई हो और गली का कुत्ता थोड़ा सा भींग कर किसी छज्जे के बित्ते भर खोदी गई जगह में दुबक रहा हो। हुस्ना और रवि में तब फर्क करना मुश्किल हो चला था। रवि ने अपना थोड़ा सा बुखार हुस्ना को दे दिया था। उधर हुस्ना के मन में बाज़ार का गीत गूंज रहा था - आओ अच्छी तरह से कर लो प्यार, कि निकल
I do not expect any level of decency from a brat like you..