जीने के मानी उतने ही होते हैं जितने में जी भर जाए। जी लेने के तुरंत बाद मरना मंजूर है। मरते हुए जीने के लिए भाग रहे हैं। जिन क्षणों में मर रहे हैं वह सिर्फ जिस्म को मार रहा है। बेचैनी हर बार बच निकलती है। एक मुकम्मल मौत चाहिए। पूरा का पूरा। वक्त की प्रकार में कसे पेंच पर पेंसिल सा लगा मैं हल्के हाथ से पूरा घूम जाना चाहता हूं।
जिस्म एक समतल पार्क है। वक्त की डायल वहां माली सा घूमता रहता है। जब भी कुछ उठाओ बड़ी निर्ममता से छांट देता है। एकांत में बैठकर दो उंगली अपनी पलक पर रखो तो थरथराती प्रतीत होती है जैसे हल्की रोशनी में अधजगे से सो रहे हों। पलकें आंखे छोड़ कर भाग जाना चाहती है। आंखें लाचार और बीमार दिमाग छोड़कर। क्या ऐसा होगा कि यदि मेरी आंखें किसी को लगा दी जाए तो उसमें फिर उस व्यक्ति का मस्तिष्क प्रतिबिंबित होगा ?
एक सड़क दीखती है। लम्बी और आगे जाकर मुड़ती सी। दोपहर का सूरज तेज़ है। उसकी गर्मी से सड़क पर का पूरा कोलतार पिघल गया है। रास्ता काले मैग्मे का पूरा नदी बन गया है। नंगे पैर उस पर चलना होता है। पहला पग रखते ही तलवे की नर्म परत की छाल शरीर से अलग हो रास्ते पर चिपक जाते हैं। अगला पग रखते हुए जब पीछे देखता हूं तो तुरफ-फुरत का न्याय लगता है। एक मासूम सज़ा। एक क्षण में घटा हुआ और अपने लाल लाल हिलते दिल पर बूंद बूंद टपक टपक कर गिरता हुआ गर्म कोलतार सा। आंखें भीतर तक भींच लो कि यह जलन गूंगा कर देगा। इसकी सजा की प्रतिक्रिया चीख रूपी प्रत्युत्तर में नहीं निकलने वाली। कहा था - एक क्षण का दण्ड। चुप रहकर बर्दाश्त कर लो तो ठीक और न कर पाए तो पूरा जीवन ढेर सारा रोना - धोना। एक आसान उदाहरण से समझो तो बस की भीड़ में किसी का पर्स मार लेना। अगर तुम्हें पता चल गया और तुमने मंुह बंद कर ली तो ठीक है... अब वो दुख बर्दाश्त करो।
सबको बताना समाधान था ही कब ?
आज तो मरने की तम्मना जागी है। और यह काम अनुशासनपूर्वक करने का दिल हो आया है। बस किसी बिस्तर पर जाकर चप्पल खोल चादर ओढ़ कर सो जाने जैसा। जीना अनुशासन में नहीं हुआ। जन्म अनुशासित ही था। जीने के बीच मरना वैसे कई बार हुआ था कभी जोर का कभी रिस रिसा कर... मरना, मुर्गें की मौत की तरह नहीं चाहिए कि पंख नुच कर भी रह रह कर बदन कांपे, दोनों पैर बार बार झटकना पड़े और गला रेते जाने के बाद भी कुछ मिनट बाद तिलमिलाते हुए खत्म हों। मछली की तरह तो और भी नहीं कि कोई पहले गलफड़े की लाली जांचे क्योंकि बेचैनी ही कुछ इस तरह की वसीयत में मिली है कि उम्मीद है कि पका कर खाए जाने तक भी किसी की थाली में हिलता डुलता मिलूंगा।
मुझे एक इत्मीनान भरी मौत चाहिए। जो मुझे सुकून तो दे ही सभी के जीवन में जिससे राहत आए। जहर का प्याला कबूतर के गले की नीली गोटी जैसा होना चाहिए। हल्का गाढ़ा, पानी के ऊपर किरोसिन तेल सा तैरता हुआ। जीने में मरने की मिली हुई गंध सी और मृत्यु इतनी पुख्ता कि बीच का बचा जीवन...
...24 कैरेट का खालिस सोना।
maut maangne kaa ye tareeka ...alhada hai
ReplyDeleteमुझे एक इत्मीनान भरी मौत चाहिए...bhaymukt khwaahish
ReplyDeleteअभिशप्त...जिंदगी और मौत के बीच यूँ त्रिशंकु से टंगे रहने को...दर्द से छटपटाते लाइलाज, लाचार हैं.
ReplyDeleteसब कह देने और सुन लेने के बावजूद...मौत चाहने की शिद्दत में कुछ कमी महसूस होती है वरना जिंदगी इतनी बेरहम भी तो नहीं.
Negative post hai....haan Life ka ek moment ye bhi....jo abhi hai aur abhi nahi....puja ke comment ko like kiya hamne
ReplyDeleteमुझे एक इत्मीनान भरी मौत चाहिए। जो मुझे सुकून तो दे ही सभी के जीवन में जिससे राहत आए। जहर का प्याला कबूतर के गले की नीली गोटी जैसा होना चाहिए। हल्का गाढ़ा, पानी के ऊपर किरोसिन तेल सा तैरता हुआ। जीने में मरने की मिली हुई गंध सी और मृत्यु इतनी पुख्ता कि बीच का बचा जीवन...
ReplyDeleteAisa to shayad kisee yogee ko hee uplabdh hoga!
gulzaar ko laga dete hain yahan
ReplyDelete" सब पे आती है बारी- बारी से,
मौत मुंसिफ है कमोबेश नहीं आती
जिंदगी सब पे क्यों नहीं आती "
Jiyo sagar ....jiyo :-)
khud ka khud se khud ke liye ..... ki gaiee tammana ...... to kuch ..... hum jaison pe..
ReplyDeletebhi nisar ho..........
sadar....
"...मरना, मुर्गें की मौत की तरह नहीं चाहिए कि पंख नुच कर भी रह रह कर बदन कांपे, दोनों पैर बार बार झटकना पड़े और गला रेते जाने के बाद भी कुछ मिनट बाद तिलमिलाते हुए खत्म हों। "
ReplyDeleteआपका लेखन सचमुच अद्भुत है...काव्यात्मक गध्य लेखन है आपका जो विलक्षण है...मरने की छटपटाहट को सार्थक अभिव्यक्ति देने पर बधाई स्वीकारें...
नीरज
हैं भाईजान...
ReplyDeleteउधर गिरिजेश जी और इधर आप...
का भई दोनों मिलकर ई का मरने-सरने की बात कर रहे हैं...
खूब लिखे हैं...
सिर्फ बिस्तर तक जाना होता तो कोई भी चला जाता.. लेकिन चप्पल खोलकर सिर्फ सागर ही जा सकता है.. बहुत खूब लिखा है और हेडर में गिटार वाली फोटो भी लाजवाब है दोस्त..!!
ReplyDeleteमौत को उतनी शिद्दत से चाहने वाले जितना जीवन को वो थाली से लेकर अन्तरिक्ष तक हिलते - डुलते ही मिलेंगे !
ReplyDeleteबेचैनी ही कुछ इस तरह की वसीयत में मिली है कि उम्मीद है कि पका कर खाए जाने तक भी किसी की थाली में हिलता डुलता मिलूंगा। - ये किरदार तो शत प्रतिशत आप ही हो साग़र :)
ReplyDeleteकल पोस्ट पढ़ी थी तो अजीब सी कैफ़ियत तारी हो गई थी.. कुछ कहा नहीं गया... आज दोबारा पढ़ी तो बहुत सी चीज़ों के मानी बदले... बहुत सी बेचैनी में लिपटा हुआ थोड़ा सा सुकून मिला...
ये पढ़ कर क़तील शिफ़ाई साहब का एक शेर याद आ गया -
"आख़िरी हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ"
गद्य कहाँ...यह तो एक नज्म है जो गद्यात्मक ढंग से लिखा गया है....
ReplyDeleteसारे शब्द अन्दर कहीं गहरे जाकर अनुगूंज बन कान और मस्तिष्क से टकरा रहे हैं....
यूँ ये शब्द निकले भले आपकी कलम से हैं,पर एकदम अपने लग रहे हैं....