स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.
स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’, सत्यजीत राय की ‘पथेर पांचाली’ और राजकपूर की ‘आवारा’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध करती रहीं. बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.
एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ्युदय से भारतीय अस्मिता और सृजनशीलता को एक नयी शक्ति मिली और उसकी अभिव्यक्ति के नए आयाम खुले. फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कल्पनाशील फिल्मकारों की एक नयी पक्ति सामने आई. इस दौड की ज़्यादातर फिल्मों की विषय-वस्तु हालाँकि पलायनवादी थी मगर उनमें मनोरंजन का तत्व इतना अधिक था कि लोगों ने उन्हें बेहद पसंद किया. रोमांटिक और पारिवारिक कथावस्तु वाली फ़िल्में इस दौड में में खूब बनीं. खवाजा अहमद अब्बास ने ‘परदेसी’, ‘शहर और सपना’, ‘दो बूंद पानी’ तथा ‘सात हिन्दुस्तानी’ जैसी फिल्में बनाकर अपनी एक अलग जगह बनाई. चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ पहले ही चर्चित हो चुकी थी. उनके भाई विजय आनंद और देव आनंद ने अपनी फिल्म निर्माण संस्था खोली तथा ‘गाइड’ समेत कई उम्दा फिल्में बनाई. राजकपूर ने सामाजिक सरोकारों से युक्त ‘आग’, ‘आवारा’, ‘श्री चार सौ बीस’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है’ जैसी फिल्मों के जरिये रंगीन सपनों का एक अद्भुत संसार रचा. सिनेमा इंडस्ट्री ने राजकपूर को ग्रेट शो मैन के खिताब से नवाजा. पचास के दशक में भी बी. आर. चोपड़ा, हृषिकेश मुखर्जी, मोहन सहगल, गुरुदत्त और सत्येन बोस जैसे फिल्मकारों ने कुछ उल्लेखनीय फिल्में बनायीं.
भारतीय सिनेमा के एक दौड में कपितय ऐसे फिल्मकार भी उभरे, जो भव्य पैमाने पर फिल्में बनाने के अभ्यस्त थे. के. आसिफ और कमाल अमरोही की गिनती इसी कोटि के फिल्मकारों में होती है. के. आसिफ के ‘मुग़ल-ए-आज़म’ भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के समान याद की जाती है. कमाल अमरोही की ‘पाकीज़ा’ सेल्यूलाइड पर लिखी एक खूबसूरत कविता बन गई.
आभार : दृश्य-श्रव्य जनसंचार प्रविधि
दुनियादारी ने राज कपूर को बदल दिया ......पर उनके भाई का जिक्र तुमने नहीं किया .जिन्होंने बाद के सालो में .हिन्दुतानी सिनेमा को बेहतरीन फिल्मे दी......कलयुग ......जनून जैसी फिल्मे ...जिनके निर्देशक श्याम बेनेगल थे ओर उत्सव जिसके निर्देशक गिरीश कर्नाड ....
ReplyDeleteशशि कपूर ने अलबत्ता एक उम्र तक व्यवासियिक फिल्मो में ही काम किया था