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शापित फसल



उसके बारे में कोई एक सूरत नहीं उभरती। जुदा जुदा से कुछ ख्याल ज़हन में आते हैं। मेरी छोटी सी उम्र में उसी का मौसम रहा करता है।

किसी रात का ख्वाब थी वो। क्षितिज से उतरती सांझ में दरिया पर सुरमई सी बहती हुई। पानी पर किरोसिन की तरह बहने वाली, रंगीन नक्शे बनाती हुए, फिसल जाने वाली..... जिस्म के रोओं पर रेशम सी सरक जाने वाली। झींगुरों के आवाज़ के बीच प्रतीक्षा की रात गहराती है। कई  प्रश्न अनुत्तरित छोड़ जाती है।
कई बार लगता है यह क्या है जो मुंह चिढ़ा रहा है। यह क्या है जो मिटता नहीं। यह क्या है जिसकी खरोंचे लगती रहती है। जो कभी खत्म नहीं होता और अपने होने का आततायी एहसास दिलाता रहता है। यह अधूरा होने का एहसास। एक बेकली, एक अंतहीन सूनापन जो अपने खालीपन से भरा हुआ है।

एक व्यग्र सुबह की तरह...किसी स्कूली बच्चे के छुट्टी के इंतज़ार की तरह... जैसे किसी भी पल उससे टकराना होगा।

किसी दोपहर की फुर्सत सी जैसे - टक-टक, टक-टक की आवाज़ के साथ कठफोड़वा गम्हार की डाली पर अपनी चोंच मारता है। छत पर भिगोकर पसारा गया गेहूं सूख जाता है। पूरे बस्ती में मुर्दा वीरानी छाई रहती है। समय की नाड़ी मंद पड़ जाती है। लगता है जैसे एक बड़े से बंद हौद में छोड़ दिया गया है।

आधी रात की घबड़ाहट है वो जब धड़कन अपने ही सीने से निकलकर जिन्न की तरह धम-धम करके ज़मीन पर चलती हुई लगती है। कहां जानता हूं कि अभी रात के तीसरे पहर मैं तमाम चाहतों से मुक्त हो जाऊंगा। मेरे अंदर एक ईश्वर जगेगा। टेबल लैम्प की एकाग्र रोशनी में कलाई घड़ी की थिरकती और चमकती सूई की तरह.... जैसे सारी आपाधापी थम जाएगी वहीं आकर।

समय नहीं गुज़रता और आखिरकार गुज़र ही जाता है। एक एक दिन उसके इंतज़ार में जीते जाना। क्या हम इंतज़ार में बूढ़े नहीं होते? मेरा इंतज़ार बूढ़ा हो रहा है अब। 

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