बुखार के यही दिन थे।
उस पल दोनों कमज़ोर हो गए थे। भूल गए थे अपने होने के पीछे का वजूद। अपनी निम्नवर्गीय परिवार पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर रवि का भाईयों में सबसे बड़ा होना और उधर हुस्ना पर मर्यादा की मार। तुर्रा ये दोनों एक परिपक्व प्रेम के बारे में साहित्य में पढ़ रहे थे। होनहार थे तो जाहिर है पढ़कर सिहरते भी और रोते भी। लेकिन उस वक्त शायद एक रंग में रंग गए थे। एक के ख्याल दूसरे को अपने लगने लगे थे। यहां सोचने समझने की ऐसी परत तैयार हो गयी थी कि दोनों अलग-अलग हैं ही नहीं। बुखार से तपते रवि ने पागलों जैसे ढ़ेर सारी बातें करने के बाद हुस्ना के गले पर अपनी तपती छाप क्या छोड़ी। हुस्ना पिघलती गई। दोनों को खुद से ही प्यार होने लगा था और वो अपनी ही परछाई में छुप जाना चाहते थे। छिप जाना चाहते थे मानों ठण्ड में बारिश हुई हो और गली का कुत्ता थोड़ा सा भींग कर किसी छज्जे के बित्ते भर खोदी गई जगह में दुबक रहा हो। हुस्ना और रवि में तब फर्क करना मुश्किल हो चला था। रवि ने अपना थोड़ा सा बुखार हुस्ना को दे दिया था। उधर हुस्ना के मन में बाज़ार का गीत गूंज रहा था - आओ अच्छी तरह से कर लो प्यार, कि निकल जाए कुछ दिल का बुखार.... कमज़ोर कहाँ, दोनों तो उस पल मजबूत हो गए थे... ज़ज्बात से हालात तक
चार साल बाद,
बुखार के यही दिन हैं।
प्रेशर कुकर में चौथी सीटी की आवाज़ सुनकर रवि तकिए से सिर उठाता है। दीवार पर की घड़ी तो चार बता रही है लेकिन उम्र तो उसी सदी में अटका हुआ है मानों हुस्ना अभी-अभी गई हो। बदन पसीने से तर है और बाल बेतरतीबी से बिखरे हैं, पसीने से माथे पर चिपक गए हैं। वह अपनी हथेली आखों के सामने कर उसे देखता है। अभी तो हुस्ना यहीं थी इसी हथेली के पोरों से मैंने महसूस किया है उसको... खिड़की से धूप वापस जा रही है। रोशनदान से गर्द की एक लम्बी परत फर्श को छू रही है जिसमें कई धूलकण हैं। रवि का हर कण के साथ एक रिश्ता लगता है। सबकी अपनी कहानी है... पांचवी सीटी लगते ही वह हिम्मत करके उठने की कोशिश करता है। कमर तो जैसे टूट ही चुकी है और कमजोरी ने सिरिंज लगाकर जिस्म से जैसे सारा खून निकाल लिया है। चौकी से उतरते ही पैर गिलास में लगता है और उसमें पड़ा दूध ज़मीन से बातें करने लगता है। अगला पैर ब्रेड के पैकेट में लगता है। किसी तरह दरवाज़े का सहारा लेते हुए वह किचन तक जाता है। गैस बन्द करते हुए उसका अन्देशा सही होता है। चुल्हे से उतारकर वह कुकर पर दो मग पानी डालता है फिर ढ़क्कन उतारकर देखता है खिचड़ी तो जल चुकी है।
खिचड़ी का ही दिन था, यानि शनिवार । तब भी खिचड़ी जली थी पर उनमें स्वाद था, आज भी जली है पर इसमें हुस्ना नहीं है। खाली पेट रवि दो ग्लास ठण्डा पानी पीता है। उसका हांफना कम होता है। दो मिनट पेट में कचोट सी उठती है। उसे लगता है कि हर चीज होकर रहेगी नियम से बस मेरी जिन्दगी में वो नहीं होगा। सबकुछ से ऊबा हुआ रवि वापस बिस्तर पर चला जाता है। अभी कुछ देर में सांझ भी हो जाएगी।
बुखार के यही दिन हैं।
*(विशेष आभार : पूजा उपाध्याय)
शब्दों और भावनाओं का ये जादू , सच बताहू तो कायल कर गई तुम्हारे लेखन की !! किसी भावना को व्यक्त करने के लिए समानांतर उधाहरण का उपयोग ,गजब है ! भावना ,भाषा और लेखन अति उत्तम,क्या बात है सागर साहब ,लगता है सागर की असीम गहराईयों से चुन के लाये हो ये सबकुछ !!
ReplyDeleteयार हमारा भी दिल बुखार मनाने का कर रहा है..अगर बुखार के दिन सच ऐसे ही होते हैं..एक्दम रोमांटिक, नोस्टाल्जिक, काहिल, फ़ालतू....सच क्या?
ReplyDeletekash ke ye bukhaar kabhi apne paas bhi aata...
ReplyDeleteमियां और कोई बात ना है...बस तेरे को डॉक्टर की जरूरत है...
ReplyDeleteआज अच्छे से मैं ने "अपने बारे में" पढ़ा....और यही काफी था...एक बड़ी समस्या ये कि हम अपनी रचना को जिस भावनात्मक उद्वेग में लिख देते हैं,..वो शब्द वही के वही उसे दोहराने में असफल होते हैं....ये फ्रायड भी कई जगह कहते हैं...आपकी रचना मुझे इस भावनात्मक उद्वेग के कारन प्रभावित कर रही है...और मैं बधाई..की जगह...आपको कह सकता हूँ...कि क्या आप संतुष्ट है.....जो लिखना चाहता था वही लिखा गया.....क्यूंकि मुझे ये भावना अच्छी लगी...और इस भावना पर शाब्दिक पेंच...सबसे अच्छी लगी...
ReplyDeleteNishant...
बुखार के यही दिन हैं। - वैसे बुखार अच्छे अच्छों को पानी पीने पे मजबूर कर देता है. (ये कोई कहावत नहीं है भाई !!)
ReplyDeleteजे बात तो ये तुम हो......ओर हमने इतनी देर लगायी.....रेडियो ऍफ़ एम् वाले शीर्षक पे दावा तो नहीं ठोक देंगे भाई
ReplyDeleteसागर जी आपके राय से मैं भी सहमत हू लेकिन नीतीश के मसले पर मैं कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हू जिस मैरेक्ल इगोनोमीग्रोथ को लेकर आप मेरा ध्यान आकृष्ट कराना चाह रहे हैं शायद आप भूल गये इस मसले पर मैं 28नम्बर को
ReplyDelete(नीतीश के बैचेनी का राज खुलने लगा हैं )शीर्षक के माध्यम से बहुत कुछ लिख चुका हूं आपकी प्रतिक्रिया भी आयी हैं जरा उस आलेख को फिर से पढे ले सच समझ में आ जायेगा।आपके जानकारी के लिए बिहार के इकोनोमीग्रोथ के बारे में मैंने 28 नम्बर को लिखा हैं 3जनवरी को इकोनोमीटाईम्स लिखा और उसके बाद पांच जनवरी को टाईम्स आंफ इंडिया इस पर लिखा और देखते देखते यह खबड़ अखवार से संपादकीय पृष्ठ पर आ गया लेकिन ग्रोथ के एक पंक्ष को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया जिसमें नीतीश के चार वर्षो के कार्यकाल के दौरान कृषि के क्षेत्र में बिहार का ग्रोथ काफी कम हुआ हैं।वही चार जनवरी को पीटीआई ने सीएसओ के चीफ के हवाले से खबड़ चलाया था कि यह आकड़ा बिहार सरकार का हैं और इस आकड़े की सत्यता की जांच मैंने नही किया दुर्भाग्य से पीटीआई के इस रिलीज को किसी अखबार ने नही छापा और नीतीश कुमार का गुणगान शुरु हो गया उस वक्त मैंने अपने चैनल के माध्यम से नीतीश के खेल का भंडाफोड़ कर दिया था तीन दिनों तक इसको लेकर खबड़ दिखाये थे लेकिन कड़ाके की ठंड के कारण ब्लांग पर ये बाते नही लिख पाया था।
wah sir..baat dil mein ghar kar gayi :)
ReplyDeletesagarji, padh kar bahut achha laga...dil chhoo liya...
ReplyDeleteदूसरे सिरे के बाद बुखार के दिन ...बहुत बढ़िया खिचड़ी का जलना ...और नियम से ज़िन्दगी का चलना ...बहुत कुछ याद आता रहेगा इन लिखे लफ़्ज़ों में ...लिखते रहो ..शुक्रिया
ReplyDeleteसोचालय..क्यूकि सोच कही भी आ सकती है..
ReplyDeleteसबसे पहले उसके लिये वाह और हम अभी सोच रहे है.. :)
अब कहानी पढी.. :) कमाल है...मेरी बनायी हुयी पहली खिचडी याद आ गयी :) बहुत बढिया लगा सागर भाई आपको पढकर..