अपने दामन में जाने कितने दुख दबा रखे हैं आज आसमान ने कि मटमैला दिख रहा है। भादो महीने के गंगा नदी के मटमैले पानी की तरह जिसके सैलाब में ढेर सारे गति रोकने वाले पेड़ अपने जड़ समेट बह जाते हैं। लेकिन बादलों में बहाव नहीं है। इसलिए आसमान ठहरी हुई है। अपनी जगह हल्की लाल बुझते बालू की तरह। भारी। और शामों के मुकाबले सर पर ज्यादा झुकी हुई। औसत गीलेपन से ज्यादा भीगे स्पंज की तरह। एक हज़ार चोट सहे हैं और सौ बात छुपाए तो एक और ही सही। जो मन भारी है तो इस बात कि क्यों आए दिन बताना पड़ता है। क्यों हर बार अपनी ईमानदारी साबित करनी पड़ती है। रिश्ता सिमटता है तो उसका नाम प्रेम पड़ जाता है। यह मनी प्लांट है, फैलती लत्तरों जैसा। एक पत्ते से पेड़ सकता है और पेड़ से वापस एक पत्ते के रूप में अलग हो सकता है। इंडिया हैबिटैट सेंटर की वह शाम हसीन थी। सर्दी अभी आई न थी और गर्मी जा रही थी। शाम दो मौसिमों के मिलने और बिछड़ने का जंक्शन था। मैं गर्मी के रूप में अपने दिल में उमस भरे उससे मिलने आया था। और वो जैसलमेर के खुले आसमान तले औंधी लेटी रेत के ठंढे धोरों की तरह। मेरी बड़ी से बड़ी चिंता उसके हंस
I do not expect any level of decency from a brat like you..