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Showing posts from March, 2013

खैर छोड़ो....मैं भी कितना वाहियात आदमी हूं

नीले घेरे वाले उजले सर्चबॉक्स मैंने लिखा ‘एस’ तो चार पांच परिचित दोस्तों के नाम छन आए। छठा जो है वो तुम्हारा चेहरा है जो कुछ क्षण में ही तुम्हारे फोटो अपडेट करने के बायस बदल जाता है। मैंने अक्सर उस छठे पर क्लिक करके तुम्हारे पेज पर जाता हूं। शुक्र है मेरी जानकारी में ऑरकुट की तरह फेसबुक अब तक यह नहीं बता रहा कि रिसेंट विज़िटर कौन कौन है? बदलते दौर में चीज़ें अब गोपनीय नहीं पाती। सबको हमारा अता पता मिल जाता है। डाटा सुरक्षित नहीं रही। मेरे ई-मेल पर अक्सर वियाग्रा वाले अपना प्रोमोशनल ऐड भेजते रहते हैं। कहने को यह बल्क मैसेज है लेकिन अगर गौर किया जाए तो समझ में आता है कि कोई खिड़की है जहां से कुछ रिसता रहता है। अगर कभी ऐसा हो असली जीवन में भी कि लोग देख सकें कि हमारे मन की खिड़की में रिसेंट विज़िटर कौन है तो रिश्तों पर बुरा असर पड़ सकता है। खैर छोड़ो....मैं भी कितना वाहियात आदमी हूं कहां से कहां बह जाता हूं। मैं तो यह कह रहा था कि पिछले कुछ दिनों में तुम्हारे पेज पर इतना बार गया हूं कि छठा पायदान एक एक सीढ़ी ऊपर चढ़ता हुआ नंबर एक बन गया है। अब आलम यह है कि सर्चबॉक्स में अब अगर ‘क

पंचिंग बैग

कभी कभी लगता है मैंने उसे पहचानने में भूल कर दी। - हो जाता है, हम कहां सारी जि़ंदगी किसी को सही सही समझ पाते हैं। पेशे में पड़ा डाॅक्टर, टीचर, वकील भी निजी जीवन में ऐसी गलती कर ही बैठते हैं। तुम मेरा काॅन्फिडेंस बढ़ाने के लिए ऐसा कह रहे हो? जबकि यह दुःख की बात है। - मैं सिर्फ वो कह रहा हूं जो सच है, जैसा हो जाता है, हर किसी से नहीं,  मुझे लगता है जैसे वो मेरे लिए थी - मगर तुममें से किसी के पास ज्यादा समय नहीं था। बाई द वे, लेट हर फ्री नाऊ। तुमने काफी पी ली है । न.... नहीं..... ज्यादा पीने में और कुछ नहीं होता.... मगर ऐसे में उसके रिएक्शन शाॅट्स याद आने की दर बढ़ जाती है।.... और फिर....  वो सब गैप भी जहां- जहां उसे हमने समझने में गलती की। - क्या उसको लेकर तुम्हें कोई गिल्ट होता है ? बिल्कुल नहीं। - फिर? गिल्ट नहीं, बस संदेह... खुद पर। - संदेह? क्यों ? उन लोगों की बातचीत याद आती है जिसपर उसने मेरी नज़र में अपने परिचित स्वभाव से उलट प्रतिक्रिया दी थी। एक मिनट.... क्या प्रतिक्रिया से व्यक्ति का स्वभाव पता चलता है ? - यही अभी मैं भी पूछने वाला था। मगर प्रतिक्रिय

शॉट डीविज़न

डॉक्टर ने कहा है कि तुम्हारे शरीर में डब्ल्यू. बी. सी. (white blood cells) की कमी हो गई है और इसकी कमी से शरीर में रोग प्रतिरोधक घटती है। बिस्तर पर पड़े पड़े और रम के सोहबत में सारा दिन जो कुछ इस ख्याल से गुज़रा वो यूं है कि बेहिसाब तनहाई  है। इसे काटने के लिए क्या कुछ नहीं किया। कई अलग अलग वाली टेस्ट वाली सिनेमा देखने की कोशिश की, इसी तर्ज पर कई किताबों में सर दिया। मगर मैं इतना स्वार्थी हूं कि सब कुछ ताक पर रखकर इन चीज़ों में नहीं खो सकता। बिस्तर पर बैठे बैठे और मूड खुश रहे तो सब जंचता है मगर कई बार जो ख्याल दिल में है मन उससे नहीं उबर पाता। मैं खुश रहने के लिए काम नहीं करता। न काम करके खुश होता हूं। काम करता हूं इसलिए कि अपने दिन के 12 घंटे काट सकूं। कई बार उमग कर, हुलस कर और कई बार मजबूर होकर फोन उठाया। बुखार में जब कमज़ोरी से कमर टूट रही हो तो क्या संभाला जाए ? जीभ पर जब कोई स्वाद न लगता हो, होंठ बार बार खुश्क हो जाते हों, और उसे लपलपाई जीभ से बार बार गीला करना पड़े और कई लोगों ने लगभग मिन्नत करना पड़ जाए कि 'प्लीज़ मुझसे एक मिनट बात कर लो'। जी में कई तरह का ख्या

कथार्सिस

एक दिन की तीन मनोदशा सुबह 9:40  जन्म हुए कई घंटे हो चुके हैं। अभी खून से लथपथ हूं। मां की नाभि से लगी नाल अब जाकर कटी है। खुद को आज़ाद महसूस कर रहा हूं। मां के साथ शरीर का बंधन छूट गया। अब यहां से जो सफर होगा उसमें अगर सबकुछ ठीक रहा तो मां के साथ बस मन से जुड़ा रहूंगा। किकियाना चाहता हूं पर लगता है मां ने मुझे शायद तेज़ ट्रैफिक वाले शहर में पैदा किया है। गाडि़यों के इतने हॉर्न हैं, क्या अलार्म है! दोपहर 12:30 बजे जिंदगी में आपका पैदा होना ही फेड इन है। और मर जाना फेड आऊट। इसी बीच आपके जीवन का नाटक है। गौर से सुनो और अपनी आपकी दुखती रग पर हाथ रखो सारे सारंगिए एक साथ अपना साज बजाने लगते हैं। रूमानी पल का ख्याल करते ही जिस्म से सेक्सोफोन बजाने वाला निकलता है। बेवफा को गैर की पहलू में देखो तो पियानो बजता है। यार को याद करने बैठो तो एक उदास वायलिन। पैदा होना प्री प्रोडक्शन है। किशोरावस्था लोकेशन रेकी है, जवानी शूटिंग और अधेड़ावस्था पोस्ट प्रोडक्शन। आदमी सिनेमा है। शाम 7:00 बजे पिता:    कित्ता कमाते हो जो इतना शेखी है? मैं:        15 हज़ार पिता:    और खर्चा ? मैं:        सात हज़ार

संझा और लत्तर

निवेदिता नीले कुरते में तुम बुलशेल्फ के सामने खड़ी हो नीचे भी कुछ पहन ही लेती यूं गहरी गहरी नज़रों से झांकती हो मिलन का लम्स अब तक काबिज है मुस्काते हुए थकी थकी दिखती हो थकी थकी दिखती हो या फिर से थकाने का इरादा है बुकशेल्फ के सामने खड़ी हो फिर भी मुझे आरा मशीन लगती हो मैं जरासंध की तरह खुद को चीड़ा जाता महसूस कर रहा हूं। इस दुनिया में जहां सच के भी प्रायोजक होते हैं मैं देखता हूं कि बैकग्राउंड के सारी किताबें एक दूजे में मर्ज होकर डिजाल्व होते हैं और तुम निखरती हो प्रेजेंट्स से लेकर एंड क्रेडिट तक मुर्गी, अंडा और आमलेट से फोरप्ले, फक और ओर्गज्म तक नीले तारे गिनने से लेकर भुखमरी तक तुम्हारी बालकनी के सामने अपनी गरीब पिता तक को न पहचानने की ग्लानि से इतवार को बिना निवाला पूरी बोतल उड़ेले जाने तक बाल यौन हिंसा से चकमते तारों के साथ शहर बदलने का सफर तय करने तक मेरे मन के सिनेमा पटल पर तुम ही काबिज हो। सिग्नेचर की बोतल में लगा मनी प्लांट बुरा मान दूसरे की खिड़की पकड़ रहा है।

बिलबिलाया घूमा करता है नेवला

और चूहे बिल्ली की तरह हम दूसरे पर टूट पड़े। अपने अपने दायरे की सारी बातें भूलकर। वो क्षण सिर्फ मेरा था, वो क्षण सिर्फ उसका था। कभी मैं उसकी बाहों में था तो कभी वो मेरे आगोश में थी। हमले ज़ारी थे। वो बदहवाश सी थी और मैं केवल उसे जीत लेना चाहता था। उसके बदन के खड़े हो गए सारे सुनहले भूरे रोएं को सहलाकर शांत कर देना चाहता था। उसकी गोरी गुदाज बाहों पर च्यूटी काटना जैसे एक नीली तितली का कुछ क्षण के लिए उग कर मिट जाना। हम दोनों ने अपनी पूरी इसमें ताकत झोंक रखी थी। यहां हारना भी जीतना था। यह हिंसा भी बाप से मार खाने की तरह अधिकार सुख था। ऐसा लगता था जैसे मैं नगरपालिका द्वारा लगवाया गया टूटा नल होउं जो अब टूट गया है और वो झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली स्थानीय निवासी जिसे मानसिक असुरक्षा इतना सताता है मानो पानी अब तीन चार दिन नहीं आने वाला सो वह पति के खाली किए जा चुके शराब की बोतलों तक में पानी भर रही हो। वह भी मुझको वैसे ही बरत रही थी जैसे मैं फिर उसे नहीं मिलने वाला। हम दोनों एक दूसरे को रौंद रहे थे। वो जांघें जो मेरी हसरत थे आज उस पर मेरी उंगलियां वहां मचल रही थी। उसकी पीठ दोपहर में नदी क

रॉ फुटेज में डंप जिंदगी

दफ्तर छोड़ने के बाद उसकी अनुपस्थिति ज्यादा हाजि़र हो गई है। वो कोना जहां वो बैठा करता था इतना सुनसान लगता है जैसे जेठ महीने में गलियों में उठते गोल गोल बवंडर हू - हू करते हैं। उसका कम बोलना अब ज्यादा सुनाई दे रहा है। रफ स्क्रिप्टों पर यहां वहां की गई काट पीट, दो शब्दों के बीच में प्रूफरीडिंग की तरह कई निशान लगे हैं, ये खोंच हैं जो गांव की गलियों के गुज़रते टटिये में होते हैं और जिनमें अक्सरहां कपड़े फंसते हैं। अक्सर ही कोई सूत उधड़ कर रह जाता है और हम कभी फुर्सत में उस उधड़े सीवन को ठीक करने की कोशिश करते हैं तो उसकी अंतिम परिणिति उस पूरे धागे को कपड़े से अलग करने पर जाकर खत्म होती है। ह्वाईट बोर्ड पर विकल्प के रूप में लिखे उसके पंचलाइन, आधे मिटे मिटाए, खुद जन्माए और मारे गए, जो कभी जार्नर, फॉर्मेट में फिट ना होने के बायब या क्लाइंट से अप्रूव नहीं होने के कारण रिजेक्ट हो गए, उन्हें कभी अपनी किताब में संजोने के दिली इरादे की चुप्पी लिए दफन कर दिया कि एक दिन ये मुहावरे के रूप में अपनी शक्ल अख्तियार करेंगे। अचानक जब भी दराज़ खोलता हूं तो रिसाइकल लिफाफे पर उसके वन लाइनर मिल जाते

नींद भरी आँखें और क्लीन शेव करने की कोशिश

मैं झटपट छत पर गया। मचिए पर एक पैर रखकर, कमर पर हाथ रखे आसमान की ओर देखकर अपने तलवे की जड़, फेफड़े की पसलियों, गले की नसों को एकमेक कर जितनी भी हवा खींच कर छोड़ी जा सकती है, सबको समेट कर आसमान में छोड़ दिया। मगर समेटी गई अन्य तमाम चीज़ों की तरह भी वे भी मेरे अंदर से निकल न पाईं। ख्याल आया कि मैं फ्री हो गया मगर यह सिमटा हुआ दिमाग के तहखाने के कोने में किसी जर्मन किचेन के शिल्प जैसा हो गया। अब बस छूने भर की बात थी यह तहदार परत बड़ी ही चिकनाई से खुलने लगती। याद टच स्क्रीन सा सेंसिटिव है। आप बस एक कोंटेक्ट याद करो आपको उससे जुड़ी कई विकल्प बताने लगता है। आप उसे मैसेज भी कर सकते हैं, आप उसके कोंफ्रेंस चैट भी कर सकते हैं, आप अलां घटना को याद कर सकते हैं, आप फलां घटना को कल्पना में फिर से शुरू कर सकते हैं जिसमें पछतावे के बायस अंत अब आपकी मर्जी हो। मन निर्देशक है या एडीटर? वक्त अगर सबसे बड़ा स्क्रिटराइटर है तो जिंदगी की फिल्म इतनी उबाऊ क्यों है? कहते हैं समय और प्यार से बड़ा रेज़र कोई नहीं, चलिए एक वीडियो स्पॉट बनाते हैं जिसमें दिखाया जाए कि वक्त कितना भी गुज़र जाए प्यार के याद की क्लीन