बाहर/ दिन/ स्थान : रेलवे स्टेशन/ दोपहर बाद कोई समय.
खटर-खटर करती हुई ट्रेन, गोली की रफ़्तार से निकलती जाती है. कल्याण से घाटकोपर की ओर हर तीन मिनट पर उसी ट्रैक पर धरती का छाती कूटती ट्रेन की आवाज़ में ना जाने कितनी चीखें दब जाती हैं...
इन वज्र पहियों में कितना शोर होता है, निर्ममता से हर चीज़ को पिसती हुई निकल जाती है. यहाँ रफ़्तार और शोर हमारे लिए बाध्यता नहीं होती बल्कि हमारी एकाग्रता और बढ़ा देती हैं...
आह ! क्या विचित्र संयोग है!
कल रात पगलाया हुआ टी.वी. खोला था तो लाइफ इन अ मेट्रो का गाना आ रहा था - "अलविदा - अलविदा". हत्यारे की तरह चैनल बदला तो एक नायिका, नायक को बुझती आँखों से जीने का हौसला बंधा रही है - आत्मदाह की दस्तक आती है, गीत शुरू हो जाता है "देख लो आज हमको जी भर के, कोई आता नहीं है फिर मर के"
... यह भी क्या कम संयोग नहीं कि जिस दिन हमारा दिल बुरी तरह कचोट कर टूटता है रेडियो, टी.वी. भी वैसा ही गीत सुनते हैं.
सच बताओ कुदरत, कोई साजिश तो नहीं !
रंगमहल में आज कुछ भी सजा हो, लाल कालीनो वाली पार्टियों में कितनी ही रौनक हो, अप्सराएँ नाच रही हो, जुगनू अपनी टार्च जला संगिनी ढूंढ़ रहे हों, नदी अपनी जगह से तीन कदम पीछे यूँ हटी हो जैसे दिन में पतिव्रता स्त्री अपने पतित शराबी पति का चरण स्पर्श करने झुकी हो और पति को अपनी गलती का एहसास हो आया हो, कोई गले में पत्थर बाँध के डूब मरा हो, किसी लेखक ने पराई स्त्री को चूमा हो, गन्धर्वों ने यशोगान गाया हो, कोई लड़की अपने घर से भागी हो, ओबामा नवम्बर में भारत आ रहे हों, चीन ने सुरक्षा परिषद् में आदतन भारत के शामिल होने पर 'सहमति' जताई हो... किसी ने रक्त स्नान किया हो, सरहद पर कोई क़त्ल हुआ हो, सांप ने अपनी केंचुल उतारी हो की खदान में कोयले के नए भण्डार की खोज हुई हो...
... पर इससे हमारी जिंदगी पर क्या फर्क पड़ेगा ?
शाम होने को आई.
(दो दिनों का भूखा स्ट्रगलर कुछ फलसफे समझकर प्लेटफोर्म से खिसकता है ... )
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ना ! आज रात भी नींद नहीं आएगी.
gahara dard jhalakta hai....tum sachmuch saagar ho.....
ReplyDeleteउलझे से इत्तिफकों में जिंदगी ढूँढना कितना सच है कितना मृगतृष्णा?
ReplyDeleteबढिया पोस्ट!!
ReplyDeleteजुगनू अपनी टार्च जला संगिनी ढूंढ़ रहे
ReplyDeleteकिस किस वाक्य की तारीफ़ करू ...अपने विचार बहने दीजिये ....आनन्द आ रहा है
Hamesha bahut prawahmayi likhte hain...aur bahut gahra saty..
ReplyDeleteनींद ना आने की सबकी अलग वजहे है.. बढ़िया लिखेले हो..
ReplyDeleteवैसे खटर खटर और तेजी से निकलना दो विरोधाभासी बाते है प्यारे मोहन..
सागर जी, यह कुदरतिया साजिश है आपको न सोने देने की । दिल से खेलते हो, शोर मचाते हो, सम्हलने का मौका तो दो ।
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति ।
एक वक़्त के बाद गोले से बाहर की किसी भी चीज़ का आपकी जिंदगी पे फर्क नहीं पड़ता .....गोला........जो आपने खीचा है अपने चारो ओर......
ReplyDeleteफर्क तो पड़ा है सागर बाबू.....ये कीबोर्ड को जों आप पीटें है और ओबामा तक फलाइट किये है .....ये सारा कुछ बिना फर्के के क्या ? .....अब खुद से कतराइगा तो कहाँ जाईएगा :-)
ReplyDeleteकहते हो कि लब आजाद हैं तेरे...बात तो सही है, पर दिल तो बाँध देते हो भाई..
ReplyDeleteमास्टर पीस मेरे इस दोस्त के पास ही रखे हैं
ReplyDeleteदेख लो आज हमको जी भर के ... वो नब्बे का दशक था और एक ही दोस्त काफी थी जिसके लिए ये गाना प्ले किया करता था और उसको डरता था साथ में खुद भी डर ही जाया करता था.
जब अपना दिल भरा हुआ हो तब वाकई बहुत सी बातों से फर्क नहीं पड़ता.
खूब लिखा है, बहुत खूब.
गोया शब्दों में जिंदगी की पकड़ बहुत मज़बूत है...
ReplyDeleteस्ट्रगलरी मे कुछ न मिल पाये तो बस फ़लसफ़े मिलते हैं..बस यह फ़लसफ़े पेट को समझ नही आते..जिंदगी ऐसे ही किसी भीड़ भरे प्लेटफ़ार्म पर गाड़ियों के धगड़-धगड़ के बीच पगलाई सी दौड़ती रहती है..मगर जब तक उसे अपने प्रारब्ध की गाड़ी नही मिलती तब तक जितनी भी शताब्दियाँ-राजधानी गुजरती रहें क्या फ़रक...
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