चाय के कप से भाप उठ रही है। एक गर्म गर्म तरल मिश्रण जो अभी अभी केतली से उतार कर इस कप में छानी गई है, यह एक प्रतीक्षा है, अकुलाहट है और मिलन भी। गले लगने से ठीक पहले की कसमसाहट। वे बातें जो कई गुनाहों को पीछे छोड़ कर भी हम कर जाते हैं। हमारे हस्ताक्षर हमेशा अस्पष्ट होते हैं जिन्हें हर कोई नहीं पढ़ सकता। जो इक्के दुक्के पढ़ सकते हैं वे जानते हैं कि हम उम्र और इस सामान्य जीवन से परे हैं।
कई जगहों पर हम छूट गए हुए होते हैं। दरअसल हम कहीं कोई सामान नहीं भूलते, सामान की शक्ल में अपनी कुछ पहचान छोड़ आते हैं। इस रूप में हम न जाने कितनी बार और कहां कहां छूटते हैं। इन्हीं छूटी हुई चीज़ों के बारे में जब हम याद करते हैं तो हमें एक फीका सा बेस्वाद अफसोस हमें हर बार संघनित कर जाता है। तब हमें हमारी उम्र याद आती है। गांव का एक कमरे की याद आती है और हमारा रूप उसी कमरे की दीवार सा लगता है, जिस कमरे में बार बार चूल्हा जला है और दीवारों के माथे पर धुंए की हल्की काली परत फैल फैल कर और फैल गई है। कहीं कहीं एक सामान से दूसरे सामान के बीच मकड़ी का महीन महीन जाला भी दिखता है जो इसी ख्याल की तरह रह रह की हिलता हुआ दिखता है। उस कमरे की दीवार हमारा माथा है। हमारे माथे की शिकनें यही चढते उतराते जाले हैं। बहुत एकाग्रता से आधी रात को देखने पर यह समुद्र में उठते ज्वार भाटे की तरह दिखते हैं। घटनाएं और उसमें उठाए हुए हमारे कदम इनमें नज़र आते हैं।
दरअसल इस वक्त का आईना दृश्यों से भरा हुआ एक खाली ऑब्जेक्ट है। आईने में हमेशा कोई प्रतिबिंब होता है और भौतिकी के कई अध्याय तो आईने के लिए गुण अवगुन से अटे हुए हैं। क्या जीवन पर कोई साइंस लागू हो पाता है।
इमोनश्नल होना अपने साथ बहुत सारी प्रैक्टिल प्राब्लम लेकर आता है। बावजूद इसके, इसके बगैर मनुष्य, मनुष्य नहीं हो पाता।
कई बार ऐसा लगता है कि 30 की उम्र में मैं जीवन के अंतिम घेरे पर खड़ा हूं। यहां से बहुत सारी चीज़ों के लिए पछतावा भी है, अपनी अज्ञानता का एहसास भी और अगर फिर से उसे सुधारने का अवसर मिले तो इसका गाढ़ा ‘काश’ भी।
कई बार हमारे होने के की शिनाख्त जल्दबाजी में लिए गए चुंबन की तरह महबूब के लिपस्टिक के घसीटे गए निशान में भी रह जाता है।
होठों की भी अजीब आदत है। इसे चाय का स्वाद पता होता है, दोहराव का शिकार ये कभी कभी मेरे अंदर यह भरम डालता है कि शायद कप पर होंठ लगाने और चाय की सिप उठाने से ठीक इसका मिलन हो जाता है। दोहराव की क्या यही आदत प्रेम है?
इस दुनिया में जीना सरल हो जाए, लोग अपने शौक पूरे करते हुए पुरसुकून तरीके से जी सकें। आती जाती सांसों पर किसी तरह का कोई भार न लगे। जीवन उधार न हो। इतनी सी इच्छा इस इतवार सर उठा रही है।
ज़मीर अधिक दिन तक सोया नहीं रह सकता। इसकी मौत अपनी हत्या है। एक लोलुप लिजलिजी सी देह जो जब हरकत करे तो हाथ पैर, उंगलियां नहीं बल्कि अपने अपराध की सज़ा में घिसटती कोई काला साया लगे।
मैं अक्सर खुद को एक यात्रा में पाता हूं जहां बस यह समझना है पेड़ों की हिलती टहनियां मुझे विदा कर रही है या मेरा स्वागत कर रही है।
प्रकृति और स्त्री से मैं कभी नहीं ऊबता हालांकि दोनों एक दूसरे का ही रूप है।
प्रतीक्षा में आदमी को पिता का कंधा हो जाना चाहिए। वह प्रशांत गर्दन, डोलते जहाज के उस दुधमुंहे लंगर की कड़ी जैसा होता है, जो ज़मीन से लग जाना चाहता है।
मां के अंतर के बारे में मैं कुछ नहीं जानता बजाय इसके कि मैं उससे सटा रहना चाहता हूं।
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