रूम पर की दीवार घड़ी रूक गई है। नौ बजकर पचास मिनट और चालीस सेकेण्ड हुए हैं। और यहीं पर घड़ी रूक गई है। सबसे बड़ी सूई चालीस और इकतालीसवें सेकेण्ड के दरम्यार थिरक रही है। एक हांफती हुई स्पंदन। एक बची हुई सांस। एक खत्म होने की ओर दस्तक। एक पूंछ कटी छिपकली की पूंछ जो बस थोड़ी देर में थम जाएगी। जिंदगी भी यहीं आकर रूक गई है। पैर बढ़ते तो हैं तो लेकिन कोई कदम नहीं ले पाते। इस घड़ी को देखता हूं तो अपने जीवन से बहुत मैच करती है। अव्वल तो एक ही हिस्से में घंटे, मिनट और सेकेण्ड की सूई है। और दूसरी तरफ सपाट मरूस्थल। एक हिस्से में कुछ हैपनिंग। दूसरी ओर निचाट अकेलापन। दरअसल होता क्या है कि हमारे जीवन की घड़ी में भी सभी सूईयां किसी न किसी वक्त एक दूसरे से मिल जाती हैं। बस तभी हमें जिंदा होने का एहसास होता है। उन वक्तों में अपनापन होता है। और बाकी वक्तों में अधूरापन। और बाकी वक्तों में सूनापन। और बाकी वक्तों में खुद से अजनबीपन। और बाकी बचे वक्तों में हम मरते जाते हैं। शनैः शनैः....
I do not expect any level of decency from a brat like you..