रात की घाटी में पिछले पहर से ही मुसलसल बारिश हो रही है. आज सूरज नहीं निकला लेकिन शायद ही किसी को शिकायत हो.... हाँ मैं फेरी वालों से भी बात कर आया हूँ. कोई आज काम नहीं करना चाहता है. मैं अपने दोस्त से पूछता हूँ “तेरा, आज का क्या प्रोग्राम है?”
चिकन और चावल का, और तेरा ?
कॉफी पीते हुए कोई कहानी पढ़ने का.
पड़ा रह साले.
किन्तु मेरा मन पढ़ने में भी नहीं लगता... बरामदे में बारिश पूरे मूड में बरस रही है. मैं बाहर निकल जाता हूँ. सड़कों पर भी बुलबुले छुट रहे हैं... सब सपने जैसा लग रहा है. कहीं झपकी गिर रही है तो कहीं मदहोश नींद.. सबको चुन-चुन कर उठा लेने का दिल करता है.
पेड़ों के तने पके हुए से लग रहे हैं... झुलसी पत्तियां हरे होकर खिल गए हैं. वे आँखें फाड़-फाड़ कर देखती हुई प्रतीत होती है. पत्तियों ने अपने शरीर फुल लेंथ की लम्बाई में तान दिए हैं मानो किसी तरुणी से बारिश रूपी आशिक प्यार कर रहा हो और उस भीगी सी जवान युवती ने मस्ती में अपने टांगें खोल दी हो.
ढका हुआ दिन एक खुमार बन कर छाया है. मौसम नशा दे रही है... ऐसे दिनों में मंटो की लिखी घाटन की कहानी याद आती है और सिगरेट और कॉफी की तलब-बार-बार लगती है. प्रकृति पर रीझते हुए, एक जोरदार कश खींचकर अपने अंदर रोकना फिर नाक से धुंआ निकालना आराम देता है. आखिर माज़रा क्या है, जुस्तजू क्या है ?
कुछ दूरी पर घुटने भर पानी में बच्चे फुटबाल खेल रहे हैं, सबने सिर्फ जींस पहने हैं. वे पानी से सराबोर हैं... उनको कोई फ़िक्र नहीं... वे कितने आज़ाद हैं और उनके जीवन में कैसी रवानगी है ! आँखों से आगे से बचपन ब्रीफकेस लिए निकलता है. ब्लैक एंड ह्वाइट में यह शेड ज़ेहन में अटक जाता है.
सड़कों पर लगे पानी से बच कर निकलने की कोशिश नहीं करता. चाहता हूँ, कोई गाडीवाला गुजरे तो मुझे और भिगोता हुआ निकल जाए. स्कूल में छुट्टियाँ हो गई हैं. बसों में बैठे बच्चे बड़ी हसरत से मुझे देख कर आंहें भर रहे हैं... कृष्णा निकेतन के लड़कियों के दिल में भी यही ख्याल आये होंगे पर ...
आकाश में सफ़ेद बादल हैं ... बारिश की बूंदें तीन मंजिले मकान के ऊंचाई जितनी दिखती है, उससे ऊपर नहीं नज़र नहीं आती. सारे गमलों में पानी भर गया है... गुलमोहर का फूल हर बूँद को अपने दामन में रोकना तो चाहता है पर सफल नहीं हो रहा है... हर पत्ता इतना ताज़ा है बस तोड़ कर पान के जैसे मुंह में रखे को जी चाहता है.
बीच –बीच में तेज हवाओं से पेड़ों की डालियाँ बेतरह एक दूसरे में उलझ गई हैं. यह दो भिन्न-जातियों का मिलन सा लगता है. कोई गुफ्तगू चल रही है.
प्रकृति और नारी ईश्वर की बनायी गई दो सबसे खूबसूरत और अनमोल चीजें हैं. मुझे सुमित्रानन्दन पन्त की कविताओं की भूख लगने लगती है.
... और ऐसे में जिस बालकनी में आपकी महबूबा, हाँ वो जो सूरज बन वहाँ चमकती थी, जुल्फें खोल रात का पर्दा डालती थी, आपको नाउम्मीदी भरा खत लिखा करती थी फिर भी तोहफे में चंदन की छोटी-छोटी डालियाँ भेजा करती, आपको उसकी महक उनके बदन सी लगती, उसी गली में आप उम्मीद की झोंके की तरह आते थे. उनकी बहनें और सहेलियां एक-दूसरे को कोहनी मार ताना कसती थी, लेकिन वो आपको मुहब्बत का फरिश्ता बताते हुए मुस्कुराती थी.
... वो जो नाव बीच में डूब गई थी और इसका दर्द जब भी आपको सालता है आप दीवानगी के आलम में मेरी तरह निकल पड़ते हैं... ऐसे में अपनी महबूबा की गली से गुज़ारना हो जाए जिनसे तो सिर में मीठा सा दर्द तो उभरना लाज़मी हो ही जाता है.
अंततः पैर में पत्थर बांधे दबी जुबान से जगजीत सिंह की कोई गज़ल गाते हुए आप आगे बढ़ सकते हैं अलबत्ता यह स्केच भी रुक गया होगा.
अंततः पैर में पत्थर बांधे दबी जुबान से जगजीत सिंह की कोई गज़ल गाते हुए आप आगे बढ़ सकते हैं अलबत्ता यह स्केच भी रुक गया होगा.
कहीं तारीफ सुनने की आदत सी ना हो जाये ...लिखने वाला इस बरसात में फिसल ना जाए .....इसलिए प्रिकॉशन लेते हुए नहीं करती तारीफ ...हाँ ! बरसात मुबारक हो ....हर तरह की :-)
ReplyDeleteमन्टो की लिखी घाटन का नाट्य रूपान्तरण देखा था, नसीरुद्दीन शाह निर्देशित। अब तो उद्घाटन का ज़माना है।
ReplyDeleteक्या कहे ..बारिश का मौसम होता ही है ऐसा बूँदें नहीं नशा बरस रहा है
ReplyDeleteIf all the raindrops were vodka, breezers and tequila shots, Oh what a day this would be!!! ;))
पिलाने का ये अंदाज़ भी निराला है बर्खुरदार...!
ReplyDeleteनशा भी हो जाए और इलज़ाम भी ना लगे...
यही बैठे बैठ भीग रहा हूँ मैं तो..
अमां यार तुम तो ना नशा करवा के छोड़ोगे .....इनी नशीली पोस्ट लिखी है कि.....एक जाम और पीने को कर रहा है !!
ReplyDeleteबारिश बीत भी जाये तो देर तलक टपका रहता है... आपकी पोस्ट पढ़ के भी कुछ ऐसा ही लगा... शब्दों से खींचे स्केचिज़ देर तलक ज़हन में रहेंगे...
ReplyDeleteगुलज़ार साब की ये नज़्म याद आ गयी... आपकी इस पोस्ट को डेडीकेट कर देते हैं :)
शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है,
भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा
बूँदें पत्ता पत्ता कर के,
टप टप करती टूटती हैं तो
सिसकी की आवाज़ आती है !
बारिश जाने के बाद भी,
देर तलक टपका रहता है !
तुमको छोड़े देर हुई है
आँसू अब तक टूट रहे हैं...
-- गुलज़ार
अच्छा अंदाज है बारिश के वर्णन का ।
ReplyDeleteMaja aa gaya pad kar, nahi nasha karne wale ko bhi nasha ho jaye ye pad kar.
ReplyDeletesir..ye bhi khoob rahi :))))))))))))
ReplyDeletemeri hoslaafjayi ke liye lakh lakh dhaywaad!!
चश्म-ए-साकी से पियो, या लब-ए-सागर से पियो
ReplyDeleteबेखुदी आठो पहर हो, ये जरूरी तो नहीं.....
- कहीं झपकी गिर रही है तो कहीं मदहोश नींद.. सबको चुन-चुन कर उठा लेने का दिल करता है।
ReplyDeleteबस वाह वाह!
- ढका हुआ दिन एक खुमार बन कर छाया है
’ढका हुआ दिन’ बोले तो? नही समझा :( बताओगे/समझाओगे?
- अंततः पैर में पत्थर बांधे...
अच्छा प्रयोग किया है.. शायद ऎसा ही कुछ बिम्ब मैने अपूर्व की एक कविता मे भी देखा था..
बाकी पोस्ट अच्छी है... लेकिन तुम्हारी वन ओफ़ द बेस्ट नही :। :।
P.S. अपने दोनो हाथो से हमने अपना चेहरा छुपाया हुआ है तुम्हारी उस घूरती नज़र से बचने के लिये... :|
प्रिय पंकज,
ReplyDeleteढका हुआ दिन मतलब : जिस दिन सूरज ना निकला हो, दबी हुई रौशनी वाला दिन.
सुंदर गद्य
ReplyDeleteह्म्म ..तो कृष्ण-निकेतन की बालिकाओं के दिल का अभी भी उतना ही खयाल रहता है आपको..ह्म्म!!
ReplyDeleteखैर मौसमानुकूल पोस्ट..पढ़ कर लगता है कि दिल्ली मे बारिश कैसी टूट कर अंगड़ाइयाँ ले रही होगी..और किन-किन कलेजों मे सलवटें पड़ कर रह जाती होंगी..खैर हमारी भी खरोंचें हरी होती हैं...सावन है!!
उम्मीद है मुहब्बत का फ़रिश्ता बरसती गलियों मे बरसाती पहन कर फ़ुल-टाइम ड्यूटी दे रहा होगा... ;-)