इस वक्त, हां इसी वक्त जब नवंबर अपने पैरों में लगती ठंड से बचने के लिए रजाई में अपने पैर सिकोड़ रही है। इसी वक्त जब मैं माज़ी में घटे हालात पर हैरां होता हुआ चीनी मिट्टी में तेज़ी से ठंडे होते हुए चाय के घूंट सुड़क रहा हूं। इसी वक्त जब कम्प्यूटर की स्क्रीन अपने तकनीकी खराबी के बायस अपनी पलकें झपका रही है और ऐसा लग रहा है जैसे इतनी रात गए मैं माॅनिटर के नहीं आईने के सामने बैठा हूं।
दिल में रह रह कर सवाल उठ रहा है कि जिंदगी किसलिए ? इतने दोस्त क्यों, हम कहां तक? किसी का साथ कब तक? कैसे हो गया इतना सब कुछ कि अब तक यही लगता रहा कि कुछ भी तो नहीं हुआ है। आज क्या हुआ है कि सबके चेहरे यकायक पराए लगने लगे हैं। तस्वीरें खिंचवाता हुआ आदमी उस वक्त खुद को किस आवरण में ढ़कता है ? क्या यकायक लापरवाही से यह नहीं मान लेता है कि जिं़दगी सुंदर है। दो मिनट दो तो किसी आत्मीय या किसी आशिक की कही बातें याद करता है कि तुम्हारा मुकम्मल वजूद हंसने में ही छंक पाता है। हंसी का बर्तन कैसा आयतन रखता है। तो क्या सन्तानवे फीसदी लोग हंसने से ही अलग हो पाते हैं और इतने ही प्रतिशत लोग अगर उदास हों तो सारी शक्लें एक जैसी है।
जब हम खुश होते हैं तो हमसे ज्यादा सुखी कोई नहीं जब हम ग़मज़दा होते हैं तो हमसे ज्यादा दुखी कोई नहीं।
तुम हमेशा से वहां जान चाहते थे, ऐसा तुम्हें वहां देखकर ही लगा। हाल की जिंदगी में एक जमात ऐसी हो रही है जो विश्व नागरिक बनना चाहती है। बेहतर जीवनस्तर राष्ट्रीयता के मुकाबले थोड़ी दूसरे दर्जे पर चली गई है। सिर्फ अच्छा ही अच्छा है के विकल्प हैं, इसके लिए अच्छों का चयन हो रहा है और अच्छी बात तो नहीं है मगर बाकी सब कुछ अच्छा है की तर्ज पर निर्णय लिए जा रहे हैं।
एक जेनेरल स्वीकारोक्ति यह भी है कि चूंकि अच्छी बात नहीं है यह मानना परंपरा है अतः हम इसे मानेंगे। मगर दिल में यह बात दबी हुई है कि सिर्फ अच्छी बातें होने भर से जिंदगी अच्छी नहीं होती। बुरे होकर भी अगर जिंदगी का स्तर बहुत अच्छा है तो क्या बुरा है? आप बस उत्तम जीवन शैली बनाए रखिए लोग आपकी बुरी परंपराएं भी आजमाने लगेंगे। मैं कहता हूं कि किसी बारिश के देस में आप बारिश के आनंद को कितनी देर तक पचा सकेंगे? मज़ा तो तब है जब आप कम से कम 24 घंटे में दस मिनट मिनट उदास हों, आपके टेस्ट की उदासी मिलेगी, झक रंगीन और फैशेनेबल। और साहब आपकी हैंडसम और डिसेंट पर्सनैलिटी पर सूटेबल।
आधी रात गए ज़हन में एक चेहरे में बची रह गई सिर्फ दो आंखें उग रही हैं जो मन को इतना अकेला कर गई है कि कुंए से पानी भर कर जैसे डोल उठता हो और अपने ईंट भरे पहचाने निशानों पर टकराए जाने की आवाज़ को सुन रहा हो।
वो छलके हुए पानी जैसे लौट कर वापस आते हैं कुंए में थोड़ी सी उम्मीद की उदास छिड़कन अब भी उन आंखों में है इस उम्मीद में कि एक दिन जब मेरी जिंदगी के तमाम कांटे मुलायम हो जाएंगे मैं भी तुम पर आ गिरूंगा।
गलत कहावत है कि मेरा जन्म हुआ है। मैं तो खोया हुआ कोख हूं।
मेरी जां लोग विश्वव्यापी भ्रमण को निकलते हैं मैं तो ब्रह्मांड भर के जाने अनजाने भटकन पर निकला हूं।
अपने मन की लिखी जीते हैं हम, मैं ही मैं हूँ, और सारे पात्र गौड़ लगने लगते हैं।
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