Skip to main content

फरजंदा


इतवार का दिन था और सुबह के साढ़े दस बज रहे थे.

फरजंदा गुसलखाने से खुली हुई मैक्सी में जिसके घेरे बड़े फैले हुए थे, नहाकर निकली. उसके हाथ में प्लास्टिक की बाल्टी है जिसमें धोए हुए कपडे थे. रस्सी पर कपडे डालने से पहले वो नीचे झुक कर बाल्टी में कपडों का पानी निचोड़ती है. उसके बाल भीगे हुए हैं जिसके बायस मैक्सी के नीचे का अन्तःवस्त्र और और नुमाया हो रहा था. ठीक पांच कदम पीछे सिर पर पगड़ी बांधे हैदर बैठा था जो अपने आँखों के ठीक सामने बांस के पेड़ पर लगे निशान को लगातार देखे जा रहा था. फर्जन्दा के झुकने-उठने के दरम्यान उस निशान को देखना बाधित हो रहा था लेकिन हैदर अभी कुछ देर वहीँ देखते हुए सोचते रहना चाहता था.

अपने को इस काम में मशगूल कर उसने अपने पायजामे की जेब टटोली, बीड़ी निकाली और जला ली. दोनों पैर जोड़े, अंगूठे और तर्जनी को गोल बना, उनके बीच दबी बीडी का कश लेने लगा. सोचते हुए उसे बीड़ी खत्म  होने का ख्याल तब आया जब उसकी ऊँगली जलने लगी. यूँ छज्जे का काम कर रही खपरैल के नीचे इस कोण पर बैठ कर धूप में भी देर तक धुएं का बने रहना बड़ी ताज्जुब सी बात थी.

फरजंदा कपड़ों को टांगने के लिए बार बार झुकती और उठती. इससे हैदर के सामने बांस वाले पेड़ में निशान देखने में और उससे लिपटे किसी जंगली पौधे को देखकर सोचने में खलल हो रही थी. बांस का पेड़ काफी उम्र दराज़ था, उसका कच्चापन जाता रहा था, वो पीला पड़ रहा था, उसमें पत्ते निकलने की दर कम हो गई थी.

हैदर ने अपनी ज़िन्दगी से उसे जोड़ कर देखना शुरू किया. मैं भी एक बांस का पेड़ हो सकता था, अपने बूते सीधा खड़ा रहता, शायद हूँ भी मगर इन सारे जंगली पौधों के तरह मेरा आने वाला परिवार मुझसे लिपटता गया और पहले का परिवार टूटता गया.

फरजंदा दो पल के लिए फिर झुकती कर उठती है.

आख़िरकार नजारे में खलल पैदा होने से तंग आ कर हैदर उस दृश्य को देखना छोड़ देता है, यों छोड़ देना तो वो अपने मन में चल रही मौजूदा फ़िक्र को भी चाहता था पर वो इसमें इस कदर महलूल हो चुका है था कि पेड़ से नज़र हटाने के बावजूद ख्यालों में अब तक वही बात जमी थी.

हैदर की नज़र अब फरजंदा के कूल्हे पर टिक गई.... चौड़े चलके कूल्हे जो दूसरी बार बच्चा पैदा करने के बाद और फ़ैल गए थे,  जो कि इस वक्त अपेक्षाकृत ज्यादा चौड़े लग रहे थे या शायद हैदर की ख्याल-ओ-फ़िक्र से जुड कर ज्यादा लग रहे थे.

क्या यही है वो फरजंदा जो कई बरस पहले मेरी मुहबब्त थी? जिसके साथ हमने ज़िन्दगी के कई हसीन पल बिताए फिर जिसने मुझसे शादी की और बिस्तर पर अपनी आगोश में लेकर ब्लैकमेल करने लगी, सबसे तुडवा दिया, अपनी जिद मनवाने लगी... हाँ फरजंदा उन्ही औरतों में से थी जो बदन सौंपने से पहले या उस दौर में अपने स्वार्थों, अपने हितों का सौदा करती थी. उसके हित आगे चल कर और ज्यादा विस्तृत हो गए थे. उनमें बच्चों की  खातिर का शर्त भी जुड़ने लगा था. थकान से हारे पति को दस नज़रंदाज करने वाले किस्सों को सुनाते हुए उन्हें फरजंदा जरुरी बना दिया करती. क्या यही वो औरत है जिसकी दिलफरेब अदा देख कर मेरे मुंह में नमकीन पानी भर आता था ? 

हैदर ने इरादा किया कि अगर वो अभी उठ कर जाये और पीछे से एक लात उसके कूल्हे पर लगा दे तो क्या हो ? एक लहजे के लिए उसे ख्याल आया कि वो मिटटी के घरौंदे की तरह गिर कर खत्म हो जायेगी.

उसने अपने माथे से पगड़ी खोली और अपना सर झटका और अपने मुंह के सारे पानी को जमा कर उसके सामने ज़मीन पर थूक कर कहा नहीं यह वो औरत नहीं है

एकबारगी लगा जैसे उसने अपने ज़िन्दगी से फरजंदा को थूक दिया हो.

Comments

  1. बड़ी दिल्लगी से लिखी यह कहानी.,...बधाई.
    __________________
    'शब्द-शिखर' : एक वृक्ष देता है 15.70 लाख के बराबर सम्पदा.

    ReplyDelete
  2. ओर मर्द ??? उसे थूकने की सहूलियत औरत को नहीं है शायद ............

    ReplyDelete
  3. डॉ.अनुराग की बात से सहमत... कहानी अच्छी है.

    ReplyDelete
  4. इन समस्याओं को किसी और कोण से भी जताया जा सकता था
    खैर....

    ReplyDelete
  5. हम भी डा. अनुराग से सहमत

    ReplyDelete
  6. हर हैदर के बस में फरजंदा को थूकना मुमकिन नहीं होता...जो लार की तरह बार बार मुंह में आ जाती हो उसे कब तक थूकियेगा...
    बेहतरीन कहानी...

    नीरज

    ReplyDelete
  7. सच कहूँ तो पोस्ट ने निराश किया..
    ..यहाँ पर उद्दृत स्त्री का शारीरिक और चारित्रिक चित्रण बेहद एकाँगी और फ़लतः विकृत हुआ सा लगता है...पर्चुअल कैमरा महिला के प्रति कोई सहानुभूति नही वरन एक जुगुप्सा पैदा करता है...जहाँ एक ओर पति शादी के इतने वर्षों बाद भी स्त्री को एक शरीर से अलग करके नही देख पाता है..वहीँ पति की सेल्फ़िश और बायस्ड मानसिकता के प्रति कोई नकार का चिह्न लेखक की तरफ़ से भी नही दिखता है..इसलिये पोस्ट एकपक्षीय, असाहित्यिक और अपूर्ण लगती है..

    (मेरे अपने विचार मेरी बायस्ड मानसिकता के प्रतीक भी हो सकते हैं..सो ज्यादा ध्यान से न पढ़े जाँय और यहाँ क्रिटिसिज्म को पोस्ट के प्रति समझा जाय न कि लेखक के प्रति):-)

    ReplyDelete
  8. गुज़र रहा था गली से... कि एक फौर्मर गर्ल फ्रेंड का नाम देख कर रुक गया.... यह पास्ट की चीज़ें भी न इंसान कभी भूलता नहीं है.... ग़ज़ब का कॉम्बिनेशन होता है पास्ट और प्रेजेंट में... एक आप जी चुके होते हैं... और दूसरा जीने नहीं देता... वैसे भी गर्ल फ्रेंड्स हमेशा फौर्मर ही होतीं हैं... ख़ैर! कहानी बहुत अच्छी लगी.... कहानी का कौनकीटीनेशन बहुत अच्छा लगा...

    ReplyDelete
  9. art film ki detaiilling se baat shuru hui....hero kya soch raha hai tak gehri jigyaasa paida hui....pehle to heroine hi thoughts aur look ke beech aa rahi thi ..hinderence paida kar rahi thi..baad me pata laga ki thoughts heroine ko hi le kar ke the ..to tab subject saamne tha to kahi aur tak-taki kyo laga rakhi thi??...shuruat to lambi kahani likhne ke hisab se ki thi..lekin laga ki heroine ke baare me thoda bahut likh kar fatafat band kar di gayi..us par chalu bhasha ka masala bhi chatpati chaat banaane ke liye istemaal kar liya gaya ..!!yaar kisi patkatha lekhan ki work shop ke student kahomework sa laga ye to.....

    waise main to itna bhi nahi likh sakta.....

    ReplyDelete
  10. एनोनेमस जी,
    आपने बिलकुल वजेह फ़रमाया की बड़े तबियत से यह लिखना शुरू किया गया था... पूरी डीटेलिंग के साथ... कहानी का प्लाट बहुत अच्छा था... लेकिन मेरी जल्दबाजी की आदत, धैर्यहीन स्वाभाव और दफ्तारिय बाध्यता ने सब किये कराये पर पानी फेर दिया ... ठीक यही हाल २ पोस्ट पहले "जिंदगी... हमको भी हमारी खबर नहीं आती" का भी हुआ... लेकिन यह एक संयोग रहा की उसका treatment सही रहा इसलिए थोडा बहुत सफल रहा... यह शायद सोचले पर की सबसे उम्दा कहानी होती लेकिन ...
    मसलन कई सीन का खाका छूट गया जैसे
    फर्जंदा का खुद उस पर बाल्टी का पानी फैंक देना.. हैदर का उसके साथ गाली गलौज करना .... और भी बहुत कुछ अभी याद नहीं आ रहा... . पोस्ट लम्बी हो जाती लेकिन एक बेहतर कहानी बन सकती थी... लेकिन आईडिया लेकर चल नहीं सका... कई बार तबियत से लिखना शुरू होता है और फिर झटपट निपटाना पड़ता है, (दफ्तारीय परेशानी बहुत आती है, खास कर लिखते ही वक्त, हाँ लिखते ही वक्त, कमबख्त आईडिया भी इसी समय आते हैं )... काश की यह कहानी किशोर चौधरी, दर्पण या कोई और लिख रहे होते शायद यादगार बना सकते हैं... मैं खुद अभी तक रोमांचित हूँ...

    जहाँ तक आपकी मसालेदार संवाद की बात है तो इससे सहमत नहीं हूँ... हैदर का परिवेश देखिये एक वर्ग, एक मानसिक इस्थिति और एक समूह होता है जो औरत के डील-डौल पर ही बात करता है.... खैर.. यह सब मेरे मन की बातें हैं... जरुरी नहीं है सहमति हो ही...

    अंत में यह कहानी मंटो को समर्पित करने का इरादा था. उसका शतांश भी नहीं हुआ इसलिए यह भी स्थगित रहा...
    आपका यह कहना भी सही है की पटकथा सी शुरुआत थी पर कहानी बनी बाद में ब्लोगिया पोस्ट में तब्दील हो गयी. आपने वाकई बड़े अच्छे से कमेन्ट किया है ... एक अच्छी नब्ज़ पकड़ी... आपका बहुत बहुत शुक्रिया

    ReplyDelete
  11. एक पके हुए रिश्ते की बू आती है कहानी से... जिसमें नायक नायिका से अधिक अपने पुरषार्थ से खफा है क्योंकि वो खुद हलाल हुआ नायिका की अन्य रिश्तों को हलाल करने की साजिश में ... ...to me he is a victim!!

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...