अरे, क्यों रूठे हो ? क्या हुआ ? चलो हंस दो. अच्छा चलो मुस्कुरा ही दो. गुदगुदी लगाऊ क्या ? देखो ! पेड़ की छालों से उसका चोकलेटी रंग कैसे उतर रहा है तुम्हारे लिए. तुम जब नहीं थे मेरे आसपास तुम्हारी याद छत पर पसारे हुए रंगीन कपड़ों की तरह उडती थी. अच्छा! मैं तुम्हारे लिए नृत्य कि कुछ मुद्राएँ बनाती हूँ.? कुछ और उपाय करूँ. एक अनजान सुने धरती के आखिरी कोने तक दौड के बादल पुकार दूँ ? या आनंदातिरेक होकर थिरकते हुए अपने एडियों से बात कर लूँ ? तुम्हारी कुछ अदाओं की नक़ल करूँ ? अपने चेहरे की जमीं सर्द मत करो, कहो तो हथेली रगड कर तुम्हारे मसामों पर रख दूँ... बची हुई गर्मी इन वादियों में घोल देना, धूप का पीलापन मैं इन बादल से घिरी फिजाओं में भी घोलना चाहती हूँ... हाथ रखो ना मेरे सीने पर... तुम्हें पता चलेगा कि दिल कि मानचित्र पर धडकनें चारो दिशाओं के उच्चतम बिंदुओं पर जा पहुचे हैं... ना-ना, वहाँ हाथ मत रखना तब आखिर में गिर पड़ेंगी वहाँ से... वहाँ से नीचे बड़ी गहरी खाई है... और इतने ऊंचाई पर बड़े दिनों बाद पहुंची हूँ... डर है, कहीं ऑक्सीजन की कमी ना हो जाये... हाय ! मुझे तो अपने कपड़ों का भी होश ना रहा...
क्या कहते हो, अपनी नीली घूँघट काढ लूँ ? तुम्हारे मान सिर पर बिठाये मैं कहाँ कहाँ दौड लगाऊ.. बहुत हिम्मत करके एक बात कहती हूँ मुझे पकड़ कर चूम ही लो अब तभी मैं शायद संयत हो सकूँ... या खुदा ! मुहब्बत आया है मेरा या तुम खुद उतर आये हो उसका रूप धर कर. मदहोशी कि रो में मेरा दिल तानाशाह तो नहीं हो रहा ... कहीं मैं तुम्हें शुकराना अदा करते-करते अपने आँचल से चाभियों कि तरह बाँध कर आँगन आँगन ना फिरने लगूं... अगर इस वक्त कोई निर्देशक मुझे देखे तो इसे शायद सदी से सर्वश्रेठ भाव-भंगिमा करार दे.. मेरी पलकों पर तुम्हारे आमद कि खबर ऐसी लिपटी है कि पोर मुलायम हो उठी है.
मुझे आवाज़ लगाओ ना दुनिया! मैं पीछे पलट कर तुम्हें ठुकराना चाहती हूँ... यह ख्वाहिश भी जोड़ती हूँ कि तुम कहना “दीवानी थी, चली गयी” देखो, मुझे रुसवा ना करना. ठीक है ?
ऐ क्षितिज ! तू अब अपने लाल पर्दें गिरा दे... मैं इन अँधेरे कि रौशनी के आगोश में ज़ज्ब होना चाहती हूँ... अपने श्रृंगार को आजमाना चाहती हूँ... अपनी लाज को चुनौती देना चाहती हूँ... अपने प्रियतम से मिलना चाहती हूँ तो विशाल कटे सायेदार पेड़ों कि तरह झुलाओ ना अपनी बाजू प्रियतम.
प्रस्तुतकर्ता सागर पर Friday, March 26, 2010
सेंटी कर दिए दोस्त.. बहुत दिनों बाद सेंटी हुआ हूँ.. )-:
ReplyDeleteBahut nazakat bhara lekhan!
ReplyDeleteशानदार लेखन!
ReplyDeleteमास्टर आदमी हो यार तुम..!
ReplyDeleteकलम में जोर है दोस्त!
ReplyDeleteक्या-क्या लिख मारते हो! जय हो!
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