Skip to main content

Posts

Showing posts from September, 2011

दिल एक टिन का जंग खाया कनस्तर था जिसको लोहार हर कुछ दिन पर ठोक-पीट कर मार्केट में फजीहत से चलने लायक बना देता

हम दोनों तैरना नहीं जानते हम दोनों एक दूजे को बचाना चाहते हैं तुम्हें यह झूठा दंभ कि उबार लोगी मुझको मुझे यह गुमां कि प्यार करता रहूंगा तुमको मुझसे रिश्ता जोड़ने में होने वाले संभावित खतरों का ज्ञान था तुम्हें सबसे ज्यादा आत्मविश्वास से तुमने सबसे ज्यादा संशय चुना मैं केवल दो ही चीज़ जानता था  या तो प्यार है या कि नहीं है प्यार...। किसी पनडुब्बी की तरह एक साथ लगाए डुबकी के बाद जहां कहीं भी हम निकले इक सैलाब ही घेरे था। कृपया आप कैमरे की आंख ज़ूम कर के देखें। क्या आपको हिलोरें मारती पानी नहीं दिखतीं, एकदम पास? आपकी आंख (एकवचन) के ठीक सामने? इत्ता सामने कि वो ठीक से नज़र तक नहीं आता। अब लांग शाॅट में देखते हैं तो भी वही पानी। और एक्सट्रा लांग शाॅट में वहीं पानी। कहीं, कोई द्वीप नहीं। अनवरत बस अपनी थकी बांहों की पतवार चलना। धाराएं तेज़ लेकिन विस्तार इस तरह कि जैसे किसी हौद में उपलाया हुआ पानी जिसका कोई आदि अंत नहीं। अभी ठीक, यहीं इसी जगह यहां आकर तुम भूल जाओगे कि इस विशाल, अथाह, अपार जलराशि का उद्गम स्थान कहां है, इसका आदि और अंत क्या है? यह जल का निर्जन प्रदेश है। यहां हरे शैवाल तक नह

ऐ मलिका-ए-नील !

ऐ मलिका-ए-नील ! ए मलिकाए नील। मैं तेरा फकीर तुझे अपने ही दिल में रखकर घूम रहा हूं दर ब दर। ऐ मलिका-ए-नील। तू इक दरया है, एक पाक दामन, दाग जिसमें सब आके धोते हैं। किनारों के पत्थर पर बैठ कर अपने ऐडि़यों के छाले छुड़ाते हैं। ऐ मलिका-ए- नील, तेरे किनारे ही उगा करती है इश्क की रूहानी फस्लें। तेरी ही घनी जुल्फों के ज़द में बहा करती है एक दूधिया नीला लंबी धार। तेरे ही भंवर में बैठ कर फूटता है कोई चराग।  यों तो तेरे भी देह में भागती हैं कई नीली रगें। ऐ मलिका-नील! जब भी देखा करता हूं तो रंगों से लबरेज़ जादू देख हैरां हुआ करता हूं। दो पुरकशिश कोहसारों के बीच फंसी एक झीनी चादर के दरमियां लरज़ता इक नीम उरियां हुस्न। दूध सा उजला, नील सा नीला और सूर्ख लाल। रोज़ दो चार होना होता है पेशानी पर दो होठों के दाग रखे जाने की हसरत से। ऐ मलिका-ए-नील ! रोज़ ही तेरी उपजाऊ ज़मीं पर हुस्न का उरूज़ लिए खिला रहता है जवान सरसों के फूल। ऐ मलिका-ए- नील रोज़ ही हज़ार राह तमन्नाएं निसार हुआ करती हैं। कहां भूल आया हूं वो गर्क और गुम होने के दिन.... उठा है वो गुबार कि अपने वजूद के पांव उखड़ जाएं, चढ़ा है वो बुखार कि