Skip to main content

नैराश्य

 
डोर है ?  डोर ही तो है. नहीं ? हाँ सचमुच. डोर ही है. कम से कम डोर जैसी तो जरूर है. जब तक हमारे हाथों में थी कैसी तनी हुई थी. दोनों सिरों  ने खिंचा हुआ था. उसकी दाग उँगलियों में है.  कैसी जीवंत लगती, हर वक़्त बोलते, अपने उपस्थिति का अहसास दिलाते... ऊब तो जाता ही था, गुस्सा आता था उसपर ...  अभी नहीं है तो एक पल को चैन तो आया...

*****
लेकिन अब ? अब क्या करें, आवाज़ बगैर घर सूना हो गया है.... आवाज़ थी, कंठ से फूटती, छनाके के साथ फर्श पर गिरती कभी कानों से टकराती. प्यार के बोल होते तो चिन्न - चिन्न हो जाते और कठोर बोल होते तो रेशा रेशा उधड़ जाता. जो भी, जब भी छूट कर/टूट कर गिरी है तो पूरे बदन में जैसे लोच आ गयी है... कैसी अलसाई सी पड़ी है ...बस करवटों की कुछ सलवटें उभरी हैं बदन में, अरे एक हल्का सा पेट का मरोड़ है. अभी ठीक हो जायेगा. देखना एक पल में कैसे झक से आँखें खोल बोल पड़ेगी... तुम खामखाँ शोक मानते हो... यकीन नहीं होता, निष्प्राण है.

*****
मैं अगर पतंग था तो वो तो मांजा जैसी थी... कैसे हाथ काट डाले हैं उसने देखो तो !
इस रास्ते से पिछली बार गुजरी होगी तो क्या सोचा होगा की अबकी लोग काँधे पर उठाये हुए ले जायेंगे ?

*****
चिता का अम्बार छोटा होता जा रहा है. आग की लाह आधे किलोमीटर दूर तक भी लगती है... मैं बेटा हूँ ना, पास रहना पड़ता है. तपिश झेली नहीं जाती... लगता है अभी हुमक के दुलार करेगी, आग की लपटों में उसकी ममता की बाढ़ ही तो है, देखो कैसी लपकती उठती है. लग रहा है मेरी खाल भी पिघल जाएगी.. कैसा नैराश्य है जीवन ! भूख मर गयी है. मन सहित मुंह का जायका बेस्वाद हो चला है. नदी किनारे का यह रूप इससे पहले कभी देखा ना था...

 *****
साढ़े तीन से चार घंटे लगे जलने में... बाल तो छन से जल गए. बांकी गल कर तिहाई हो गयी है. पेट का यह हिस्सा नहीं जलता... इसे गंगा में प्रवाहित करना पड़ेगा. आग का काम हर हाल में जलना ही होता है सो जला रही है. चिता के उस प़र की नदी थरथरा रही है.

... और इधर फिर से यह सब याद कर मेरी दुनिया भी.

Comments

  1. पता नही हम सब इतने दर्द के सौदागर क्यों होते हैं..मगर यह पढ़ना ऐसा लगता है ज्यों सागर से सौ कोस दूर सहरा मे कोई प्यास से पल-पल कर मर रहा हो..और लिखना ऐसा लगता है ज्यों कोई सीने पर सुई से तिल-तिल सुराख कर रहा हो...जब इतनी भूखी होती है आग..तो यह उन स्मृतियों को भी क्यूँ नही खा जाती है..जिनकी जलन के फफोले दिमाग मे गर्म दाग से रिसते रहते हैं..कभी रेत पर कभी कागज पर...यह कलम दर्द देती है डियर..ऐसे तुम से तो तुम ’वैसे’ ही भले हो..
    न जाने कितने रास्तों से हमारा भी गुजरना बस आखिरी बार हो चुका होगा..
    "इस रास्ते से पिछली बार गुजरी होगी तो क्या सोचा होगा कि अबकी लोग काँधे पर उठाये हुए ले जायेंगे ?"

    यह तपिश अब जला कर छोड़ेगी पूरा..और आगजनी का इल्ज़ाम तुम पे होगा..सागर!!

    ReplyDelete
  2. मुझे पता है कैसा लगता है किसी का पल भर में देह से मृत देह में बदल जाना?... और फिर उसका ना होना ही उसका होना हो जाता है.

    ReplyDelete
  3. जीवन सूर्य अस्त हो जाने पे सिर्फ यादों की दिवस लालिमा ही शेष रह जाती है.पुन:कोई कभी दिखाई नहीं देता..मौत का फ़रिश्ता बहुत निर्मम मलाह है.कश्ती इहलोक से परलोक तक ले जाता है..पर स्मृतियाँ यहीं हृदय में छोड़ जाता है...ज़िन्दगी की क्रूर हकीकत बयां करती रचना जो उदासियाँ और बढ़ा गयी...इस तरह न लिखा करो...

    ReplyDelete
  4. Uf! Naa jane aise kitne waqyaat yaad dila diye aaj aapne! Aaisaa hee to lagtaa hai...lagtaa tha...aise likha hai,jaise zubaan kee baat chheen lee ho!

    ReplyDelete
  5. यथार्थ के भी कई मिथ है ...कई मिथक ....हम सबसे परिचित है पर जानते बूझते भी कई चीजों से पीठ फेरे खड़े रहते है ....जब अचानक सामना होता है तो दिल जैसे डूबने लगता है ......
    ओर इस दुनिया से वैराग्य ....वापस इस दुनिया में उसी शिद्दत से रहना बड़ी जद्दो जेहद है.... एक बड़ी अजीब सी फील होती है

    ReplyDelete
  6. अभी कुछ देर पहले इस पोस्ट का मतलब समझा हूँ सागर .......ओर ........

    ReplyDelete
  7. दो बार अलग-अलग टिप्पणी लिख के मिटा दी. हर टिप्पणी में सत्व छूट जा रहा था, सो अपनी सीमा ब्यान करके जा रहा हूँ. सागर भाई, काश गुरुदत्त को लंबी जिंदगी नसीब हुई होती.....

    ReplyDelete
  8. इस रास्ते से पिछली बार गुजरी होगी तो क्या सोचा होगा की अबकी लोग काँधे पर उठाये हुए ले जायेंगे ?
    ---
    कभी पता भी चलता है...कि आखिरी बार है. जब ये पोस्ट पढ़ी थी कुछ कह नहीं पायी थी...जिंदगी के बेहद करीब लगी थी. खुद का जिया हुआ...दुख हुआ...टूटा हुआ.
    सच में...कभी पता नहीं चलता कि कब आखिरी बार है.

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...