मूक सिनेमा के दौर में भी फिल्मों की आशातीत सफलता से उत्साहित होकर कुछ कल्पनाशील लोग सिनेमा को आवाज़ देने के प्रयासों में जुट गए थे. 1930 के आसपास सिनेमा में ध्वनि जोड़ने के प्रयास होने लगे हालाँकि तब यह एक अत्यंत महंगा सौदा था. मुंबई में आर्देशिर ईरानी की इम्पीरियल फिल्म कम्पनी और कलकत्ता में जमशेदजी मदन का मदन थियेटर्स बोलती फिल्म बनाने की कोशिश में जी-जान से जुटा था. पहली कामयाबी मिली आर्देशिर ईरानी को, जिन्होंने देश की प्रथम सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ बनायीं. 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजिस्टिक सिनेमाघर में ‘आलमआरा’का प्रदर्शन किया गया. मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वी राज कपूर इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे. निर्देशन में आर्देशिर ईरानी के सहयोगी थे – रुस्तम भरुचा, पेसी करानी और मोटी गिडवानी. 1932 में ही इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने ‘आलमआरा’ के बाद चार और सवाक फिल्मों का निर्माण किया था. उधर कलकत्ता में मदन थियेटर भी सवाक फिल्मों के प्रदर्शन में कामयाब हुआ. मदन थियेटर की ‘जमाई षष्ठी’ दूसरी ऐसी सवाक फिल्म है जो ‘आलमआरा’ के बाद प्रदर्शित हुई थी. 1932 में मदन थियेटर्स ने चौबीस फ़िल्में बना कर इम्पीरियल फिल्म कम्पनी को काफी पीछे छोड़ दिया.
फिल्मों में ध्वनि के आगमन के बाद भी मूक फ़िल्में बनती रहीं, हालांकि उनकी संख्या में निरंतर गिरावट आती रहीं. सवाक फिल्मों के प्रदर्शन से ठीक पहले 1930 में कुल 130 फिल्मों का निर्माण हुआ था. 1931 में जहाँ कुल 27 सवाक फिल्में बनी, वहीँ 207 मूक फिल्मों का निर्माण भी हुआ. 1934 में सिर्फ 7 मूक फिल्मों का निर्माण हुआ और इसके बाद मूक फिल्मों का अध्याय समाप्त हो गया.
आर्देशिर ईरानी का सिनेमाई दौर:
पहली सवाक फिल्म बनाने वाले आर्देशिर ईरानी (1885-1960) पहले पुलिस में कार्यरत थे. 1905 में वे अमेरिका की यूनिवर्सल फिल्म कम्पनी की फिल्मों के भारतीय वितरक बने. 1914 में उन्होंने मुंबई में अलेक्जेंड्रा सिनेमाघर ख़रीदा और 1922 में फिल्म निर्माण में कूद पड़े. इसी साल उन्होंने अपनी पहले मूक फिल्म ‘वीर अभिमन्यु’ बनायीं. अब्दुल अली के साथ मिलकर 1926 में उन्होंने मुंबई में इम्पीरियल फिल्म कम्पनी की स्थापना की और ‘आलमआरा’ के निर्माण से पहले वे कुल 130 मूक फिल्मों का निर्माण कर चुके थे. जेबुन्निसा, रूबी मेयर्स, मजहर खां, याकूब खां और जाल मर्चेंट आदि कलाकार ईरानी की इम्पीरियल फिल्म कम्पनी की ही देन हैं.
फिल्मों में ध्वनि आने के बाद सवाक फिल्मों का सिलसिला चल निकला. संवाद और गीत-संगीत भारतीय सिनेमा के अनिवार्य अंग बन गए. 1932 में बनी ‘इन्द्रसभा’ में 70 गाने थे. इससे साबित हो जाता है की सिनेमा में ध्वनि के आगमन को लेकर भारतीय फिल्मकार कितने उत्साहित थे. अब तक सिनेमा में पार्श्वगायन की शुरुआत नहीं हुई थे. न्यू थियेटर्स की ‘धूपछांव’ (1936) ने यह शुरुआत भी कर दी. 1936 में ही बाम्बे टॉकिज की ‘अछूत कन्या’प्रदर्शित हुई, जिसमें सरस्वती देवी का संगीत था. सरस्वती देवी को प्रथम महिला संगीतकार होने का श्रेय हासिल है. इसी दौड में कई फिल्म कंपनियां स्थापित हुई, जिनमें प्रभात, न्यू थियेटर्स, बाम्बे टॉकिज आदि महत्वपूर्ण हैं. न्यू थियेटर्स के वीरेन्द्रनाथ सरकार इंग्लैंड से इंजीनियरिंग की पढाई करके लौटे थे. कलकत्ता में आकर उन्होंने अपनी फिल्म कम्पनी शुरू की और टैगोर एवं शरत के उपन्यासों पर फ़िल्में बनायीं. प्रभात में वी. शांताराम सामाजिक संघर्ष का बिगुल बजा रहे थे तो न्यू थियेटर्स की फ़िल्में जीवन में प्यार-मुहब्बत का सन्देश दे रही थी. उधर हिमांशु राय और देविका रानी ने बाम्बे टॉकिज की नींव रखी. 1935 से 1939 में चार वर्षों में बनी बाम्बे टॉकिज की 16 फिल्मों का निर्देशन एक जर्मन नागरिक फ्रांस आस्टिन ने किया था. इस तरह, 1913 से 1940 तक से सत्ताईस साल के सफर में भारतीय सिनेमा काफी परिपक्व हो चला था और अब उसने एक उन्मुक्त आकाश की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया था.
* (आभार :दृश्य-श्रव्य जनसंचार प्रविधि)
ये सिनेमा वाली पोस्ट्स मूड बना देती है... मुझे नहीं पाता था आलमआरा में पृथ्वी राज कपूर थे..
ReplyDeleteबहुत सही कर रहे हो भाई मेरे..
Bahut achhee jaankaare leke aaye hain aap!
ReplyDeleteशुक्रिया सर हिंदी सिनेमा के तम्मा उन्चुवे पहलूवों पे रौशनी डालने के लिए..हम जसे सिनेमा के स्टुडेंट्स के लिए एक सार्थक पोस्ट.वसे तो ये सारी चीजें अंग्रेजी में हिंदी में हिंदी सिनेमा की हिस्ट्री पे काम ही लिखा गया है..नेट पे तो और भी काम ..हिंदी में प्रेजेंट्स टाइम के सिनेमा पे तो खूब लिखा जा रहा है मगर हिस्ट्री पेबहुत काम लिखा गया है..शुक्रिया इस पोस्ट के लिए......
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कथा चल रही है प्रभु..बड़ा नया-नया ज्ञान मिल रहा है..ईरानी जी के बारे मे जानकारी देने के लिये शुक्रिया..और भी नये तथ्य पता चले..खासकर संगीत-पक्ष पर..एक फ़िल्म याद है सारंगा-सदाबृज जिसमे गानों ही गानों मे पूरी फ़िल्म हो गयी थी..
ReplyDeleteवैसे मूक फ़िल्मों के दौर की एक मजेदार बात लगती थी..कि अगर सबटाइटल वालियों को हटा दें तो भाषा का कोई लफ़ड़ा नही था..न कोई हिंदी फ़िल्म ना कोई मराठी या इंग्लिश..
एक प्रार्थना भी है महराज..व्ही शांताराम जी के अध्याय पर पर अलग से और विस्तार से प्रवचन हो..बड़ी कृपा होगी..बाकी जय हो!
यह पोस्ट्स तो निरन्तर पढने को उत्सुक रहता हूँ !
ReplyDeleteबेहतरीन ! आभार ।
वाह! ई सब भी लिखे हो!
ReplyDeleteगजब!