वो आई और चली गई।
मेरे पास अब सिर्फ यह तसल्ली बची है कि वो अपने जीवनकाल के कुछ क्षण मेरे साथ और मेरे लिए बिता कर गई। और जब से वह गई है मैं मरा हुआ महसूस कर रहा हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि वो जी रही होगी कहीं। उसे जीना आता है और मुझे मरना। वो भी थोड़ा थोड़ा मर लेती है मगर मैं जी नहीं पाता। मैं मरे हुए में जीता हूं। वो जीते जीते ज़रा ज़रा मर लेती है।
वो गई है और मुझे लगता है कि नहीं गई है। हर उजले उपन्यास के कुछ पृष्ठ काले होते हैं या कालेपन से संबंध रखते हैं। आज रम पीते हुए और उसके साथ मूंग की सूखी दाल चबाते हुए मैं सोच रहा हूं कि कई बार हम किसी उजले शक्स के लिए एक टेस्ट होते हैं जिसे गले से उतारना खासा चुनौतीपूर्ण होता है। और इसी कारण यह एक थ्रिल भी होता है। जीवन के किसी कोने में सबका स्थान होता है। बेहद कड़वी शराब पीने की जगह भी हमें अवचेतन में मालूम होती है। सामने वाले की आंखों में कातरता देख अपनी जि़ल्लत भरी कहानी के पन्ने खोलने को भी हम तैयार हो जाते हैं। अंदर कुछ ऐसा भी होता है कई बार जो हमारे मूल नाम के साथ लिखने को तैयार नहीं होता मगर वो जो अमर्यादित और अनैतिक पंक्तियां हैं वो लिखना चाहता है। हालांकि प्रथम संभोग करते हुए साथी के असहनीय पीड़ा के बावजूद सर में कोई नुक्स सवार हो जाता है और कमर बेकाबू सैलाब की तरह सारे बांधों को तोड़ती आती है।
ये सब क्षणिक होते हैं लेकिन हमारे मन में पलते हैं। कम से कम एक बार गलती कर जाने की हिम्मत, कर गुज़रने की भावना और वापस अपने खोल में फिट हो जाना। पुल के उपर जहां खुशगवार जिंदगी गुजारने वाले, खूबसूरत सनसेट देखने वाले, लांग ड्रायविंग पर जाने वाले और अपनी माशूकाओं के साथ बहती लहरों को देखने वाले लोग होते हैं तो वहीं उसके नीचे अपने स्याह धब्बों के साथ जीने वाले लोग होते हैं, जिंदगी जिनके लिए बोझ है। एक लड़की याद आती है जो सिर्फ दस रूपए पाने के खातिर एड्स के शिकार मर्द से बिना कंडोम संबंध बनाने को बाखुशी तैयार है।
अंदर कुछ है जो लिखना चाहता हूं। मगर क्या मालूम नहीं। कुछ तो शायद यह कि आर टी आई का इस्तेमाल उसके बुनियादी मकसद के लिए कम विभीषणगिरी के लिए ज्यादा हो रहा है। नहीं यह नहीं। तो फिर क्या ? मालूम नहीं। क्या यही नहीं बेहतर होता कि किसी कागज़ की चैथाई पर आड़ी तिरछी उलझी लकीरें ही खींच लेते। क्या लिखने के लिए कलम की निब दो पहले से खिंची लाइनों के बीच जूझती रहती है, इन दो लाइनों की हद तोड़ती दिखती है। आदमी क्या चीज़ है आखिर?
दो किडनी, एक दिल और धड़कन के साथ आदमी क्या चीज़ है आखिर। बेशुमार आदमी के बीच हैं फिर भी आदमी की तलाश है। अरावली की दोहरी हो चुकी कमर पर हों या नीले आसमान की जद में, दिमाग बिना आदमी के पुर नहीं होता।
वो आई और चली गई।
उसके हाथ के कागज़ी स्पर्श वैसे ही जिंदा हैं। शराब का नशा दिमाग में खिंचे नसों को भींगोते हुए आगे बढ़ रहा है। उसका होना कैसा है। शायद बांह पर दागे हुए किसी सूई की तरह। उसे चूमना कैसा है। शायद बादाम के छिलके का एहतियात से टूट जाना। उसका जाना कैसा है। शायद बिस्तर पर लिटाकर, पैर की सबसे छोटी उंगली में छिले हुए तांबे की नंगी तार को लपेटकर उसमें करंट दौड़ा देना।
पढ़ पढ़ कुछ भरते हैं, जो मन में खाली सा लगता है..
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