Skip to main content

रूई का एक गीला फाहा, जादू और हथेली का ग़मगीन होना.



दुनिया जब हमें तनहा समझ रही थी हम कोहरे वाले पहाड़ पर किसी के प्रेम में गुम थे।



अंर्तमन से एक आवाज़ आती। कोई पुकारता मगर उसमें आने या बुलाने का आग्रह लेशमात्र भी नहीं होता। पर कुछ वजह रही होगी कि हम ओवर कोट पहन पहाड़ के आखिरी सिरे तक चले जाते। तुम वहीं मिलती। किसी पत्थर पर बैठे एक धंुधली सी तस्वीर की तरह तुम नज़र आती। एक चुप्पी भरा मौसम था। बहुत ठंडा प्रदेश और मैं रात भर का जागा था। सोने की कोई वजह नहीं थी। खिड़की की ज्यादा पारदर्शी और थोड़े धुंधले शीशे के पार से रात भर होते बर्फबारी या थोड़े थोड़े अंतराल पर होते बारिश को देखते देखते ही जैसे रात कटी हो। सोफे पर कोहनी के नीचे एक तकिया और इंतज़ार थोड़ी सुबह होने का। तुम्हारी आवाज़ जिसे रात भर खिड़की के उस पार घटते/होते देखना था। कभी कभी कैसा होता है प्रेम कि यही हमें अनंत, अतल धैर्य भी दे जाता है। मैं मानता हूं कि अभी स्थिति वैसी नहीं आई है कि तुम्हारे वियोग में ज़हर खा ली जाए या फिर अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर माचिस मार ली जाए।

जैसे मस्तिष्क में कोई आॅडियो कैसेट चलता हो। हम रिवाईंड कर के सुनते हैं। भोर पहर नींद में किसी सुखद सपने जैसा कि कोई अचानक अधूरे ख्वाब पर उठा भी दे तो उसे जवाब दे करे फिर से सोने की कोशिश करते हुए सपने का छूटा सिरा फिर से पकड़ें। 

सिर्फ दो पैग पर काटी गई रात के बाद आंखों के सामने रात भर खिड़की पार तुम्हारी आवाज़। क्या तुम सोच सकती हो मेरी आंखें प्रतिक्रियास्वरूप कैसी हो सकती हैं? थोड़ी लाल? थोड़ी बोझिल ? होंठो पर हल्के हाथ लगाई गई लिपस्टिक का पहली लकीर ? मेरी चाल में कोई उद्विग्नता नहीं। मुझे कहीं और नहीं जाना। वहीं आना है उसी आखिरी सिरे पर जहां से दस कदम दूर तुम दिखो फजां में गुम सी। खुले बालों को अपने पीठ से हटाए एक कंधे के नीचे सरकाए हुए। थोड़ी झुकी हुई। और हल्की अधखुली पीठ। किसी खिड़की से झांकती हुई एक प्याली चाय का आमंत्रण देती आंखें। 

वादी की क्षितिज से बादलों के साथ उठती एक अति तीक्ष्ण सिम्फनी सी धुन ! तुम्हारे आर्कषण का डोर का अदृश्य धागा। चलना, चलना और दूर तक चलते जाना...। ओवर कोट में हाथ की अंगुलियों से उलझता लाईटर। किसी विश्वस्तरीय सिनेमा में का उस तरह का सीन जब कोई किरदार आत्महत्या के लिए बढ़ रहा हो और किसी अपरिभाषित मोह में।

धुंए का एक छल्ला निर्वात में मेरे ही सिर पर एक वृत्त बनता हुआ। दो कदम आगे बढ़ फिर पलट कर देखो तो वो वृत्त रूका हुआ। कोई हलचल नहीं। स्पंदनहीन। गवाह बनते चीड़ और देवदार। नुकीली पत्तियों पर रूकने का संघर्ष करता बर्फ। चिनारों के बीच आज कोई फुसफुसाहट नहीं, सबको मालूम कि कदम किस ओर मुड़े हैं। अत्यंत खुले वातावरण में भी एक आवरण में बंद पूरा अस्तित्व। भारहीनता का अनुभव जैसे अंतरिक्ष यान में...!

बहुत रेशमी फर वाले पक्षी का टूट कर गिरता हुआ पंख.... धीमे- धीमे तैरते हुए ज़मीन की ओर अग्रसर....

              ... निर्वाण।



सचमुच,

दुनिया जब हमें तनहा समझ रही थी हम कोहरे वाले पहाड़ पर किसी के प्रेम में गुम थे। 
और जब नहीं समझ रही थी तब हम अकेलेपन के सर्वोच्च शिखर पर थे और पहाड़ का नुकीलापन हमारे तलवों में चुभ रहा था।

Comments

  1. पता है साग़र... आज की पोस्ट को सिर्फ़ पढ़ा नहीं... उसे जिया... खिड़की के शीशे के पार गिरती रुई के रेशमी फाहों सी उस बर्फ़ को महसूस करा... आँखें भींच कर उस टूटे हुए अधूरे सपने को पूरा देखने की कोशिश करी... दूर कोहरे में लिपटी धुंधली सी उस आवाज़ को सुना... और उसके सम्मोहन में खिंची जब उस पहाड़ी के सिरे तक पहुंची तो सुबह के धुंधलके में सूरज उगने का इंतज़ार करते ख़ुद को पाया उस बेंच पर बैठे हुए... उस ख़ामोश फ़िज़ा में ख़ुद को बेहद हल्का महसूस करा... भारहीन सा... निर्वाण किसे कहते हैं नहीं जानती... हाँ ऐसा ही होता होगा कुछ !!!

    ReplyDelete
  2. P.S. : अपनी कलम को एक काला टीका लगा देना :)

    ReplyDelete
  3. कैसी होगी वो जिसे तुम सफ़ेद कागज पर लिख कर ये अफसाने भेजा करते हो!
    दिल्लगी दोनों से करते हो - मौत से भी, जिंदगी से भी. आशिकमिजाज सागर साहब...सच बताओ तुम्हें वाकई में किससे मुहब्बत है?

    'आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
    दिल का क्या रंग करूँ खून-ए-जिगर होने तक'

    ReplyDelete
  4. सागर भाई..एक बार पोस्ट को इस लिए पढ़ा की वाक्य विन्यास की सुंदरता देखी जाये...फिर पढ़ा की जरा गहराई से समझा जाये..और एक बार फिर पढ़ा की फील किया जाये...पर अभी भी लगता है की एक बार और पढाना चाहिए...शायद मन भर जाये..पर जानता हूँ ऐसा नहीं होगा...बहुत ही उत्कृष्ट रचना ..ज़रा पूजा जी के सवाल का जवाब भी दिया जाये... :)

    ReplyDelete
  5. kya kahoon. itni roomaniyat hai .. itne jazbaat hain.. apribhashit rishte.. atript aakankshaye.. kalpana me sakshatkar..bahut kuchh hai isme jo bahut sundar hai. poora blog padhna padega.shukriya.

    ReplyDelete
  6. कोई एक सतत प्रवाह है..अजस्र..जिसका कोई उत्स नही हो..जिसके बीच जीवन जैसे घटित भर हो जाता हो..पुष्प के परागमय हो कर झर जाने तक..पानी के अचानक बरस कर प्यासी जमीन के गर्भ मे समा जाने तक भर का अस्तित्व..यार हमारा जीवन बस एक मृगतृष्णा भर होता है..जीवन भर प्यासे रहते हुए भी प्यास का पता नही चलता..खैर..
    और पूजा जी के सवाल से अपना भी इत्तफ़ाक है..हालांकि हमे मालूम है कि यहाँ आपके लिये जवाब मे कमेंट बाक्स के कैरेक्टर्स और आपकी अपनी स्मृति दोनो की सीमायें हैं ;-)
    और आपके सिनेमाई सीन और आखिरी लाइन से क्यारस्तामी जी का कुछ याद आया शिद्दत से..कभी बैरंग पर साझा करने की ख्वाहिश के संग (बाकी की हजारो लाखो चीजों की तरह) :-)

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...