अचानक से उम्र और ज्यादा लगने लगी है. चाय पीने के बाद भी चाय पीने की तलब लगी रहती है... खून की कमी से चिडचिडापन बढ़ने लगा है, हर बात का जवाब देने लगा हूँ.. सहनशीलता ख़त्म हो रही है. यादाश्त भी पहले सी नहीं रही ... किसी बस स्टॉप पर रख कर भूल जाता हूँ... हँसते हुए मुंह तो खुलता है पर बंद नहीं हो पाता... चश्मा पहनकर आईने में देखता हूँ अपनी ही पांच-छह आँखें दिखाई देती है... हाथों में स्पर्श देर से पता चलता है. थरथराहट लगी रहती है..
रोज़ सुबह उठकर देख लेता हूँ मेरी पत्नी जिंदा तो है ! वो भी मुझे शायद नींद में चेक कर लेती होगी. हमारे बीच एक अबोला सा डर दाखिल हुए कुछ महीने हो गए हैं... यह डर हम प्रेम की आड़ में वैसे ही अनदेखा करते हैं जैसे बच्चे और समाज हमें कर रहे हैं.. यों कभी-कभी कुछ समाचारपत्र वाले आते हैं जो अपने खाली जगहों को भरने के लिए सबसे नीरस पन्नो पर हमारे भावनाओं को "बुजुर्ग चाहे आपका साथ" या "बड़ों को सम्मान करिए"जैसे दयनीय शीर्षक लिए हमारी शिकायतों से कुछ वाक्य कोट कर लेते हैं. ये सब भी घरों में उब की हद तक अलसाए दोपहरी में गर्भवती महिलायें ही पढ़ती हैं जो उस समय में पति के दफ्तर और परिवार के अन्य सदस्यों के घर से बाहर या इधर उधर रहने से खुद को हमारी तरह अकेला पाती हैं ... दोपहर की उबन इस दौरान उन पर इस कदर हावी होती है की उस वक्त ना तो हेल्दी पोस्टर वाला बच्चा उनको उत्साहित करता है ना ही टी वी पर आता सास बहू का सिरिअल.
अकेलापन कुछ ऐसा है कि साथ चलते हुए सब कुछ खामोश लगता है. मेरी छड़ी, मेरी घडी, कलाई पर के पके बाल, कपडे यहाँ तक की मेरी धड़कन भी मरी हुई चाल चलती है. खुद मेरी पत्नी भी चुप-चुप मुझे नोटिस करती रहती है... क्या वो नहीं जानती की वो खुद भी बूढी हो रही है लेकिन मेरी हर आदत को गौर से देख कर बाद में किसी बक -बक वाले वक्त में मुझे नैतिक शिक्षा देती रहती है.
मैं अपने बेटे को जब कहता हूँ कि अखबार में "आज से पचास साल पहले" वाले कोलम में क्या छपा है तो वो खीझ जाता है. उसे अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने, दफ्तर सँभालने और सारी सुविधाओं के बीच खीझ आती है हालांकि वो थोड़ी देर के लिए मुकेश अम्बानी, अमिताभ बच्चन, अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर को टी वी स्क्रीन पर देख कर जोश में आ जाता है, उनकी कहानियां उसे बहुत प्रेरित करती है (बेटे, यह प्रेरणा भी हमेशा के लिए होती तो मुझे संतोष होता) लेकिन जब मैं उसे बताता हूँ की प्रभात फेरियों में तक़रीर करने के बाद हम मोहल्ले के कूड़े कचड़े साफ़ करते थे, रात में पढने से पहले सुबह खेतों में कुदाल चला कर उगाये हुए लाल साग मण्डी में बेचकर बचाए हुए पैसे (पैसों नहीं, तब यह विकसित भारत इतना मंहगा कहाँ था) से किरासन तेल खरीदने से लेकर लालटेन साफ़ करने तक का सफ़र उसे प्रेरित नहीं कर पाते...
आज बिस्तर से उठ कर रिमोट खोजने में वो खीझ जाता है. हमेशा झल्लाए हुए बात करता है. दुनिया कितनी आगे चली गयी है ? ऐसा क्या है जो वो (वो ही क्यों) लोग या दुनिया आखिर ऐसा क्या कर रही है जो यह हालत है ? ऐसा क्या है, क्या घट रहा है जो मैं नहीं समझ पा रहा हूँ ?
पिछले कुछ बरस से लगातार मैंने खुद को "ज़माना बदल गया है' जैसे यथार्थ पूर्ण वाक्य दोहराकर इस बदली दुनिया से तालमेल बिठाने का प्रयास कर रहा हूँ... लेकिन सफल नहीं हो पा रहा. हम (मैं और मेरी पत्नी) दोनों एक दूसरे को दिन में सात से आठ बार याद दिलाना नहीं भूलते की दुनिया बदल चुकी है और तुम्हारी मानसिकता से यह नहीं चलेगी.
लेकिन हर बार यही लगता है यह लाइन हमारी बातचीत का निष्कर्ष भर है और जो पहले बोल दे वो जीत जाएगा.
घर के लोग कहते हैं हम दोनों बच्चों से लड़ते हैं जबकि हम परिपक्व बहस करना चाहते हैं. अपने बच्चों के मुंह के अपने को बच्चा सुनना क्या कम अपमानजनक है? दिखने में भले हम किसी होम स्वीट होम में नहीं रहते हों लेकिन गाहे बगाहे घर के लोग अपमान का एहसास दिला ही देते हैं.
साहित्य में झंडे गाड़ने वाली मेरी बेटी अक्सर मेरा हाथ सूंघ कर कहती है बाबा आपका हाथ चूल्हे से उठते धुंए सा महकता है. ऐसी कमाल की उपमाएं देने वाले नस्ल (जिनको दुनिया हैरत की नज़र से देखती है) साक्षात्कार के दौरान अपनी ओबजर्वेशन को महान बताती है जबकि उसकी कई कहानियों, जुमलों, शब्दों के प्रेरणाश्रोत हमीं रहे हैं लेकिन तब हमें परदे के पीछे धकेल दिया जाता है... आजकल भावुकता भी अति सम्मान देने पर ही उभरती है जैसे मेरी बेटी रेड कारपेट पर भावुक हो जाती है और मेरा बेटा अपने बेटे को एयर कंडीशंड स्कूल में दाखिल करा कर...
उपरोक्त बातें जब मैं अपनी पत्नी से कहता हूँ तो उसके जवाब में वो अपने घिसे - टूटे दाँतों के बल जोर लगा कर कहती है "तुम भी बदल रहे हो, अब क्रेडिट लेने की चाह तुममे भी आ रही है"
मैं उसे समझाना चाहता हूँ कि नहीं ऐसा नहीं है, मेरी बातों को समझने की... (लेकिन) ...
"सचमुच ज़माना बदल रहा है"
इस तरह, सहमति से निकलने वाले इस निष्कर्ष को वो एक बार फिर से पहले कह कर इस बहस (मेरे लिए अभी का सबसे बड़ा जद्दोजेहद) को जीत लेती है.
यही है आज का सत्य। अभी कुछ वर्ष पहले तक तो ऐसा नहीं था। परिवार के बड़ों का घर में पूर्ण सम्मान था। केरियर की आंधी ने हम सबको व्यक्तिवादी बना दिया है जिसमें अब बुढापे और रिश्तों का कोई स्थान नहीं है। अच्छा लिखा है।
ReplyDeletebahut sahi baat sahajta ke saath likhe hain.achcha laga.
ReplyDeleteज़माने के अनुभव ने बहुत कुछ सीखा दिया है सागर भाई ....
ReplyDelete"सचमुच ज़माना बदल रहा है"
बेड पर हर सुबह remote कही खो जाता है ..कभी चादोरो के बीच या कभी कभी तकिये के खोली के अन्दर ...रात भर पैरो से टकराता रहेगा और देर रात जब मुझे Satan सुनीता देखना हो तो गायब हो जाता है
ReplyDeleteअभी तुम्हें पढते हुए दीपाली नाग की गाई भैरवी ठुमरी सुन रही हूँ. अजब काम्बिनेशन है.
ReplyDeleteतुम लिखते हो तो ऐसा लगता है कि ये तुम पर ही गुजरी है. मैं भी उसको पढ़कर जीने की कोशिश करती हूँ और सोचती हूँ कि तुम कैसे इतना स्वाभाविक लिख लेते हो...? क्या तुम एक साथ कई जिंदगियां जीते हो? या तुम्हारे अंदर एक साथ कई व्यक्तित्व समाये हुए हैं? या ये लोग जिनके बारे में तुम लिखते हो सपने में आकर तुम्हें कुछ बता जाते हैं? या भूत-प्रेत की तरह तुम्हारे आस-पास टहलते रहते हैं?
बड़ी सीधी सपाट भाषा में आपने सत्य दिखा दिया समाज का। हम भी कभी इन परिस्थितियों से होकर निकलेंगे, यह भूलकर व्यवहार करने लगते हैं हम। वृद्धजन जब तक सम्मानित न जीयेंगे, समाज अपनी परिपक्वता न पायेगा।
ReplyDeleteकितनी बार होता है की हम अपने बड़े बुज़ुर्गों से ऐसे खीझ के बात करते हैं... बाद में उस बात का एहसास भी होता है और पछतावा भी फिर भी अपने काम के बोझ का बहाना बना कर अपना अपराधबोध दूर करने के लिये ख़ुद को सफ़ाई दे देते हैं की फलां फलां वजह से हमने ऐसा बर्ताव करा... कुछ दिन ठीक रहते हैं और फिर वही रवैया... पर जब ऐसा कुछ पढ़ते हैं तो सच में ख़ुद पे शर्म आती है...
ReplyDeleteपर सागर साहब आपकी लेखनी की दाद देनी पड़ेगी जो इस उम्र में एक बुज़ुर्ग के नज़रिए से दुनिया दिखा दी आपने... कैसे जी पाते हैं आप इतने सारे किरदार एक साथ ?
बात बड़ी अच्छी कही रे प्यारे..
ReplyDeleteapne dard pe ahr koi likh sakta hai saccha lekhar wo hai jo aapki tarah auron ke dard ko likh sake
ReplyDeletehttp://pyasasajal.blogspot.com/2010/10/blog-post.html
ReplyDeleteaisi hi kuch koshish humne ki thi
सचमुच ज़माना बदल रहा है"
ReplyDeleteसच बताऊँ तो आपको पढ़ते हुए डर लगता है| कमेन्ट नहीं कर पाता, सोचता हूँ , यार इस राइटर को पूरा पढूंगा तो मैं जिंदगी से निराश हो जाऊंगा| लाइनें चलती जाती है , निर्मल वर्मा की तरह, एकाकी|
ReplyDelete"सचमुच ज़माना बदल रहा है"
ReplyDelete...और हम लोग कहीं पीछे छुट गए हैं.
शुभकामनायें.
सच मच दिल काँप जाता है .. आपका ये लेख बहुत कुछ कह गया.. सच में जमाना बदल गया है..
ReplyDeleteजाती हुई पीढ़ी के दर्द की गठरी दिन प्रतिदिन भारी होती जा रही है और कंधे और आँखे झुके जा रहे हैं...
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