पहाड़ से जब धुएं वाली गंगा उतरती होगी तुम बड़े से पत्थर पर अपनी गुडिया लिए उधर ही देखना मैं आता दिखूंगा. झरने से कोई बूंद छिटका करेगी. तुम बाल बांधोगी और कोई बाल बंधने से रह जायेगा और जब भी हुमक के इतराओगी आइना देखकर कि मैंने सबको बाँध लिया किसी किनारे के उड़ता, फडफडाता कोई अकेला तिनका तुम्हें चिढ़ता हुआ मिलेगा. यह सब करते हुए आईने में देखना तब मैं आता हुआ दिखूंगा.
दिन के किसी बेहद ठुकराए हुए पल जो दर्ज करने लायक ना हो, जब अपने दांतों पर जीभ फेरना और महसूस करना कि सुबह दातुन करते हुए अमुक-अमुक मसूड़े में चोट लगी है और वो उभर आया है, तुम्हारे पैर के अंगूठे में जब किसी रोज़ सुबह-सुबह चोट लगे और शाम तक वहीँ ठोकर लग लग के लहुलुहान हो जाये तो अनुमान लगाना कि कम ऑक्सीजन वाले उचाई पर चूल्हे में जलावन अब तक घट चुका होगा तब मैं आता दिखूंगा.
तुम्हें तो पूरे सहूलियत और करीने से ख़त लिखता हूँ. फिर भी कोई अगर खोल कर उसे पढ़ ले तो चिंता मत करना. महीने के आखिरी दिनों में शहर से चीनी का टिन भेज पूरे परिवार को खुश कर दूंगा.
यहाँ फेक्ट्री में कभी कभार हथौरी ऊँगली पर ही बरज जाती है पर यह काम उतना चुनौतीपूर्ण नहीं है तुम आँखें छोटी कर मुझसे यूँ बातें करना जैसे कोई चुनौतीपूर्ण काम हो या मेरी कुव्वत नाप रही हो. जब तुम्हारे सूजे हुए गालों पर महीन लकीरें अनुभव से उग आई हों तब मैं आता दिखूंगा.
गीली मिटटी से पर खड़े दीवार वाली गली से आता दिखूंगा सातों केस जीतता हुआ. तुम खेत में अगली सुबह रस्सी लटका देना और मुन्ने को एक छोटी सी लकड़ी से स्टील वाली चक्की बाँध कर दे देना, छू से भागेगा गली में तो गुलाबी पैर के प्यार टपकेगा आगे वाले हर झगडे ख़तम हो जायेंगे, उसके माथे का टीका और गले का चाँद चमकेगा तो अंतिम चेतावनी देती इंटरसिटी सुकून से पकड़ सकूँगा.
सही मायने में तभी आता दिखूंगा.
गीली मिटटी से पर खड़े दीवार वाली गली से आता दिखूंगा सातों केस जीतता हुआ. तुम खेत में अगली सुबह रस्सी लटका देना और मुन्ने को एक छोटी सी लकड़ी से स्टील वाली चक्की बाँध कर दे देना, छू से भागेगा गली में तो गुलाबी पैर के प्यार टपकेगा आगे वाले हर झगडे ख़तम हो जायेंगे, उसके माथे का टीका और गले का चाँद चमकेगा तो अंतिम चेतावनी देती इंटरसिटी सुकून से पकड़ सकूँगा.
ReplyDeleteAapne to bhaav vibhor kar diya!
एक कसक है ऐसी..दिल की हूक जैसे कलम बन जाती हो..लिखी जाती हो रगों मे दौड़ते बेचैनी की रोशनाई से रत्त्ती-रत्त्ती...कोई तो बाँचे..और वो भी ऐसे कि रात के आसमान को कागज सा पूरा पढ़ डाले..अपने देस मे..शाम वाले सिरे से सुबह वाले कोने तक..रात भर दिल जलता रहे किसी रात भर दुआरे धरे धुँआये दीप जैसा.कि कोई तो आयेगा....दिल तितली होता तो उड़ा ले जाती अपने देस की हवा उसे अपनी रवानगी मे..जहाँ एक उम्मीद का गुंचा रोज सुबेह-सबेरे से ही रस्ता तकने बैठ जाता होगा..और ढल जाता होगा शाम के सूरज के साथ..आखिरी बार..मगर रोज जलावन यूं ही सुलग-सुलग खतम होता रहता होगा..और गालों पे अनुभव की लकीरें गाढ़ी होती रहती होंगी..कोई नही आयेगा...बस आँखें हैं..बेशरम..जो पत्थर की तरह गड़ी रहती होंगी पहाड़ वाले रस्ते पर..धुँएं वाली गंगा के गुजरने की आस लगाये....
ReplyDeleteदाँतो पे जीभ फेरते..आइना देखते..चूल्हे मे आग फूँकते..कितने तो बहाने होते हैं..उन्हे याद करने के लिये हर लम्हे मे..और फिर याद तो बेशर्म होती है..बिना बहानो के ही दिल के दरवाजे की सांकल पकड़ बैठी रहती है..
मगर रेल सौतन सी होती है..सज-धज के आती है और अपने प्रीतम को ही लूट ले जाती है दूर देस लोहे की डगर पर...धुँआ उड़ाते हुए..बेसरम!
मन बच्चे सी उत्सुकता से रोज उम्मीदों का नगर बसाता है..शाम तक ढ़ह जाने को रेत के ठूह सा..मगर इस नगर मे एक दिन तो खुशियाँ पाँवड़े बिछाती आयेगी..जब लौटती इंटरसिटी का बजर बोलेगा..
..खैर एक शहर से चीनी का एक टिन इधर भी भेज देना भई..अपने भी खुस हो जायेगा..बेभाव! ;-)
@ अपूर्व जी,
ReplyDeleteआप तक मेरा सलाम पंहुचा क्या ? और अगर पहुंचा तो कबूल किया क्या ?
अपूर्व की तरह तो नहीं कह सकता किन्तु हाँ यह बहुत अच्छा है
ReplyDeleteअवलोकन की सूक्ष्मता से पगी पोस्ट।
ReplyDeleteजीवन की उहा-पोह में छोटी छोटी चीज़ों को पाने के लिए संघर्षरत व्यक्ति, परिवार से दूर....हालात और सोच की नकारात्मकता से घिरा हुआ .....अपने प्रियजन को याद कर किस तरह अपने विचारो को सकारात्मक करता है कि हाँ आने वाला कल अच्छा ही होगा....पसंद आया ......जीवन के नज़दीक लिखा आपने
ReplyDelete"अवलोकन की सूक्ष्मता" सही कहा प्रवीण जी ने. और ये सागर ही कर सकता है...ऐसे ही कोई सागर नहीं हो जाता.
ReplyDeleteDiary, Headache, Idea, Nostalgia, Awesome.
ReplyDeleteमेरा पिछला कमेन्ट आपकी पिछली 4 पोस्ट के लिए मना जाए. ऑफिस में सुबह सवेरे की डोज़ है मेरी आपकी पोस्टें. बस वहाँ से कमेन्ट नहीं हो पाते हैं...
ReplyDeleteऔर सच बताऊँ ऐसी पोस्टों पे कमेन्ट किया ही नहीं जाता मुझसे. बस क्या क्या अच्छा लगा ये बताने का मन करता है...
फ़ेस टू फ़ेस लेकिन.
सोचा लय फिर से लय में आता हुआ..
ReplyDeleteहर पैराग्राफ अपनों के दूर होने की क़सक के एक नये बिम्ब को समेटे हुए सा लगा, पहला और आख़री पैरा खासकर बहुत अच्छा लगा... कुछ कड़वाहटें एक टिन चीनी से भी नहीं जाती और कुछ बस एक चुटकी प्यार की मिठास से चली जाती हैं :)
ReplyDeletebahut sundar likha hai aapne...sachmuch aapki kalam bolti hai.
ReplyDeleteसोच के संग बांधता हुआ लेखन...बढ़िया.
ReplyDeleteसटीक अौर साकारात्मक चिंतन के बाद अाते ये शब्द!!
ReplyDeleteआस के इस मोड़ पर बैठना कितना थका देता है...अपने नायक को कहना जल्दी आये.
ReplyDeleteबेहद प्यारा नज़ारा है, थोड़ा काजल लगा दो...नज़र न लग जाए.