हालांकि मुझे रेखागणित में कभी दिलचस्पी नहीं रही लेकिन फिर भी बस्ते में एक कम्पास बॉक्स का रहना लाज़मी था। यह अनुशासन के लिए नहीं था क्योंकि मुझे कभी उसकी फिकर ही नहीं रही अलबत्ता कम्पास बॉक्स के अंदर एक तह मोटे गत्ते का बिछाकर तब के गुप्त कोड, तब के मासूम लव लेटर जिसमें बहुत रोने-रूलाने और कसमों वादों के बाद एक चुम्मी पर आकर बात रूकती थी। और तुर्रा ये कि तब चुंबन के आगे कुछ नहीं जानते थे। सोच नहीं चलती थी। और अब..... चुंबन से आगे ही सोचते हैं। उससे कम सोच नहीं पाते। तब कम्पास बस्ते का सबसे कीमती हिस्सा होता था क्योंकि कई बार इसमें नेपाली, भूटानी, बांग्लादेशी टका और सिक्के होते थे जिनका कोई इस्तेमाल नहीं था लेकिन जाने क्या था उस उम्र में कि इसे देखने भर से दिल को तसल्ली मिलती थी। उन करेंसी पर वो अनचीन्हे अक्षर, अपने देश की मुद्रा से अलग तरह के रंग, वे डाक-टिकटें.... उफ्फ वो उम्र जब कोई मुहावरे में कहता था-दिल्ली बहुत दूर है। तो पलटकर पूछ बैठते थे- कितने प्रकाशवर्ष दूर! *** मेटरलिस्टिक मैं कभी नहीं रहा। शायद यही वजह है कि शहर में ये चीज़ें मुझे जरूरत के बाद बोझा लगने
I do not expect any level of decency from a brat like you..