Skip to main content

Posts

Showing posts from September, 2010

हिज्र

डिस्क्लेमर: इस पोस्ट के सभी पात्र वास्तविक हैं, इनका दिए गए ब्योरे से, उन घटनाओं, स्थानों एवं संदर्भित व्यक्तियों से पूरा सम्बन्ध है और ऐसे सभी काम के लिए वही पात्र उत्तरदायी है . दिनांक : गुलाबी सर्दियों कि आमद स्थान    : सामान्य सी बात थी,  हर जगह घटती रहती है. समय     : टूटने का कोई वक्त होता है क्या ?? नहीं बताओ ना होता है क्या ?   जुर्म       : वही, घिसा पिटा काम जो सब करते हैं. इकबालिया बयान : 20 वीं सदी के जाते जाते और 21 वीं सदी की दहलीज़ पर पैदा हुआ, प्रेम करता हुआ और और जीता हुआ मैं एक कन्फ्यूज्ड किशोर था. मुझे जावेद अख्तर के लिखे मीठे गाने अच्छे लगते थे, देर रात में कुमार सानू और सोनू निगम को सुना करता. जिनमें बेशुमार, तितली, नदी, पहाड, झड़ने, बादल, रंग, बारिश, आंचल और मदमाते नयनों का जिक्र होता. मुझे सोच कर सारी कायनात मुहब्बत से सराबोर लगती. तब मुझे बहुत कुछ कहाँ पता था... लेकिन जो पता था वो यह कि तुम्हीं सच हो और पूरे जगत में बिखरी हो. हर किताब और गिफ्ट पर बड़े भलमनसाहत से लिखता था – लव इज लाइफ.  तब कहाँ पता था कि मुहब्बत फुर्सत में किया जाने वाला काम है. भोलेपन

फरजंदा

इतवार का दिन था और सुबह के साढ़े दस बज रहे थे. फरजंदा गुसलखाने से खुली हुई मैक्सी में जिसके घेरे बड़े फैले हुए थे, नहाकर निकली. उसके हाथ में प्लास्टिक की बाल्टी है जिसमें धोए हुए कपडे थे. रस्सी पर कपडे डालने से पहले वो नीचे झुक कर बाल्टी में कपडों का पानी निचोड़ती है. उसके बाल भीगे हुए हैं जिसके बायस मैक्सी के नीचे का अन्तःवस्त्र और और नुमाया हो रहा था. ठीक पांच कदम पीछे सिर पर पगड़ी बांधे हैदर बैठा था जो अपने आँखों के ठीक सामने बांस के पेड़ पर लगे निशान को लगातार देखे जा रहा था. फर्जन्दा के झुकने-उठने के दरम्यान उस निशान को देखना बाधित हो रहा था लेकिन हैदर अभी कुछ देर वहीँ देखते हुए सोचते रहना चाहता था. अपने को इस काम में मशगूल कर उसने अपने पायजामे की जेब टटोली, बीड़ी निकाली और जला ली. दोनों पैर जोड़े, अंगूठे और तर्जनी को गोल बना, उनके बीच दबी बीडी का कश लेने लगा. सोचते हुए उसे बीड़ी खत्म  होने का ख्याल तब आया जब उसकी ऊँगली जलने लगी. यूँ छज्जे का काम कर रही खपरैल के नीचे इस कोण पर बैठ कर धूप में भी देर तक धुएं का बने रहना बड़ी ताज्जुब सी बात थी. फरजंदा कपड़ों को टांगने के लिए बार

ऐसी उदासी बैठी है दिल पे...

कैमरा  घूमता हुआ  पर्देदार बाथरूम को दिखता है, जहां शुरू में अँधेरा है पर आसपास चंद मोमबत्तियाँ जलने के बायस पीली रौशनी ने घेरा बना रखा है और इसी के  वज़ह  से देख पाने लायक उजाला है... यह देख कर देखने कि जिज्ञासा और बढ़ जाती है ठीक वैसे ही जैसे थोडा दिखाना और बहुत छिपाना पृष्ठभूमि में बांसुरी बजता है. कैमरा फिर बाथटब पर फोकस करता है, जिसमें रखे गुलाब  की  पंखुड़ियों के बीच निर्वस्त्र नायिका नहा रही है, सीन पीछे से लिया जा जाता है... नायिका बाथटब में गर्दन पर हथेली लिए उठती है, उसके लगभग कन्धों को छूते बाल बेहद  अनुशासित  हैं.....इसी दरम्यान अँधेरे और पीली रौशनी से मिलकर थोड़े सुनहरे और तम्बाई  रंग के रौशनी के बायस नायिका का भीगा हुआ, गदराया पीठ जिसमें कई करवटों के पेंच हैं और जोकि गालिबन गोरा है, नमूदार होता है. उठते वक्त उस गीली धडकती दीवार पर गुलाब कि एक पत्ती भी चिपक जाती है. जो तुरंत ही बगैर किसी सराहे के गिर भी जाती है... फिर नायिका अपनी आखिरी अंगूठी भी उतारती है ... और दर्शक फटी आँखों से एकटक निहारे जा रहे होते हैं, सोचने-समझने  की  शक्ति क्षीण हुआ जाती है, एकाग्रता अपने प

लिखना...

-2-

यहीं, रत्ती भर की दूरी पर...

सारे अरमान और सपने दिल में समेट कर एक सांस में उसे बाहर लंबी ठंढी आह भर कर बाहर फैक दिया, बाहर पैंतालीस डिग्री के कोण से अन्धकार बरस रहा है. इस कोण पर तो इंसान का अभिमान भरा गर्दन होता है... रत्ती भर का फासला है उस तरफ ... बस खेल खत्म ही समझो, बला से मुक्ति, उधेड़बुन से निजात पर क्या यह मोड इतिहास का बड़ा बदन मोड होगा? क्या इसे पढते वक्त कोई पाठक यह पन्ना मोड कर रखेगा? कोई पेंच, गुलाब, रेशमी धागा या मार्कर को बरतेगा ? उस पार कितनी शांति है, बीच में थोडा सा गंदला पानी जरूर है जैसे बरसात में खोली और गली के बीच में होता है पर जब पार करने के लिए ईंटों पर पैर रखते थे तो उम्मीद होती कि तर गए लेकिन याद है कैसे वो भीतर से खोखली हुआ करती और पाँव बीच पानी में उलट जाते... एक छपाके से डूब जाते, पूरी सांस फिजा में निकल जाती, गर्दन तक डूब जाते मनो दिल डूब गया हो... और हर बार एड़ियों में मोच रह जाती. उदासी के हसीन टुकड़ा सामने दिखा, वक्त हमको कुत्ते की तरह ललचाता है उसको उछल कर लाख पकड़ना  चाहते हैं, हाथ नहीं आता. आज जब सारी आकृति ने मुझसे संतोष कर लिया है तो यूँ निकम्मा मरते अच्छा नहीं लग रहा.

ज़िन्दगी... हमको भी हमारी खबर नहीं आती

बंद कमरे के घुप्प अँधेरे में भी बदन में तिल खोज देने जैसा परिचय था दोनों का. नयी-नयी शादी थी... तन समर्पित करने के दिन तो थे पर संसर्ग के दौरान ही मन भी समर्पित होने लगे.... देवेंद्र जब भी गर्म साँसें पत्नी के चेहरे पर छोड़ता तो सुनीता के इनकार के कांटे मुलायम हो जाते फिर दोनों चारागाह के मवेशी हो जाते. फाल्गुन के फाग जैसा नशा छाया रहता, उन्मत्त, उन दिनों बदन, बदन नहीं गोया एक खुलूस भरा तिलस्म हुआ करता जिसे सहला कर जिन्न पैदा करने की कोशिश ज़ारी रहती, जाने क्या-क्या तलाश की जाती... देवेन्द्र   तो बरसों का प्यासा था और उसने यह तलाश अब सुनीता को भी दे दी   ... और एक दूसरे में यह तलाश हर स्तर पर थी ... शारीरिक, आत्मिक, अध्यात्मिक और पारलौकिक स्पर्श की अनुभति सर चढ कर बोल रही थी... देवेन्द्र को बलजोड़ी करने की आदत थी सो वो अपने सख्त हाथों से कलाई पकड़ कर पत्नी का हाथ मरोड़ता रहता, अपने आगोश में ले किसी अजगर के पाश सा जकड़ कर उसे तोड़ देने की कोशिश करता... इससे सुनीता के नाज़ुक और मरमरी हाथों में तब एक छुपा हुआ दर्द उभर आता... सुनीता को को खीझ आती पर पागलपन की इस दीवानगी में आखिरकार उसे