डर लगता है, हाँ डर लगता है बहुत सारा डर लगता है. इतने सारे आरोपों के बाद भी खुल के लिखने में, कई बातें कहने में, कई दृश्य खींचने में, कई वाकये पेश करने में, कई परतें उधेड़ने में. डर है यह कहीं किसी को लील ना जाये, खुदकशी पर मजबूर ना कर दे, निराशा, अवसाद, दुःख, दर्द के उस घेरे में ना ले जाये जिससे बचने के लिए लोग अक्सर लिखते हैं. लेखकों पर समाज की बेहतरी की जिम्मेदारी होती है, लोग किसी के जीवन में पोजिटीविटी के लिए लिखते हैं या लिखना चाहिए. कहाँ से यह बात घर कर गई थी और क्यों कर गई थी ये आज तक याद नहीं और इसका वजह नहीं जान सका... यह दिल में ऐसे ही चलता रहता है जैसे पाप और पुण्य की लड़ाई चित्रलेखा में खींची गई है. पर कई उपन्यास पढते हुए और हर्फों के आईने में उगे अपने चेहरे को पढते हुए लगा, नहीं, यही सही और मुकम्मल (आप अपने लिए बेहतर, पढ़ें) रास्ता है जो अपने तड़प को कम करता है कि जब हम जो चाहें, सोचें और करें वो लिख सकें. भले ही वो गलत हो, अनैतिकताओं को अनजाने में या परिस्थितिवश सही करार देता हो या फिर उसका समर्थन करता हो, वो आदमीरुपी महत्वाकांक्षा में डूबी हो या फिर कोई कठोर निर्णय
I do not expect any level of decency from a brat like you..