आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है”. युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘बिराज बहू’, ‘देवदास’, ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं. ‘दो बीघा ज़मीन’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात है.”
समानांतर सिनेमा की इस धारा को बाद में सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे फिल्मकारों में आगे बढ़ाया. सत्यजीत राय ने 1955 में अपनी पहली फिल्म बनाई ‘पlथेर पांचाली’. विभूतिभूषण बंधोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म ने सत्यजीत राय को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्थापित कर दिया. ‘पथेर पांचाली का प्रथम प्रदर्शन हमारे देश में ना होकर न्यूयोर्क में किया गया था. बाद में इसे फ्रांस के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाया गया. फ्रांस के समीक्षक आंद्रे बाजां ने इस फिल्म पर सटीक टिपण्णी लिखी, जिसे पढकर फिल्म समारोह की जूरी ने इसे फिर से देखा और बाद में इस फिल्म को सर्वोत्तम मानवीय दस्तावेज का दर्ज़ा देकर पुरुस्कृत किया गया. बाद के वर्षों में सत्यजीत राय ने अपराजिता (1956), अपूर संसार (1959), तीन कन्या (1969), शतरंज के खिलाडी (1977) और सदगति (1980) जैसी उत्कृष्ट फिल्में बनाई. 1984 में सत्यजीत राय को सिनेमा के सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरूस्कार दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया. सिनेमा के क्षेत्र में उनके असाधारण योगदान के लिए 1991 में उन्हें विशेष ऑस्कर अवार्ड भी दिया गया.
मृणाल सेन ने ‘भुवन शोम’ से हिंदी सिनेमा में एक सर्वथा नयी रचना प्रक्रिया का शुभारंभ किया. ‘भवन शोम’ ने समानांतर सिनेमा की धारा को एक नयी गति प्रदान की. 1956 में अपनी पहली फिल्म ‘रात-भोर’ बनाने वाले मृणाल सेन की अपनी अलग पहचान बनी ‘बैशेय श्रावन’ (1960) से. इसके बाद बनी ‘आकाश कुसुम’ को भी उनकी उल्लेखनीय कृति माना जाता है. 1965 में मृणाल सेन ‘भुवन शोम’ लेकर आये, जिसने विचारों के सिनेमा को एक नया अर्थ प्रदान किया ‘भुवन शोम’ ने दर्शकों को न सिर्फ झकझोरा, बल्कि उन्हें उत्तेजित भी किया और यह सोचने पर मजबूर किया की अथाह दलदल से बाहर निकलने का रास्ता आखिर क्या है?
मृणाल सेन के बाद मणि कॉल, बासु चटर्जी, अडूर गोपालकृष्णन, कुमार साहनी, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, अवतार कौल, गिरीश कर्नाड, प्रकाश झा और सई परांजपे जैसे संवेदनशील फिल्मकारों ने लीक से हटकर यथार्थवादी सिनेमा का निर्माण किया. इन फिल्मकारों की फिल्मों ने विचारों के संसार को एक नयी दिशा प्रदान की. जीवन से सीधे जुड़े विषयों पर विचारोत्तेजक फ़िल्में बनाकर इन फिल्मकारों ने सिनेमा के सृजन शिल्प का अनूठा प्रयोग किया. इनमें से कुछ फिल्मकार आज भी सार्थक सिनेमा की मशाल थामे आगे बढ़ रहे हैं.
सार्थक सिनेमा के प्रमुख हस्ताक्षर श्याम बेनेगल ने अपने फिल्म करियर की शुरुआत विज्ञापन फिल्मों से की. 1973 में उन्होंने पहली फीचर फिल्म बनाई ‘अंकुर’, गांवों में शहरी घुसपैठ के बुरे नतीजों पर आधारित यह फिल्म बेहद कामयाब रही. ‘अंकुर’ ने कुल 42 पुरूस्कार जीते, जिनमें तीन राष्ट्रीय पुरस्कार ही शामिल है. इसके बाद श्याम बेनेगल ने ‘निशांत (1975) और मंथन (1976)’ का निर्माण किया. ‘मंथन’ को राष्ट्रीय पुरूस्कार से सम्मानित किया गया. श्याम बेनेगल की ‘मंडी’, ‘सुस्मन’, ‘कलियुग’ और ‘जुनून’ जैसी फ़िल्में भी बेहद चर्चित रही.
1974 में श्याम बेनेगल के साथ जुड़े गोविन्द निहलानी ने भी बेनेगल के रास्ते पर आगे चलते हुए कई उम्दा फिल्में बनाई. निहलानी की पहली फिल्म ‘आक्रोश’ (1981) आदिवासियों के जीवन पर आधारित थी. इस फिल्म को बेहद पसंद किया गया. बाद में निहलानी ने पुलिस की विवशता पर ‘अर्ध्यसत्य’, वायुसेना पर ‘विजेता’, मालिक-मजदूर संघर्ष पर ‘आघात’, नवधनाढ्य वर्ग के खोखलेपन पर ‘पार्टी’ और आतंकवाद पर ‘द्रोहकाल’ जैसी विचारोत्तेजक फ़िल्में बनाई.
Badi achhee jaankaaree dee hai aapne...yah sabhi filmen aur filmkaar mujhe bahut pasand hain..ajramar kalakrutiyan hain yah sab..
ReplyDeleteवी शांताराम कंपनी का नाम भूल गए बंधू..? सुलभा देशपांडे की फिल्म "राजा रानी को चाहिए पसीना" का उनका अद्भुत प्रयोग स्मरण नहीं ? और ऋषि दा की फिल्मो को किस कटेगरी में रखोगे.. उनकी सत्यकाम, अनुपमा और मेम दीदी की बात कौन करेगा.. :) फिर गुलज़ार साहब की 'मेरे अपने', नमकीन, परिचय और इजाजत का क्या?
ReplyDeleteअच्छी लिस्ट थमा दी भाई.. ये पोस्ट भी बढ़िया रही..
शानदार पोस्ट ! हम-से अज्ञानियों के लिए तो कामयाब स्रोत ! आभार ।
ReplyDeleteहिंदी सिनेमां पे एक और बेहतरीन पोस्ट....शुक्रिया सर........
ReplyDeleteबढ़िया चर्चा ढ़ेर सारी जानकारियों के साथ..और जरूरी तथ्यों के साथ..वैसे मुझे लगता है कि समानांतर सिनेमा मे रीजनल सिनेमाई विकास की बात भी जरूरी है..समांतर सिनेमा को समग्रता मे समझने के लिये क्षेत्रीय सिनेमाओं के विकास की अलग-अलग पड़ताल करनी होगी..जिसमे हिंदी के अलावा बंगाली और दक्षिण के सिनेमा की धाराएं अहम हैं..
ReplyDeleteकुश साहब ने सही नाम याद दिलाए हैं..व्ही शांताराम साहब के बारे मे मेरी गुज़ारिश याद है ना...ऋषि दा को भी पूरा अलग स्पेस देने की जरूरत है..और गुरुदत्त साहब की बात कब चलेगी..
कुल मिला कर बढिया पोस्ट!
आज दिनांक 29 अप्रैल 2010 को दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में सार्थक सिनेमा की राह शीर्षक से यह पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाई।
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ReplyDeleteभई जनसत्ता मे पोस्ट प्रकाशित होने की बधाई !!
ReplyDeleteवाह! बधाई!
ReplyDeleteAapki post ke bahane samanantar sinema ke bahane bahut kuchh jaane ko mila. Aabhar.
ReplyDeleteShayad ye bhi aapko pasand aayen- Prevention of radioactive pollution , Sound pollution images
apke davra bahut hi achhi jaankari di gyi dhanywaad
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