कूथता हूं कराहता रहता हूं खुद को शरापता रहता हूं दिल मेरा मुझको लानतें भेजता रहता है बरामदे में पड़ा किसी बूढ़े सा खांसता रहता है जबकि ये जानता हूं कि लिख सकना अब बस अपने लिए है ये एक हस्तमैथुन करने की आदत सी है दिन निकलते रहते हैं बोझ बढ़ता जाता है कोफ्त पलता जाता है खुद पर शक बढ़ता जाता है न लिख पाना हस्तमैथुन न कर पाने से भी ज्यादा बड़ी खीझ है हां, पहले लगता था एक नदी भर रो सकता हूं सबका और किसी एक का भी हो सकता हूं आज लगता है मेरी आंखें एक नदी भर सोख सकती है एहसास से बालातर हूं मैं सबसे बेखबर हूं आज न किसी का रहगुज़र और न किसी का रहबर हूं रात आ ही जाती है दिन भी हो ही जाते हैं कैलेण्डर पर साल महीनों के पन्ने बदल ही जाते हैं मगर दिल है कि मेरा पत्थर हुआ जाता है बेग़ैरत, खुदगर्ज और कमतर हुआ जाता है राह आगे अब न कोई दिखाई देती है मुझको मेरी ही रूलाई नहीं सुनाई देती है वक्त की यह कैसी व्यंजना है मैं जो भी करना चाहूं कब मना है पांव बढाता हूं न पीछे खैंच पाता हूं अब तो करूं या न करूं ये भी न सोचता हूं ज़िंदगी उधार की लगती
I do not expect any level of decency from a brat like you..