Skip to main content

उदासियाँ


बड़ा ही भाव-विह्वल हो कर मैं उन लम्हों को याद कर रहा हूँ नहीं शायद फिर से देखने की कोशिश कर रहा हूँ.. इस कोशिश में मेरी आँखें आगे की ओर निकल आती हैं... लगता है मैं किसी बेहद रुलाने वाली फिल्म का क्लाईमैक्स देख रहा हूँ... इससे मेरी आँखों में पानी का थक्का जम गया है जिसे लोग आंसू का नाम देते हैं... मुझे याद आता है कि मैं पिछले कई महीनो से नहीं रोया और पानी के इस थक्के ने गालों कि पगडण्डी नहीं पकड़ी... धूप में चलते हुए मेरी परछाईं भी छोटी हो चुकी है और मेरे से बात करना उसने बंद कर दिया है. ट्रेन प्लेटफार्म से खुलने ही वाली है पर नज़ारा ऐसा है जैसे अभी अभी भीड़ को उठाकर ट्रेन यहाँ से निकली है. यकायक सूना सा प्लेटफार्म मेरे दिल जैसा लगने लगता है.

ट्रेन के सारे कम्पार्टमेंट खाली हैं... आदतन मैं खिडकी वाली सीट पकड़कर बैठ जाता हूँ... मुझे उसकी समानांतर चलती पटरी के नीचे कई पहचाने से तख्ते नज़र आते हैं... थोड़े घिसे हुए... कितना याराना लगता है इनसे...सर में थोड़ी सी दर्द लिए यात्रा करना कैसा होता है ? वही पल फिर से नमूदार हो जाते हैं... मेरा चेहरा मलिन होने लगता है...इस अपमान को मथते हुए मैंने अपने निचले होंठ लगभग चबा डाली है...ट्रेन की जोर पकडती रफ़्तार हर पल नए नजारे दिखा रही है. दुनिया में दिल बहलाने के लिए क्या कुछ नहीं है, हरे भरे खेत हैं, क्रिकेट खेलते युवा हैं, रंग-बिरंगे लैम्प पोस्ट हैं, अतीत में ले जाती, बाल सहलाती मद्दम हवा है. धूसर सा रंग है, आदमी ही आदमी है.. खो देने का दर्द है, पा लेने का सुख है इन सबसे परे अध्यात्म है.

इतने सारे बोझ उठाकर भरी कदमों से चलता हुआ आदमी हमें महामानव सा नहीं लगता ?

बहार कहती है 'यह उदासी है, एक फेज है, गुज़र जाएगा'

... जबकि उसे भी पता है कि उदासी विद्रोही तेवर लिए होती है जो बार-बार सर उठाती है और यहाँ हमारा तानाशाह होना काफी नहीं होता... उदासी मार्च का पतझड़ कहाँ है बहार, जो फिर से अगले साल ही आएगा.

एक बड़ी भारी सी आवाज़ मेरा पीछा कर रही है और मैं उससे कन्नी काटते भाग रहा हूँ.






प्रस्तुतकर्ता सागर पर Thursday, April 01, 2010

Comments

  1. Manme halki-si kasak to paida ho gayi..badi saral, sadagi bhari lekhan shaili hai aapki!

    ReplyDelete
  2. तड़पा देने वाला लिखा है सागर. लगा उसी ट्रेन पर तुम्हारे सामने वाली खिडकी पर बैठी तुम्हें घिसे हुए पटरों में कुछ ढूंढते देख रही हूँ. सोच रही हूँ तुम्हें टोक दूँगी तो जाने कौन सी कविता खो जायेगी.

    पर इस कविता की तलाश में कवि को खोना भी तो नहीं चाहती.

    ReplyDelete
  3. :)

    ye sochalay jabardast hai.. lekin pessimistic nahi hone ka..

    mere paas kuch bhi nahi hai bolne ke liye.. bas ek smile si hai jo chehre pe hai..
    tere sochaly ko maine apni ek post mein link kiya tha..

    kaash sabke paas aisa ek sochalay ho.. sagar bhai jabardast!!

    ReplyDelete
  4. bahut badhiya shaily likhne ki!utne hi sundar bhaav bhi...

    ReplyDelete
  5. ग़ज़ब की टेंशन लिए है .... पर मज़ा आया पढ़ने में ...

    ReplyDelete
  6. पटरी के नीचे कई पहचाने से तख्ते..

    सिर्फ और सिर्फ कमाल...

    ReplyDelete
  7. ट्रेन की जोर पकडती रफ़्तार मानो धोंकनी सी बजती ज़िन्दगी की जद्दोजहद हो.

    दुनिया में दिल बहलाने के लिए क्या कुछ नहीं है, हरे भरे खेत हैं, क्रिकेट खेलते युवा हैं, रंग-बिरंगे लैम्प पोस्ट हैं, अतीत में ले जाती, बाल सहलाती मद्दम हवा है.
    पर इक दिन यह सब भी छिन जायेगा जब गाड़ी धीरे धीरे धचके खाती है-पता नहीं कब रुक जाये?फिर...


    कई बार उदासी में मन इक ऐसे बिंदु पर आ के रुक जाता है जैसे किसी damaged रिकॉर्ड पर आ कर इक जगह सुई फंस जाती है और जानलेवा शब्द पैदा करने लगती है,उस समय सिर्फ यही मन करता है किसी तरह यह शब्द पैदा होना बंद हो जाये...'यह उदासी है, एक फेज है, गुज़र जाएगा'

    ReplyDelete
  8. यह ऐच्छिक उदासी का अविरल करुण-राग!!..आँखों पर एक काँच सा चढ़ जाता है..कि दुनिया बस धूसर रंगों मे दिखायी देती है..अजनबी इंसानों से भरी-उलझती दुनिया मे कोई सूखा सा बेरंग पेड़ भी इतना अपना लगता है..कि उसके गले लग कर घंटॊं यूँ ही रोया जा सकता है..अपने साये से देर तक दुःख बाँटा जा सकता है..अपने ही चुपचाप धड़कते दिल को फ़ुर्सत से बद्दुआएँ दी जा सकती हैं..मगर उसके बावजूद चैन न मिले तो...मगर चैन की गुजारिश कौन कम्बख्त करना चाहता है..यह तो एक मुसलसल बेचैनी है जो खुद मे समाये जाती है..एक जलन जो खुद को जलाये जाती है...कौन परवाह करता है इस ’फेज’ के गुजरने की..बस उस उदासी के गले लिपट जी भर रो लेने को जी चाहता है..
    नासिर याद आते हैं..
    इस शहर-ए-बेचिराग मे तू जायेगी कहाँ
    आ ऐ शब-ए-फ़िराक तुझे घर ही ले चलेँ ।

    ReplyDelete
  9. क्या क्या लिख चुके हो! क्या बात है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ