साहिबान, आज पेश है पहला प्यार की दूसरी किस्त
“होता है, चलता है, दुनिया है” वाला फलसफा कासिम नगर के इस बस्ती में भी दोहराई जा रही थी... कासिम नगर, बिहार के M+Y समीकरण पर आधारित था. यानी मुस्लिम + यादव समीकरण जिसके आधार पर लालू ने 20 बरस कुर्सी गर्म रखी और निवासियों की हालत उस बंदरिया की तरह कर दी जो अपने मरे हुए बच्चे को कलेजे से लगाकर घूमती रहती है, जिसे 5 दिन बाद भी यह विश्वास रहता है की उसका बच्चा जिंदा है (जुगाड़ में घूमने वाले यह कतई ना समझें की हम नीतीश सरकार से आह्लादित हैं).
इस समीकरण का एक फायदा यह भी था कि राजद के प्रदेश युवा सदस्य भी बोलेरो, क्वालिस और स्कोर्पियो से उतर सीना ठोंक कर कहते कि ‘रिकॉर्ड उठा कर देख लीजिए, है कोई माई का लाल जो बिहार के इतिहास में एक भी एक भी दंगा बता दे’.. और हम इस झुनझुने को लेकर संतुष्ट हो जाते. इसलिए यह कासिम शहर नहीं, नगर था. खैर मारिये साहब इन लोगों को, आप भी सोचेंगे की कहाँ की बात कहाँ ले जा रहा है, नगर की पृष्ठभूमि बताने के बहाने राजनीति बताने लगा (पर ताल्लुक है मीलोर्ड)
“होता है, चलता है, दुनिया है” यह जुमला था सोनू के सबसे अच्छे दोस्त गुड्डू का.
गुड्डू, रंग सांवला, माथा चौड़ा और चेहरा गोल, बालों हमेशा शैम्पू किये हुए रहते और शौक यह कि जिधर गर्दन झुकाएं, मांग उधर से फट जाए. यह हेयर स्टाइल उन्होंने ‘बेवफा सनम’ में किशन कुमार से चुराई थी.
गुड्डू विशुद्ध प्रक्टिकल आदमी थे, एक हाथ ले-एक हाथ दे वाली नीति पर चलते विशेष कर लड़कियों के मामले में. कुछ और खास आदतें भी थी उनकी. मसलन, स्टील वाली ढीली घडी पहनना और बार बार झूलते घडी को ऊपर लाते वक्त बालों पर हाथ फेर तिरछी नज़र से यह भी देख लेना कि यह पोज़ किसने-किसने देखा. यह तरीका उन्होंने अपने कोचिंग की कई लड़कियों से सीखा था जो अपने गालों पर लटें झुलाती रहती और उसे अपने कान के पीछे करते वक्त देख लेती की कौन कौन उनकी इस अदा को देख निसार हो रहा है.
गुड्डू की पसंदीदा पत्रिका सरस सलिल थी... वो इसके नियमित पाठक थे और जब भी वो इसकी किसी कहानी में यह पढते कि “...और ज़मींदार रात भर सलमा की जवानी को अपने बाहों में दबोचता रहा” वे बिफर जाते और पत्रिका को गरियाने लगते.. दरअसल उनकी शिकायत इस लाइन से नहीं बल्कि बार-बार इसके दोहराव से था. वे शाम के वक्त चाय की दुकान पर या दोपहर में सोनू के दूकान पर अक्सर अपने दोस्तों को इन कहानियों का सप्रंग व्याख्या करते और मित्रगण भी पर्याप्त रसास्वादन कर गुड्डू को गया-गुज़रा हुआ आदमी करार देते.
सिनेमाहाल में गुड्डू हमेशा आगे वाली सीट लेते और कारण पूछने पर हँसते हुए फिलोस्फिकल अंदाज़ में “यहाँ से ‘सब’ बड़ा और ‘छोटा’ दीखता है” कहते और देर तक हँसता रहते. जिसे जो समझना होता, समझ लेते.. और जब तक लोग उसे समझ पाते “होता है, चलता है, दुनिया है” वाला उसका तकिया कलाम सबको दूसरी अन्य बातों के लिए तैयार कर देता.
सोनू से कई मामले में उलट गुड्डू की खास आदत थी. वे किसी को भाव नहीं देते थे. वे सारी दुनिया को अपने कमर के आस-पास एक अंग विशेष पर तौलते थे. उनकी नज़र में इस अंग विशेष का बड़ा महत्त्व था. कुछेक मिनटों के अंतराल पर तिरंगा, शिखर, पांच हजारी जैसे गुटका का पैकेट फाड़ते हुए यह बताना नहीं भूलते थे कि इस वक्त उनकी नज़र में दुनिया की वर्तमान पोजीशन क्या है. गोया जब से गुड्डू इस इलाके में आये थे यही पोजीशन बता रहे थे.
“सारी दुनिया इसी से है”. ऐसा उनका विश्वास था.
इसी प्रकार, रेलवे की परीक्षा में इस बार भी फेल होने पर वे ऊँगली से उसी अंगविशेष की ओर इशारा कर कहते "भगवान हमारा किस्मत ‘इसी’ से लिखा है... खैर...“होता है, चलता है, दुनिया है” फिर वे अपनी आशावादी सोच के साथ इस बस्ती में काबिज हो जाते.
इस प्रकार, “होता है, चलता है, दुनिया है” वाया गुड्डू सबके जुबान पर चढ चुका था.
जारी...
Pahla pyaar to pahlee hee kisht me khatm ho jata hai....!!Khair! Ye hui mazaaq kee baat....likha bahut badhiya hai,isme shak nahee!
ReplyDeletebahut badhiya likha hai....pahla pyaar n hi kiston me bantta hai our n hi kabhi khatm hotaa hai.. is maamle me kshama ji se asahamat hun.
ReplyDeleteएक ज़बर्दस्त प्रवाह लिए रचना जो अगली कड़ी का इंतज़ार करने को विवश करती है।
ReplyDeleteAchcha ja raha hai agali kisht ka intjar hai
ReplyDeleteबस्ती की मस्ती का चित्रण।
ReplyDeleteagli kisht kaa intezaar
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट है...
ReplyDeleteआप की अगली पोस्ट को पढने के लिए बेताब...
धन्यवाद !
sagar...bahut doobkar likha hai aapne :)
ReplyDeleteपहली किस्त की लयबद्धता दूसरी किस्त मे जाती दिखी....पठनीय किंतु यह तीसरी किस्त के इंतजार को विवश नही करती।
ReplyDeleteसत्य
शुक्रिया सत्य. बहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteसत्य के कमेन्ट को हमारा कमेन्ट समझा जाए.. ऐसा लग रहा है मानो लिखने के लिए लिखा हो..
ReplyDeleteकिन्तु इसे लेखक पर टिपण्णी ना समझा जाए ये लेख पर टिपण्णी है..
@ कुश,
ReplyDeleteविश्वास बनाये रखने का शुक्रिया.. पर सच है की अच्छे मरहले नहीं गुज़र रहे.
मुझे पोस्ट की प्रस्तावना इसका बेस्ट पार्ट लगी..खासकर कस्बे की सोशलऑजी के बहाने पॉलिटिकल साइंस को पकडने की कोशिश...बाकी पोस्ट मनोरंजक है..ओरिजिनलिटी पर कुछ और मेहनत की दरकार करती है..लोग तो कहते ही रहते हैं..होता है चलता है, सागर है!! ;-)
ReplyDelete