मैं इसे अवसाद क्यों कहूँ ... इसमें रहने कि लत लग गयी है अब और बेशर्मी से कबूलता हूँ कि अच्छा भी लग रहा है. चौथा दिन है आज, कहने को कुछ भी नहीं बच रहा है. इन सारे पलों में सिर में एक दर्द तारी रहा. जितनी पी सकता था उस हद तक पी पर नशा हावी नहीं हो सका.
मैं कहाँ गया, जा रहा हूँ या जाऊंगा अब यह सब कुछ मायने नहीं रखता. दिमाग में गुंथी हुई मेरी सारी नसें झनझनाती हुई कुछ भी तो नहीं कह रही है.
वो जो मेरे अंदर शायर था इन्हीं गलियों में खो गया है. हाथ में अब बस एक खाली गिलास बची है और देर से सरकती हुई आखिरी बूँद अपनी जीभ पर लेने को आतुर हूँ.
हाथ की लकीरें अब यहाँ से आगे नहीं दिखती. साथ निकली सारी रेखाएं मुख्तलिफ हिस्सों में अकेले-अकेले बढ़ कर तनहा खत्म हो गए.
जिन सवालों को लिए आज मैं मरने वाला हूँ वो परसों भी जिंदा रहेंगी और कल तलक तुम या तो उनका जवाब खोजते रहोगे या फिर तगाफुल ही बेहतर रास्ता होगा.
ओ री दुनिया ! तुम्हें मैं कोई रास्ता बताते नहीं जा रहा हूँ.
अपने मुताल्लिक मैंने तुम्हारा मुस्तकबिल जान लिया है. लोगों ने तो एक शब्द खोज लिया था पलायनवाद पर इसके सिवा रास्ता भी क्या था. मैं कोई बहस नहीं पैदा करना चाहता.
(गुरुदत्त के लिए...)
क्या याद दिला दिया आज...उफ्फ्फ...गुरुदत्त मेरे पसंदीदा निर्देशक हैं...एक जीवनी पढ़ी थी कहीं उनकी...आज भी सोचती हूँ वो होते तो और कैसी फिल्में बनतीं...दिल दिमाग और अपने पूरे वजूद को झकझोर देती है प्यासा या फिर कागज़ के फूल.
ReplyDeleteतुमने फिर से कमाल लिखा है यार...
गुरु दत्त का नाम याद आते ही मन में गूंजने लगता है "ये महलों, ये तख्तों ये ताजों की दुनियां ... ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.."
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
पढ़ते रह जाना ज्यादा बेहतर है आपको..फिर कुछ अहसास करना ..फिर कुछ कहने के लिए सहकना.. फिर चुप रह जाना !
ReplyDeleteफिर..फिर..फिर...बहुत से फिर के बाद यह बताने चला आना कि टिप्पणी करना फालतू-सी चीज लगती है यहां !
पहुंच रहे हो न दोस्त मेरी तलछट तक !
मैं इसका शीर्षक बदलना चाहता हूँ : कुछ मुसलसल मनहूस लम्हे....
ReplyDeleteक्या इतनी टिप्पणी काफी होगी?
"जो हाल दिल का उधार हो रहा है,
वही हाल दिल का इधर हो रहा है"
(मीना कुमारी के लिए....)
पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है...
ReplyDeleteरात खैरात की, सजदे कि सहर होती है...
(Written By Meena Kumari)
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया.
(Picturised for Guru dutt)
कई बार कुछ न कह सकने की हालत में चुप रहने के सिवा कोई चारा नहीं होता मैं आपकी और दर्पण की बातो से पूर्णतया सहमत हूँ.
ReplyDeleteye duniya agar mil bhi jaye to kya hai...
ReplyDeleteहाथ की लकीरें अब यहाँ से आगे नहीं दिखती.
mujhe bhi ek do din se kuch nahi dikh raha tha..waise aisa mere saath hona badi aam baat hai..wo appraisal interview type chalta rahta hai..
kal hi ek random rambling humne bhi fenk di..
http://wakeupbuddha.wordpress.com/2010/03/22/random-rambling/
ये अचानक से गुरु दत्त की याद क्यूँ कर आ गयी..कोई खास दिन था क्या...?
ReplyDeleteओह उम्दा..!
ReplyDeleteभाई ये गुरुदत्त जी से थोड़ा दूर रहा करो..नहीं तो हिमालय पर भी शांति नहीं पाओगे..!
"प्यासा" देखी थी, दो-तीन बार देखी..एक हफ्ता..नहीं-नहीं पुरे महीने भर कुछ अच्छा नहीं लगा. और बताऊँ.."मृत्यु का आकर्षण" सा शायद था या क्या था नहीं बता सकता..!
"मृत्यु का आकर्षण"
ReplyDeleteयही कुछ बोला है श्रीश जी ने..
सारनाथ के बुद्ध का चेहरा याद आता है..एक मंद, स्निग्ध, सौम्य और शाश्वत मुस्कराहट..ओठों पे नही..आँखों मे नही..मगर पूरे मुखारविंद पर दमकती अरुणाभा..जो तुम्हारे अंतर को बेध कर देख रही हैं..उस कोने मे जहाँ तुम खुद कभी नही झाँक पाये..डरते रहे..और यह मुस्कान उसकी है जो कहता है कि जीवन दुखों का मूल है..संसार एक छलावा है..शायद यही सत्य का आकर्षण है दोस्त..मौत का आकर्षण..अपने मुताल्लिक मैंने तुम्हारा मुस्तकबिल जान लिया है !!!
धीमे-धीमे सरकते हुए..गिलास की कोर पर अटक गयी उस एक आखिरी बूंद का इंतजार..यह जानते हुए कि यह उस गिलास की आखिरी बूँद है..और उसके बाद?..क्या पता..क्या फ़िकर है..अभी तो बस इंतजार है उस बूँद के टपक कर शादाब होने का..कल का कौन सोचता है..वो जिसे कल का पता नही होता है..या जो शायद पता होने के बावजूद उस पर यकीं नही करना चाहता..और यह वो मोड़ है जहां पर दिमाग के नसें, हाथ की लकीरें हमारा साथ छोड़ देती है..या शायद हमें भी उनके जरूरत नही रह जाती...उन सवालों से तगाफ़ुल या पलायनवाद तो उसके बाद आता है..मगर शायर मरता नही..उसे जिंदा रहना है..और सहनी है एक मुसलसल जलन..आओ इस जलन मे मरते नही हैं..जिंदा रहते हैं..इसी जलन मे!!
और क्या कहूँ..न जाने क्यों गुरुदत्त से ज्यादा वह शराबी आवारा मजाज़ याद आता हैं...परेशान करता हैं..सो उनकी कुछ पंक्तियाँ चेप रहा हूँ..शायद कुछ राहत मिले..
रात हँस-हँस कर ये कहती है, कि मैखाने मे चल
फिर किसी शहनाजे-लालारुख के काशाने मे चल
यह नही मुमकिन, तो फिर ऐ दोस्त वीराने मे चल
ऐ गमे-दिल क्या करूँ, वहशते-दिल क्या करूँ
मुंतजिर है एक तूफाने-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने दरवाजे हैं वा मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा अहदे-वफ़ा मेरे लिये
ऐ गमे-दिल क्या करूँ, वहशते-दिल क्या करूँ
जी मे आता है ये मुर्दा चाँद-तारे नोच लूँ
इस किनारे नोच लूँ, और उस किनारे नोच लूँ
एक-दो का जिक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ
ऐ गमे-दिल क्या करूँ, वहशते-दिल क्या करूँ
और भी बहुत कुछ है कहने को...खैर कभी मजाज़ की ही ’अंधेरी रात का मुसाफ़िर’ भी तफ़सील से डिस्कस करेंगे..
jaane wo kaise log the...
ReplyDeleteवाह...कलात्मक अतिसुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति.......
ReplyDeleteपता नहीं मैं बार बार यह गलती देख रहा हूँ...हो सकता है दर्शन ने गलत टाइप कर दिया हो .. कमेन्ट में "सजदे' की सहर होती है लिखा है... मूल शब्द "सदके" है...
ReplyDeleteकुछ कहना ज़रूरी है क्या इस पोस्ट के मुताल्लिक..?
पीयूष की बात रख देते हैं
जैसी बची है वैसी की वैसी बचालो ये दुनिया...
www.taaham.blogspot.com
सुधांशु की बात...यहाँ टिप्पणी देना बेमानी है...बस पढ़ते जाना है.
ReplyDeleteहर लम्हा एक सा कहाँ होता है ..कुछ लम्हे बहुत दुखद होते हैं..
ReplyDeleteआज 15/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!