माथे पर जब भी ठीक से टीका नहीं लगा तो मन वहीँ अटका. बस नहीं पकड़ सका तो बड़ी कोफ़्त हुई. नल में पानी नहीं आया तो 4 घंटे उसके फ़िक्र में खोया रहा. रात भर बिजली नहीं रही तो रात के कई घंटे उसके गौरो फ़िक्र में रहा.
अक्सरहां ऐसा होता है जो हो जाता है उस पर नहीं सोचते और जो नहीं होता वो घर बना कर बैठ जाता है. यह डर नहीं है ना ही कोई पूर्वाग्रह बल्कि कई बात तो सफलता पूर्वाग्रह कि तरह आता है. जब काम करने को हुए तो पहले कि सफलता से हो गए काम याद आते हैं. हमने कभी उतना नहीं सोचा. सोचा तो बस इतना कि देखे अबकी क्या होता है या इस बार ऐसा करूँ तो कैसा होता है ? यहाँ सफलतापूर्वक पहले हुआ ठीक यही काम एक पल के लिए दिमाग मैं कौंधता है पर उससे संतुष्टि मिली थी और नहीं होना बेचैनी देता है.
मैं कह सकता हूँ कि ये ना होना कई और चीजें होने कि वजह बनती हैं.
विचारशून्यता का होना, विचार का होना, उसे कहना और उस पर अमल करना यह सब अलग - अलग बातें हैं ठीक वैसे ही जैसे घर में दर्जनों ए.सी. लगाकर पर्यावरण में चिंता जताते हुए इस मुद्दे को बड़ा बताना और इसके लिए किसी कैम्पेन में शामिल होने की गुहार करना.
समझदार लोग चिंता करने को बुरा बताते हुए निश्चिन्त होकर जीने कि सलाह देते हैं, खुश रहने के टिप्स देते हैं यह वे लोग है जिंदगी को बेफिक्री और बिंदास जीने को कहते हैं अलबत्ता यह काम वो संजीदगी से कर रहे होते हैं.
कोई मेरे मन के आँगन में आ कर देखे कि उलझने कैसे चूजे बन कर अपने नन्हे नन्हे क़दमों से चहचहाते हैं.
किसी चीज़ को परिभाषित ना कर पाना कैसी अक्षमता है. फिर काहे का पढना और इत्ती सारी बातें ? बातें बहुत हो जाती है, चर्चाएँ और बहसें निकल जाती हैं और जब किसी निष्कर्ष पर जाना हो तो चौराहा आ जाता है. नहीं, इसे चौराहा क्यों दसराहा कहना उचित होगा. पर यह भी तो कोई निष्कर्ष नहीं. केलकुलस में अक्सरहां पढ़ते रहे 'एक्स टेंड्स टू जीरो' {X → 0} लेकिन मास्टर ने यह नहीं बताया कि लाइफ टेंड्स टू किधर ?
दिमाग में संलयन होना चाहिए पर होता विखंडन है पर इससे भी इतर यहाँ इस प्रक्रिया के दौरान न्यूत्रोन के सिर्फ तीन कण कहाँ हमला करते हैं ? अकेले हम ना जाने कौन से और किसके रथ का पहिया लिए इस चौतरफे (?) (क्या सिर्फ चौतरफा, यह भी सोचना, देखना होगा ) हमले से बचते हुए मारे जाते हैं.
यह सब तुम्हारी याद के बाइस हैं जिसे हमने बड़े दर्द से सींचा है, संजोया है बड़े जतन से, तकलीफ को सहेजा है, पालपोष कर बड़ा किया है एक जवान बेटे कि तरह जो रोज़ दोपहर ढलने के वक्त कोई ना कोई जिद पकड़ता है, रूठ कर, लड़ कर शाम को आवारगी करता है और रात के दस बजते-बजते फिर से घर कि ही मुफ्त में मिलने वाली रोटियां तोड़ रुलाते हुए सुलाता है. हर रोज़ यह सोच कर मैं मरा हूँ कि अब मुझे जीना है.
लाइफ टेंड्स टू किधर...
ReplyDeleteसवाल का जवाब मिले तो बताना मत भूलना.
ज़िन्दगी टेंड्स टू किधर ... पता नहीं ... शायद ज़िन्दगी की ओर ही ...
ReplyDeleteनून मीम राशिद साहब का ये कलाम पढ़ा है आपने ? पढिये और सुनिये भी ज़िया मोहि-उद्-दीन साहब की आवाज़ में http://www.youtube.com/watch?v=V_0qly5ZZl4
ज़िन्दगी से डरते हो ?
ज़िन्दगी तो तुम भी हो
ज़िन्दगी तो हम भी हैं
ज़िन्दगी से डरते हो ?
आदमी से डरते हो ?
आदमी तो तुम भी हो
आदमी तो हम भी हैं
आदमी ज़बां भी है
आदमी बयां भी है
उस से तुम नहीं डरते
हर्फ़ और मानी के
रिश्ता-हाय-आहन से
आदमी है वाबस्ता
आदमी के दामन से
ज़िन्दगी है वाबस्ता
उससे तुम नहीं डरते
अनकही से डरते हो ?
जो अभी नहीं आयी
उस घड़ी से डरते हो ?
उस घड़ी की आमद की
आगही से डरते हो ?
पहले भी तो गुज़रे हैं
दौर नारसाई के,
बेरिया ख़ुदाई के
फिर भी ये समझते हो
हेच आरज़ूमन्दी
ये शब-ए-ज़बाँबंदी
है रह-ए-खुदाबंदी
तुम मगर ये क्या जानो
लब अगर नहीं हिलते
हाथ जाग उठते हैं
हाथ जाग उठते हैं
राह का निशाँ बन कर
नूर की ज़बां बन कर
हाथ बोल उठते हैं
सुबह की अज़ाँ बनकर
रौशनी से डरते हो ?
रौशनी तो तुम भी हो,
रौशनी तो हम भी हैं
रौशनी से डरते हो ?
शहर की फ़सीलों पर
देव का जो साया था
पाक़ हो गया आख़िर
रात का लबादा भी
चाक़ हो गया आख़िर
ख़ाक हो गया आख़िर
अज़-दहाम-ए-इन्सां से
फ़र्द की नवा आयी
ज़ात की सदा आयी
राह-ए-शौक़ में जैसे
राह-रौ का खूँ लपके
इक नया जुनूँ लपके
आदमी छलक उट्ठे
आदमी हँसे देखो,
शहर फिर बसे देखो
तुम अभी से डरते हो ?
हाँ अभी तुम तो भी हो
हाँ अभी तो हम भी हैं
तुम अभी से डरते हो ?
badhiya post.
ReplyDeleteजीवन सदा ही सरलता से आता है और सरलता की ओर बढ़ता है, धीरे धीरे, आप चाहें या न चाहें। बेहतरीन प्रश्न, चिनतन बढ़ाते हुये।
ReplyDeletelove this post man......i still search.for that sagar .....
ReplyDeleteसर्टिफिकेट धारी राईटर हो.. मैं क्या कहू इस पर..??
ReplyDeleteA storm of challenging thoughts!! Soaked! Life is elsewhere...
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