एक अरसा हुआ
इधर कुछ
लिखा नहीं।
ऐसी दूरी
कभी नहीं
आई थी।
अपने करने
से ज्यादा
हम अपने
होने का
शोर करते
रहे। दूरी
जाने कितने
चीजों में
आ गई
है। बारिश
की झिर
झिर सुनाई
नहीं देती।
कबूतर का
नबावों की
तरह मंुडेर
पर विश्रााम
की अवस्था
में टहलने
पर निगाह
नहीं जमती।
ढ़ेर सारा
अब पानी
बरसता है
और व्यर्थ
नालों में
बह जाता
है। सिगरेट
की पैकेट
गलत समय
पर खत्म
हो जाने
लगी है।
जिंदगी का
धीमापन चला
गया। जिंदगी
अभी इस
वक्त रात
के दो
बजकर नौ
मिनट पर
प्रेस में
किसी प्रूफरीडर
द्वारा करेक्शन
किया हुआ
आखिरी पन्ना
लग रहा
है। कुंए
की जगत
पर बैठा
समझ नहीं
आता कई
बार कि
खुद को
खोजने के
लिए पानी
में छलांग
लगा दूं
या जो
इक्के दुक्के
लोग कूदने
से बचाने
के लिए
आखिरी बार
टोक रहे
हैं उनका
कहा मान
लूं।
कितने तो काम
थे। शीशम
पर मिट्टी
चढ़वानी थी।
भंसा घर
का छत
छड़वाना था।
रीता माई
को बांस
के पैसे
देने थे।
केले के
खान्ही बेचने
थे। आंगन
का जंगल
साफ करवाना
है। चापाकल
की पाइप
बदलनी थी
जिसका वासर
अब इतना
घिस गया
है कि
चार मिनट
लगते न
लगते पानी
छोड़ देता
है। ना
न.. जलस्तर
अब भी
पच्चीस से
तीस फीट
ही है
बल्कि बारिश
के दिनों
में तो
बस कुछ
कुदाल चलाने
की बात
है। दिल्ली
नहीं है
कि ढ़ाई
सौ फीट
पर भी
पानी नहीं
है और
गंदा है
और महंगा
है और
फिर भी
भरोसा नहीं
है।
और इतने पर
भी जिस
दिन छुट्टी
कैंसिल हुई
तो कमरे
पर वापस
लौटते लगा
जैसे जिंदगी
के रील
से संगीत
गायब हो।
आश्रम के
फ्लाई ओवर
पर पैदल
करते हुए
लगा जैसे
बहुमंजिले मकानों के श्मशान में
चल रहा
हूं। हर
बालकनी में
सूख रहे
लिबास हैं,
पता नहीं
आदमी कहां
है। पहने
हुए लिबास
में तो
नहीं हो
सकता आदमी।
सूखते हुए
हर ब्रा
और बनियान
में नहीं
बसता दिल।
अगर पहन
ही लिया
तो आदमी
क्यों और
कैसा..... नीचे निज़ामुद्दीन का रेलवे
टैªक....
अंधेरे सुरंग
में छिटकी
रोशनी से
चमकती पटरी....
ज्यामिति के
प्रमेय सी
जहां मान
लीजिए और
दो समानांतर
रेखाओं के
मध्य जुगाड़
का तख्ता
उनको विभाजित
कर प्रमेय
सिद्ध किया
जाए।
आधी रात गौर
से ट्रेन
को सुनो
तो किसी
गहरे में
अजगर पैठने
सा लगता
है। या
मसानों से
उतरती पिशाब
सा.... जिसका
आना जैसे
धीरे धीरे
बढ़ता आतंक
और आ
ही जाना
निर्मल और
मृदुल राहत.....
आगत मृत्यु
सा
अंतहीन.... लेकिन जब
मृत्यु तो
सुरक्षित जच्चगी
के बाद
की विजित
मुस्कान।
*****
प्रिय M,
सुबह तुम्हारा भेजा
गुलाब के
फूलों का
डलिया मिला।
और जब
वो मेरे
हाथ में
आया तो
रफी का
गीत याद
आया। मेरे
हाथों में
तेरा चेहरा
है, जैसे
कोई गुलाब
होता है।
यकीन मानो
साकार हो
गई तुम
मेरी हथेली
में ही।
कहां तुम्हारी
मां ने
भी तुम्हें
ऐसा पैदा
किया होगा।
कुछ शख्सियत
को रिश्ते
पैदा करते
है, हम
पैदा करते
है, वैसा
हमारे वालिद
हमें पैदा
नहीं करते।
तो मेरे
लिए जो
तुम हो
वो मैंने
तुमसे ही
पैदा किया
है। जब
गुलाब यानि
तुम्हारा चेहरा
हाथ में
था तो
वही थी
तुम। भूरी,
सफेद आंखें,
पंखुड़ी ऐसे
जैसे तुम्हारे
पतले नर्म
हल्के गुलाबी
होंठ। गोरी
सफेद बांहें
जिस पर
महीन भूरे
रोएं जिसको
लेकर मैं
हमेशा हैरान
कि कैसे
वो सहलाता
होगा इन्हें
इतने सालों
से, कैसे
चूमता होगा
इन्हें, क्या
उसे इसे
बरतने आता
होगा?
कि जैसे गहन एकांत में मेरी छुअन से तुम्हारे नाभि से एक अमृत कलश फूटा हो और शरीर का हरेक रंध्र से एक खुशबू ब्यापी हो। गुलाब का रंग यों लाल कि जैसे काला। ठंड के दिनों में बर्फीले पानी से नहायी और कांपते तुम्हारे होंठ। थरथराते परछाई में कोई सदियों की पहचान खोजते हम और थाह पाते हमारे स्पर्श। यकीन - हां तुम्हीं।
लेकिन मैं क्या
बताऊं कि
मेरे हम्माम
का पानी
हमेशा से
गर्म था
और तुमने
इसे अपने
लाल लवे
से छूकर
इसे खौला
दिया है।
अब दोनों
के पीठ
की चमड़ी
जलेगी।
स्वार्थी हो गया हूं मैं। तुमसे संसंर्ग की चाहत बस अब इसलिए है ताकि कोई तुम जैसा ही जन सकूं। वरना तो कोई दूसरा होने से रहा।
बढ़िया लेखन | आभार
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
कल ’मुक्ति’ ने आपका आत्मीय स्मरण किया! सबको आपका यह ’गैप’ परेशान कर रहा था।
ReplyDeleteआज यह प्रविष्टि आश्वस्त करती है।
मौन पढ़ाक हूँ, टिप्पणियों पर न जाईये! प्रविष्टि हर बार की तरह ’सागर’-सी!
I second Himanshu. :-)
Deleteपोस्ट की शुरुआत ज़मीन पर होती है और अंत आसमान पर...
ReplyDeleteतुम कहाँ थे मेरे फूल राजकुमार? याद किया करो तुम अपनी प्रेमिकाओं को, मुझे मत याद करना, मेरे मेल का जवाब भी मत देना...दुष्ट लड़के.
ReplyDeleteतुमसे संसंर्ग की चाहत बस अब इसलिए है ताकि कोई तुम जैसा ही जन सकूं... seems divine.. :)
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