कल्पना वास्तविक कैसे हो सकती है ? इसमें संदेह नहीं कि मुझे जिस तरह की चित्र की दरकार है उसकी पूर्ति विश्व सिनेमा करती है लेकिन मेरा मन सप्ताहांत ब्लू फिल्में देखने का भी होता है। कुछ अन्य चित्रों के अलावा मैं जो चित्र बनाना चाहता हूं वो इस तरह कि कोई लंबे से महीन श्वेत वस्त्र में नायिका लिपटी हो। वस्त्र अधखुली हो और जैसे तैसे उसके कमर के आस पास लिपटी हो। एक नज़र में अल्हड़पन का रिफलेक्शन आता हो। जिसके पैर आगे की ओर खुले हों, एक सीधी हो दूसरी टांग घुटने से मुड़ कर सतह से चार इंच ऊपर हो। पीठ पीछे की ओर ढुलकी और दोनों हाथों की हथेलियां ज़मीन से लगी हो जिसके सारी उंगलियां उठी हुई हो। उंगलियां लम्बी और पतली हो। केश खुले हों (ये सीधे हो या घुंघराले इस पर अभी मुझे सोचना है) और आधे आधे आगे पीछे बंटे हों। सीना बिल्कुल अनावृत्त हो। नायिका उम्रदराज़ हो और स्तन हल्के लचर होते हुए भी बेहद आकर्षक हो। कुचाग्र युग्म (निप्पल) नहा कर दस मिनट पहले सोए हुए नवजात शिशु से हों। होंठ एक विशेष प्रकार के संबोधन के उच्चारण में रूके हुए। आंखों के नीचे हल्के काले घेरे हों। चेहरे पर जाते हुए सांवले यौवन का नमक विद्यमान हो। आंखें वो नहीं कहती हो जैसा दिखती हो। एक रहस्यात्मकता हो। जैसे पर्यटन स्थल पर मेरे हाथ पर हाथ रख दे तो स्पर्श के मायने बदल जाएं। सेक्सोफोन पर एकांत राग बज उठे और एकांत नायिका के उपस्थिति से भी विलग हो जाए।
मुझे आम जीवन में ऐसी नायिका नहीं मिलती। इसलिए ब्लू फिल्म देखने के बारे में सोचना कई बार मुझे बुरा नहीं लगता। वहां मेरी इच्छा उस पागलपन को महसूस करने की नहीं है क्योंकि वो मुझमें प्रकृति प्रदत्त पहले से विद्यमान है। लेकिन वहां बेख्याली में कुछ ऐसे चित्र बन जाते हैं जो कला के अंतर्गत नारी सौंदर्य को उकेरने में मददगार होते हैं। मेरा मकसद किसी का देह साधना नहीं, कामुक क्रीड़ा से तो बिल्कुल नहीं अपितु जो खाके खिंचते हैं और जिन पर चित्र बनाना है उस कल्पना को वास्वविकता के निकटस्थ लाना है। मैं यह सफाई अभी किसको और क्यों दूं? तारकोवोस्की का कहना - 'आखिरकार एक कलाकार ही जानता है उसे क्या बनाना है।'
लेकिन जाहिर है इसके लिए हमारे बीच बहुत गहरी समझदारी होना निहायत ही जरूरी है। और जो नायिका ऐसी होगी उसके प्रति हमारा आभार भी सबसे ज्यादा होगा। और ऐसी चित्र बना नहीं सकता इसलिए उन चित्रों को फिलहाल शब्द दिया जा रहा है।
*क्योंकि जैसा कि आप देख सकते हैं, लिखना... अगर आपको इसमें सुख मिलता है तो इससे सारे दुख मिट जाते हैं।
(ओरहान ने ऐसा कहना यहां से सिखाया। शुक्रिया।)
मन का स्वभाव है, सौन्दर्य का अनसुलझा पैमाना लिये अपनी संतुष्टि टटोलता रहता है। आनन्द मिले तो आनन्द सिद्ध है।
ReplyDeleteआपने यह कह बचा लिया....
ReplyDeleteथैंक्स..
"कृपया कमेंट्स को अपनी बाध्यता* या मज़बूरी** ना बनाएँ."
..वाह..और हम उसे देख भी रहे हैं साक्षात..अपने ’मन’ की आँखों से..वैसे सही है भइया..किसने रोका है हुजूर...बनाओ बनाओ...जरा हमहू ’गौर से’ देखें तो कि ये समाज-बिगाड़नी कुलबोरनी पातकी चीज आखिर है क्या ? :-P
ReplyDeleteवैसे तब तक कतर की सिटीजनशिप के लिये अप्लाई कर दो...