क्षितिज पर शाम का सूरज लाल हुआ जाता है और उसकी लालिमा इन आँखों में उतर आई है. उधर सूरज उतरता जाता है इधर पीने की ख्वाहिश जवां हुई जाती है... ये शराब मांगती लाल आँखें हैं. कई हलकों में कई रात से जागी हुई. इनमें बसे सपनों को गर दरकिनार कर दिया जाये तो एक हथेली नींद भरी है जो किसी भी वक्त पूरे बदन को अपने गिरफ्त में ले उसे दुनिया से पल भर में जुदा कर सकती है.
बुरी तरह से थके हुए इस जिस्म में थकान, टूटन, बुखार और दहशत एक साथ तारी है मानो पुलिस द्वारा रात भर दौड़ाया गया हो और अब जबकि थकान में चूर होकर शरीर ने जवाब दे दिया है तो ऐसे में कमर नीचे की ओर झुक आती है और दोनों हाथ बरबस घुटनों पर आसरा पाते हैं.
ये लाल-लाल आँखें मानो रम का रंग घुल आया हो इनमें और ऐसे में चेहरा ऐसा जैसे दो बरस बाद किसी अपमान को सोचते हुए लाल पपीते का जमीन पर गिरना, किसी हत्या का गवाह होना जैसे श्मशान में पिछली रात जल कर ख़ाक हुए शव की राख कुरेदते परछाई.
आँखें जैसे बदहवास पोरों से बुखार से तपते पलकों पर वर्जिश के बहाने रूह तलाशने की कोशिश, एक एकमुश्त मुहब्बत, जैसे बोरे में भर कर सील ली गई हो अमानत...
क्षमा करें श्रीमान,
यह किसी माशूका की आँखें नहीं हैं, यह मुझ जैसे एक आवारे की मुसलसल चलती, दौड़ती, रेंगती, चढती (सकारात्मकता) और उतरती (निराशावादी, अवसादग्रस्त और हथियार डालती) कैमरे की मानिंद आँखें हैं जिसके पलकें झपकने की दर तेज है और इन दौरान उन दृश्यों को दिमाग में सेव कर लेने आदत है जो बरसों बाद आपको काउन्टर नम्बर्स के साथ पूरी लिस्ट दे सकने का माद्दा रखती है, ना यह बिजली से चलती है ना किसी बैटरी से. अपने चलने की वजेह ढूंढती यह आँखें प्रकाश डालकर रौशनी खोजती है.
इन आँखों से बातें ऑफ द रिकोर्ड होती हैं....
मदोन्मत्त आँखें कहती हैं :
‘ऐ खुदा ! हम संजीदगी से आवारागर्दी कर रहे हैं’
इन आँखों से बातें ऑफ द रिकोर्ड होती हैं....
ReplyDeleteमदोन्मत्त आँखें कहती हैं :
‘ऐ खुदा ! हम संजीदगी से आवारागर्दी कर रहे हैं’
Inheen aankhon kee sachhayi se dar ke to ham aankhen churate hain,jab pakde jane ka dar hota hai!
Bahut sundar likha hai!
श्मशान में पिछली रात जल कर ख़ाक हुए शव की राख कुरेदते परछाई.
ReplyDeleteहे खुदा, तुम संजीदगी से कईयों को परेशान कर रहे हो.
ये आवारागर्दी जारी रहे .यही दुआ करते है ..आमीन !
ReplyDeleteआँखें जैसे बदहवास पोरों से बुखार से तपते पलकों पर वर्जिश के बहाने रूह तलाशने की कोशिश, एक एकमुश्त मुहब्बत, जैसे बोरे में भर कर सील ली गई हो अमानत"
ReplyDelete- - - - यह पंग्क्ति रसीदी टिकट का एक खास प्रसंग पढ़ते हुए ज़ेहन में आई थी, सोचा सांझा कर लूँ
अच्छी डूब के किताबे पढ़ते है पता चलता है..अभी कितनी बंद किताबे पड़ी होंगी...:)
ReplyDeleteकई घटनाएँ जब घट रही होती है
अभी अभी लगे ज़खमों सी
तब उनकी कोई कसक अक्षरों में उतर जाती है...(रसीदी टिकट)
चढ़ती को सकारात्मक ही पढ़ रहे है.. सबको अपने जैसा समझ लेते हो बांगड़ू.. ??
ReplyDeleteलग रहा है नीरो बंशी बजा रहा है..
अभी जब तुम मेट्रो पे सवार हो रहे थे, बड़ा मन किया कि तुम्हारे साथ हो लूँ इस सुलगी विल्स क्लासिक और ओल्ड मौंक के साथ ही...शायद इन "मदोन्मत आँखों" का हलफ़िया बयान रूबरू सुन पाता।
ReplyDeleteरसीदी टिकट का जिक्र कर तुमने जैसे मुझे पिछले जनम में पहुँचा दिया...उस जनम में जब मैं बड़ा होकर अमृता प्रितम से शादी करना चाहता था... :-)
कुछ बिम्ब इन आँखों के जहाँ चौंकाते हैं, वहीं कुछ बिम्ब अपने अटपटेपन का भी अहसास दिलाते हैं....जैसे "दो बरस बाद किसी अपमान को सोचते हुए लाल पपीते का जमीन पर गिरना"।
जा रहा हूँ, तेरी कवितायें पढ़ने।
कहीं कोई होगी जो इन निराशावादी, अवसादग्रस्त और हथियार डालती आँखों को चूमकर कहेगी की ये दुनिया की सबसे प्यारी आँखें हैं...
ReplyDeleteकुश ने अच्छा नाम दिया है तुम्हें 'बांगडू', तुम्हारी आवारगी जिंदाबाद. बहुत थक गए हो...थोड़ा सो लो...कुछ हसीन सपने आयेंगे... और आखिर में पंकज के ये शब्द...
ReplyDelete"कहीं कोई होगी जो इन निराशावादी, अवसादग्रस्त और हथियार डालती आँखों को चूमकर कहेगी की ये दुनिया की सबसे प्यारी आँखें हैं..."
.यह आप जैसे कि नही............ आपकी ही आंखे है सागर जी।
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है आप्ने
सत्य
ऐसी संजीदगी पर हैरान हूँ.
ReplyDelete