सांसों के फनगट में, दुनिया के जमघट में, ये कौन सा राग-विहाग है। दो है चार है, साला चमाड़ है। उमड़ता जज्बात है, उगलता आग है। कैसा पक्षपात है! उमड़ता है, घुमड़ता है, बरसता है, और तौबा फिर भी यही ग़म के बैठा है कि साला ठीक से नहीं बरसा। वरना ये कील कहां चुभता रहता! कुछो बाकी रह गया है। दिन है तो रातो होगा, दु सौ सवालो होगा। ये जो रस्ता है, पता नहीं कैसा बस्ता है, सब कुछ कूल है फिर भी शुल है, जीवन है कि भूल है। सांसा आधा अंदर है उफनता समंदर है। भुल है, भुलैया है, जिंदगी की गलियां है। वक्त का पहिया है, बेलौस बहैया है। भेड़ बनाकर हांकता है। कमीने मुंह किसका ताकता है। भगाने पर भी नहीं भागता है। क्या कोई कपड़े रखवा लिया है ! देखो तो कैसा आग है। अबे आग है कि झाग है। जिलेबी रस्ता है, मीठा है, छोटा है। इन सब को ढ़ोता है। अयाल है-ख्याल है फैला जंजाल है, बोलना बवाल है तो जीना मुहाल है, चंद सवाल है पर कितना बदहाल है ! होता भी हूं, रोता भी हूं, करता भी हूं, मरता भी हूं। आदत नहीं बनती, सांस नहीं थमती। बिचार है कि सदी के गर्म कपड़े जैसा दोपहर में यहां-वहां उतारा हुआ है ! सबके साथ दिन काटा जा सकता है। पर क्या इसे ही चाटा जा सकता है र्षोर्षो न कमर न करम सोझ है पता नहीं कितना बोझ है। सूझ है तो बूझ नहीं फेर ऐतने वाइस वरसा। दिमाग अनुमानी है। दिल अभिमानी है। खाका मिथ्याभिमानी है। बात तो वही पुरानी है। दर्द में कसम है वैसने ठसक है, न पुराना होता चमक है, मर रहा ललक है। छोटी-छोटी सांसे हैं। बीती बातें हैं। बाहर कितना धुंध है, अंदर कितना भीड़ है। साला पूरा मामला गंभीर है। ऊहा है, पोह भी, पांव पसारे मोह भी। निरा निपट है, छल है, कपट है। मार दो का शोर है, गीला काहे आंख का कोर है ! जीवन क्या है ! चूक है, भूख है ! फिर भी पूरा परिदृश्य मूक है। मन हैरान है ! कैसा विधान है, फैला सामान है, कभी तेज़ जुबान है, तो कभी चुप रहना ही ज्ञान है। कैसी तो बस्ती है, कुछ की मस्ती है, गरीबों की पस्ती है, खानापरस्ती है, जूझते लोगों की हालत खस्ती है, खुद हमारा जीवन क्या नहीं सस्ती है। चोट हरा है अभी मुंह झांपे पड़ा है। दायरा कितना सिमटा है, चुनाव है कि चिमटा है। शाम का बेरा है, मदिरा का फेरा है। उलझन कितना घेरा है! वही सवेरा है। कैसी बीमारी है, न मरने की तैयारी है, मन क्यों भारी है, अवसाद तारी है, जांच करवाओ क्या महामारी है ! उलझनों से जीना है, चक मारता सीना है, मुंह बाए आगे कई महीना है, बदन में कहां ज़ीना है ! माथे पर पसीना है, छुपा हुआ नगीना है। खेत से किसी ने गाय को हड़का दिया है। सागर-ओ-मीना पीकर लुढ़का दिया है।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं. स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...
बढ़िया बजाते हो राग मित्र! घोर रागदरबारी है। दमदार लेखनी!
ReplyDeleteएक सांस में ही पढ़ लिया... दिन चौगुनी और रात आठ गुनी तरक्की कर रहे है...
ReplyDeleteदमदार लेखनी!
ReplyDeleteहिन्दीकुंज
अगर तूफ़ान में जिद है ... वह रुकेगा नही तो मुझे भी रोकने का नशा चढा है ।
ReplyDeleteकभी-कभी मन यूँ भी करता है
ReplyDeleteजो भीतर है सब उगलता है
शब्द वैसे ही झरते हैं
जैसा हम सोंचते हैं
-शायद यही सच्चा लेखन है
-पढ़कर सकून मिला।
वाह....क्या लिखते हैं आप...अद्भुत...लफ्फाजी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन...मजा आ गया...
ReplyDeleteनीरज
मन हैरान है ! कैसा विधान है, फैला सामान है, कभी तेज़ जुबान है, ...यही दिल का उफान है जो कलम से कभी यूँ छिटक जाता है ,और दिल की अनकही बातो को यूँ लिख जाता है ..आपके लिखे के हम भी कायल हैं ..शुक्रिया
ReplyDeleteBahut kuch kah dala aapne aaj ke sandarbh mein. Prastuti le liye dhanyavaad.
ReplyDeleteबहुत खूब अच्छी रचना
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें
सागर अभी आपका ब्लॉग देखा और ये नवीनतम पोस्ट भी देखी. आपका ट्रीटमेंट ज़िन्दगी और कविता के साथ ख़ासा रोचक है और उसमे आने वाले दिनों के उत्स छुपे दीखते हैं . इसे बरक़रार रखिये. इसे इस तरह देखिये कि ये भटकाव रचनात्मक होने की पहली शर्त है.पहली शर्त आप बखूबी पूरी कर रहे हैं. आपकी भाषा बेहद जिंदा है और उसे ज़िन्दादिली से बरतने का शऊर भी आपमें ख़ूब है. इस ज़मीन पर थोड़ी वैचारिक धैर्यशीलता से एक बड़ा काम संभव है. आप व्योमेश शुक्ल की कविता देखिये, वो दरअसल यही करता है लेकिन उसका समर्पण भीतर से अर्जित होने की चीज़ है.
ReplyDeleteमेरी अनेक शुभकामनाएं.
इतनी सुघड़ बड़ बड़ा हट जँची मुझे....!
ReplyDeleteसागर जी
ReplyDeleteक्या नंगा किया है आपने टीवी कैमरे....और उनके सामने अपने आपको बेचने वालों को..सशक्त आलेख के लिया बधाई...
It is a mind blowing writing........ as it was ending, i felt like there should be something more to read, I was bond in that way to your composition.... Congrats Sagarji
ReplyDeleteबेमिसाल - बेहिसाब
ReplyDeletekamal hai...
ReplyDelete