रात के बारह बज चुके हैं. सारी ख़बरें कल में तब्दील हो चुकी हैं. न्यूज़ रूम में सोनी ब्राविया के पूर्ण फ्लैट 9 टी.वी. लगे हुए हैं. सभी चैनल एक साथ किकिया रहे हैं. न्यूज़ का फास्ट ट्रैक शेड्यूल चल रहा है. 10 मिनट में 20 बड़ी ख़बरों का विज्ञापन है. ऐसे में दूरदर्शन सपाट खबर दिखा कर सबसे अलग प्रतीत हो रहा है. पिछले कई दिनों से किसी चैनल पर किसी गाँव की खबर नहीं देखी. हम शायद अब टी. वी. पर गाँव की रिपोर्टिंग देखना भी नहीं चाहते. शायद क्या, पक्का नहीं चाहते. पंचायत, परधानी यह सब दूर की बात हो गयी है. हमें अब फिल्में देखते वक्त गरीबी भी अच्छी नहीं लगती.
कलर्ज़ पर बिग बॉस आ रहा है. यह घर देख कर लग रहा है की हिंदुस्तान ऐसा ही चमचमाता होगा. काश मेरे पास अच्छा कैमरा होता तो दिखता की नेशनल स्टेडियम के सामने रात को मजदूर कैसे दुष्यंत कुमार की "नहीं चादर तो पैर से पेट ढक लेंगे" वाली लाइन सिध्ध करते हैं. इस लाईफ स्टायल को सभी जीना चाहते हैं. लोगों की दिलचस्पी गोसिप में किस कदर बढ़ी हुई है. मेरे सामने वाले डेस्क पर के सहयोगी मेरी हालचाल नहीं लेते लेकिन ऑस्ट्रेलिया पर विशेषज्ञता उनको न्यूज़ रूम में विशिष्ट बनाती है. एक हमारे सिनिअर एडिटर हैं उनपर एक प्रोग्राम लोकसभा चैनल पर आ रहा है. मुझे हंस में उनकी एक बहोत वाहियात कहानी याद आती है. कहानी क्या थी थोड़ी सी बस पत्रकारिता की झलक थी. कोमन वेल्थ गेम ने कई और ख़बरों की जगह ले ली है. कागजों की बर्बादी अगर किसी को देखना हो तो न्यूज़ रूम आये. इनके बाप की जाती तो समझते, मेरी आत्मा कटती है.
मैंने सामजिक सरोकार से जुडी एक खबर बड़े तबियत से बनायीं है. आखिरी गत्ते पर लग कर बुलेटिन के लिए वो जा तो रहा है पर हर बार लौट का वापस आ जा रहा है. आखिरकार जाने क्या सोच कर मैंने उस खबर को खुद के अक्स से जोड़ लिया है. उसका बार बार बिना पढ़े लौटना मुझे अपने खाली हाथ लौटना जैसा लग रहा है. अमृता प्रीतम ने शायद कुछ ऐसा ही सोच कर अपने किताब का नाम रसीदी टिकट रखा होगा.
मैंने अपनी एक पुरानी प्रेमिका को खबर कर उसका नाम एफ़ एम पर अनाउंस करवा दिया है. उसके नाम से समर्पित एक गीत "तेरे बिना बेसुवादी- बेसुवादी रतिया" चल उठा है. वो बहुत खुश है. अपने पति की बाहों में लेटी हुई इस वक्त वो एक पल तो मेरे बारे में सोची ही होगी. शायद इससे ज्यादा मैं उसे कुछ दे भी नहीं सकता था. अपनी - अपनी औकात है प्यारे...
बुलेटिन के बाद बालकनी में सिगरेट पीना सबसे अच्छा अनुभव है. पांचवे मंजिल से कनाट प्लेस, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, योजना भवन, पी टी आई और कई मंत्रालयों को आधी रात के आगोश में देखना रूमानी अनुभव है. दिल्ली की सड़कें खाली हैं. दिन में यही मंत्रालय भ्रष्टाचार का अभेद किला लगता है. जेब में पैसे हो और धक्के ना खाने पड़े तो दिल्ली वाकई एक खुबसूरत शहर है.
बंगला साहिब पर रात के ढाई बजे चाय पीना भी खुद के लिए एक सुखद एहसास है. दुधिया रौशनी में सफ़ेद संगमरमर ताजमहल सा लग रहा है. सामूहिक प्रार्थना गूंज रही है:
" सहस्यनान पालक वोहे ता एक्क ना चल्ले नाल
किव सचियारा होइए किव पूरे टुट्टे पाल
हुकुम रचाई चलनां, नानक लिख्या नाल "
अभी कुछ महीनो में ठंढ शुरू हो जायेगी. पिछले साल दिसंबर की हड्डियाँ जमा देने वाली सर्दी में आधी रात को ड्यूटी के बाद दफ्तर की गाडी ठुकराकर अपनी मस्ती में लारी में हवा खाते वक़्त वापस आने में एक ख्याल आया था .. इसी तरह रोज़ के लिए जैक भी अटलांटिक महासागर में गल गया होगा मगर मैं किस चीज़ के लिए गल रहा हूँ ?
इस वक्त मैं वहीँ खड़ा हूँ जहाँ रंग दे बसंती की शूटिंग हुई थी. और यही तस्वीर फिल्म में दिखाई गयी है. इधर स्टूडियो में फेडर दे दी गयी है : यह आकाशवाणी है, अब आप आशा निवेदी से समाचार सुनिए ...
कुछ घंटे में सुबह हो जायेगी और हर इमारत पर सूरज के साथ तिरंगा खिल उठेगा.
कुछ घंटे में सुबह हो जायेगी और हर इमारत पर सूरज के साथ तिरंगा खिल उठेगा.
तुम्हारी इस पोस्ट ने दिल को बहुत गहरे तक स्पर्श किया है बन्धु....तुम्हारे ब्लॉग पर पढ़ी गयी दिलकश पोस्टों में से एक
ReplyDeletenight सिफ्ट मेरे कुछ कुछ जागने जैसा और कुछ कुछ खोने जैसा रहा है...जब निकलते हैं तो थके हारे घर की याद सताती है तो कभी कोई चेहरा ही याद आता है...अक्सर मैं भी पैदल निकला हूँ अकेले घर को ऑफिस से......
ReplyDelete"...उसका बार बार बिना पढ़े लौटना मुझे अपने खाली हाथ लौटना जैसा लग रहा है. अमृता प्रीतम ने शायद कुछ ऐसा ही सोच कर अपने किताब का नाम रसीदी टिकट रखा होगा."
ReplyDelete"...जेब में पैसे हो और धक्के ना खाने पड़े तो दिल्ली वाकई एक खुबसूरत शहर है."
...
और कुछ नहीं कहूँगी सागर, पर तुम कभी-कभी इतना दुखी क्यों कर देते हो? क्यों शब्दों के नश्तर दिल में इतने भीतर तक बेध देते हो कि वो छलनी ही हो जाए...
वैसे ही ज़िंदगी में दुःख कम हैं क्या?
ओह! उतर गई लेखनी सीधे भीतर तक...
ReplyDeleteतुम्हारी बेहतरीन और जेनुइन राइटिंग का नमूना है..खैर रातें होती ही ऐसी हैं...गुड वर्क! :-)
ReplyDeleteBehtareen ....seedhe dil mein utar gayi......gud job.....aisi hi dil ko chhuti poste likha karo......
ReplyDeleteदुष्यंत की ही दो और पंक्तियाँ याद आती हैं.
ReplyDeleteउफ़ नहीं की उजड़ गए
लोग सचमुच गरीब हैं
---------
जेब में पैसे हो और धक्के ना खाने पड़े तो दिल्ली वाकई एक खुबसूरत शहर है. - ये पंक्ति कहीं गहरे चोट करती है. वैसे देखो खूबसूरती देखने के लिए जरूरी है कि पैसे हों, थोड़ा बहुत ही सही...वर्ना किसी को खूबसूरत चाँद, किसी को रोटी का टुकड़ा नज़र आता है.
कोई भी शहर खूबसूरत लगने की दो शर्तें हैं...दो में से एक भी पूरा हो तो शहर खूबसूरत लग सकता है...प्यार हो, या फिर पैसे हों.
दिल्ली का सच्चा चित्र...सागर की नज़र से.
वाह !! बेहतरीन रिपोर्टिंग... सच्ची पत्रकारिता... पर अफ़सोस कि ऐसी तबियत से लिखी हुई रिपोर्ट्स अक्सर बुलेटिन से बिना पढ़े बैरंग ही लौट आती हैं... क्यूँकि जैसा आपने कहा लोग ऐसी ख़बरें शायद देखना-सुनना ही नहीं चाहते... "शायद क्या, पक्का नहीं चाहते"...
ReplyDeleteदुष्यंत कुमार की बात चल रही है तो उनकी कुछ पंक्तियाँ हमें भी याद आ गयीं...
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।
नौटंकी साला...!!!!
ReplyDeleteहम शायद अब टी. वी. पर गाँव की रिपोर्टिंग देखना भी नहीं चाहते. शायद क्या, पक्का नहीं चाहते. पंचायत, परधानी यह सब दूर की बात हो गयी है. हमें अब फिल्में देखते वक्त गरीबी भी अच्छी नहीं लगती.
ReplyDeleteघावों पर नश्तर चला दिया है आपने....गहरे उतरी ये रिपोर्टिंग.
बेह्तरीन
ReplyDeletei love this.......real sagar!!!!!!!!!!
ReplyDeleteइस छोटी सी पोस्ट में मानो ज़िन्दगी का चक्र अपना एक वृत्त पूरा कर लेता है.आपकी बेहतरीन रचना..
ReplyDeleteतुम्हे पढते-पढते झटके लगते हैं !
ReplyDeleteआज के दौर का इन्सां वहां होता है जहाँ नहीं होता.
ReplyDeleteसागर की गहराई का अंदाजा आज महसूस हुआ ,बहुत अच्छा लगा लगे रहो पत्रकारिता की दुनिया का एक करवा सच यह भी है,ब्लांग का उपयोग करो मन शांत रहेगा। वैसे तुम्हारा मोबाईल लगातार बंद बता रहा है पिछले कई माह से बात नही हो पा रही है।
ReplyDeleteआँखों के सामने बहती हुयी एक पटकथा। बहुत ही सुन्दर।
ReplyDeleteदूर खड़े होकर स्वयम को कितने नजदीक से देखने में समर्थ हो!!
ReplyDeletelove it
ReplyDeleteबड़ी देर से ’सोचालय’ में बैठा ’सोच’ कर रहा हूँ....घूमता-फिरता इस पोस्ट पर तनिक ठिठक कर रह गया, सोचा तुम्हे बताता चलूँ।
ReplyDelete