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Showing posts from July, 2010

अफ़सुर्दा कसक

डर लगता है, हाँ डर लगता है बहुत सारा डर लगता है. इतने सारे आरोपों के बाद भी खुल के लिखने में, कई बातें कहने में, कई दृश्य खींचने में, कई वाकये पेश करने में, कई परतें उधेड़ने में. डर है यह कहीं किसी को लील ना जाये, खुदकशी पर मजबूर ना कर दे, निराशा, अवसाद, दुःख, दर्द के उस घेरे में ना ले जाये जिससे बचने के लिए लोग अक्सर लिखते हैं. लेखकों पर समाज की बेहतरी की जिम्मेदारी होती है, लोग किसी के जीवन में पोजिटीविटी के लिए लिखते हैं या लिखना चाहिए. कहाँ से यह बात घर कर गई थी और क्यों कर गई थी ये आज तक याद नहीं और इसका वजह  नहीं जान सका... यह दिल में ऐसे ही चलता रहता है जैसे पाप और पुण्य की लड़ाई चित्रलेखा में खींची गई है. पर कई उपन्यास पढते हुए और हर्फों के आईने में उगे अपने चेहरे को पढते हुए लगा, नहीं, यही सही और मुकम्मल (आप अपने लिए बेहतर, पढ़ें) रास्ता है जो अपने तड़प को कम करता है कि जब हम जो चाहें, सोचें और करें वो लिख सकें. भले ही वो गलत हो, अनैतिकताओं को अनजाने में या परिस्थितिवश सही करार देता हो या फिर उसका समर्थन करता हो, वो आदमीरुपी महत्वाकांक्षा में डूबी हो या फिर कोई कठोर निर्णय

पहला प्यार- 2

                                                       साहिबान, आज पेश है पहला प्यार की दूसरी किस्त                                                                पहला प्यार   { भाग- -2}                                                     (सब-टाइटल : निम्नमध्यम मोहल्ले का प्यार )   “ होता है, चलता है, दुनिया है ” वाला फलसफा कासिम नगर के इस बस्ती में भी दोहराई जा रही थी... कासिम नगर, बिहार के M+Y समीकरण पर आधारित था. यानी मुस्लिम + यादव समीकरण जिसके आधार पर लालू ने 20 बरस कुर्सी गर्म रखी और निवासियों की हालत उस बंदरिया की तरह कर दी जो अपने मरे हुए बच्चे को कलेजे से लगाकर घूमती रहती है, जिसे 5 दिन बाद भी यह विश्वास रहता है की उसका बच्चा जिंदा है (जुगाड़ में घूमने वाले यह कतई ना समझें की हम नीतीश सरकार से आह्लादित हैं). इस समीकरण का एक फायदा यह भी था कि राजद के प्रदेश युवा सदस्य भी बोलेरो, क्वालिस और स्कोर्पियो से उतर सीना ठोंक कर कहते कि ‘ रिकॉर्ड उठा कर देख लीजिए, है कोई माई का लाल जो बिहार के इतिहास में एक भी एक भी दंगा बता दे ’ .. और हम इस झुनझुने को लेकर संतुष्ट हो जाते. इसलिए

बारिश

          रात की घाटी में पिछले पहर से ही मुसलसल बारिश हो रही है. आज सूरज नहीं निकला लेकिन शायद ही किसी को शिकायत हो.... हाँ मैं फेरी वालों से भी बात कर आया हूँ. कोई आज काम नहीं करना चाहता है. मैं अपने दोस्त से पूछता हूँ “ तेरा, आज का क्या प्रोग्राम है? ” चिकन और चावल का, और तेरा ? कॉफी पीते हुए कोई कहानी पढ़ने का. पड़ा रह साले.          किन्तु मेरा मन पढ़ने में भी नहीं लगता... बरामदे में बारिश पूरे मूड में बरस रही है. मैं बाहर निकल जाता हूँ. सड़कों पर भी बुलबुले छुट रहे हैं... सब सपने जैसा लग रहा है. कहीं झपकी गिर रही है तो कहीं मदहोश नींद.. सबको चुन-चुन कर उठा लेने का दिल करता है.           पेड़ों के तने पके हुए से लग रहे हैं... झुलसी पत्तियां हरे होकर खिल गए हैं. वे आँखें फाड़-फाड़ कर देखती हुई प्रतीत होती है. पत्तियों ने अपने शरीर फुल लेंथ की लम्बाई में तान दिए हैं मानो किसी तरुणी से बारिश रूपी आशिक प्यार कर रहा हो और उस भीगी सी जवान युवती ने मस्ती में अपने टांगें खोल दी हो.           ढका हुआ दिन एक खुमार बन कर छाया है. मौसम नशा दे रही है... ऐसे दिनों में मंटो की लिखी घाटन क

... और कतरनें

अंदर/कमरा/शाम साढ़े सात बजे. बोरीवोली के इस खोली में पढाई करना उतना ही मुश्किल है जितना के दादर के एक कमरे में धोती को दीवार बनाकर दो परिवारों का रहना या फिर अँधेरी के एक सूखे नाले में किराये देकर चार-चार घंटे की नींद लेना...    तिस पर से किरासन तेल से जलता , गंदला सा लालटेन , मध्धम पीली सी रौशनी और ताख पर रखी बेअदबी और बेतरतीबी से रखी किताबें . किताबें... हाँ साहिबान... किताबें. सस्ती-महंगी किताबें , चोरी की किताबें , उठाई गई किताबें , छिनी गई किताबें , मांगी गई किताबें , रख ली किताबें , छुपा ली गई किताबें , चाटी गई किताबें , ओझल हो गई किताबें , नूर बरसाती किताबें , रुलाती-गुदगुदाती किताबें , स्वस्थ किताबें , उबकाई देती किताबें , काम की किताबें , निठल्ली किताबें , बेगैरत किताबें , उठती किताबें , गिरती किताबें फिर उनपर गिरती किताबें , कसाई किताबें ,    गालियाँ सुनवाती किताबें , कोसते दोस्तों की किताबें , मुहब्बत की किताबें , आसमानी किताबें , अपनी किताबें , परायी किताबें , इठलाती किताबें , हालत पर रोती , मुस्काती किताबें , मगरूर किताबें , पन्ने फड़फड़ाती किताबें , दीमक लगी किताबें ,