रूम पर लड़की लाना कोई बड़ी बात नहीं थी वो साकेत से उठाई जा सकती थी और आज २ अक्तूबर यानि ड्राई डे को भी दारु को जुगाड़ करना भी कोई बड़ी बात नहीं थी वो मुनिरका से मंगवाई जा सकती थी. बड़ी बात तो अपने साए से पीछा छुड़ाना था. वो डर जो अकेले में आँखें बंद करते ही पैर के अंगूठे को अपने मुंह में लेने लगता है. एक गर्म गलफड़ा अपना भाप छोड़ते हुए बहुत मुलायम लेकिन अघोषित निवाला बनाने लगती है. वो जीव जो रासायनिक प्रयोगशालाओं से निकला लगता है और तमाम हानिकारक अम्ल से लैस है...
...और गर्म गलफड़े में भाप की गर्मी से अंगूठा गायब हो जाता है.
अब तो घुटने पर है ..
यह डर खाए जाता था. सर के ऊपर घूमता पंखा सीने पर गिर जाता और उसकी सारी डालियाँ अलग-अलग हो जाती.. एक पंखा सीने में भी चलता है, थोडा बीमार सा कम वोल्टेज में जैसे चलता हो... जैसे अब प्राण पखेडू उड़ने वाले हों. और यह लगना पिछले कई सालों से चला आ रहा हो और अब यकीन हो चला हो कि अबकी भी मरना नहीं है अलबत्ता मरना महसूस करना है उसकी प्रक्रिया से होते गुज़ारना है.
नीचे देखता तो लगता अब धरती फट जाएगी तो मैं उसमें नहीं समां सकूँगा क्योंकि समाते तो दिव्य लोग हैं. वहां से मैग्मा निकलेगा और मुझे अपने में मिला लेगा.
लेकिन धरती से छुटकारा नहीं था. आसमान में जाया जा सकता था और वहां जाने में अभी वक़्त था पर कितना ? यह बताया नहीं जा सकता. तो उससे सीधा सामना करने के लिए मैं खुले में भी सोया तो लगने लगा कि अब आसमान फट जाएगा और सहस्त्रों साल की बारिश होगी. मेरे को छोड़ कर सारे लोग डूब मरेंगे और मैं किसी महामारी का शिकार होकर मरूँगा. लेकिन इस मरने में भी अभी वक्त था. कितना ? यह पता नहीं .
इस प्रोसेस में थरथराहट होती, सिहरन सी होती जैसे फॉर प्ले में होता है. इसे मैंने कई बार अपनी प्रेमिका में देखा था. अतः मरना, सिहरन था. एक कम्पन था. सेक्स में क्लाइमेक्स का कम्पन. स्खलन से ठीक पहले का रोमांच और एकाग्रता. बिजली के ग्यारह हज़ार वाट से गुजरने का कम्पन के पश्चात् भस्म हो जाना था. किसी मेट्रो के आगे फैंक दिया जाना था. शरीर का तीन लगभग बराबर टुकड़ों में अपने अपने तरफ लुढ़क जाना था. पहाड़ से सख्त चट्टान पर सर के बल फैंक दिया जाना था.
डरना मरना था, और मरना ही डर था. यह आना था. यह लाज़मी था. पर यह ऐसे स्वीकार्य नहीं था. यही लड़ाई थी. डर यह लड़ाई जीत जाया करता था. कई बार हार-जीत के मुहाने पर मैंने प्रतिरोध भी किया था. यह हिंसात्मक रास्ता था. मैंने यथासंभव उसको चोट पहुँचाया था. वह लौटा था बहुत बार. यह डर जिस्म में जैसे-जैसे घुसता मेरा अपनी प्रेमिका को पकड़ना तेज़ हो जाता. अपने डर से भागा हुआ गुज़ारे पलों में अनुभवी मैं और कर भी क्या सकता था (मैं कन्विंस नहीं कर रहा). थोड़ी फिक्रमंद और अपने जिंदगी में खुश उपासना (मेरी प्रेमिका) भी थी लेकिन अकेले में लाख कोशिश करता कि हम दोनों एक-दूसरे को और बेहतर जानें और इस तीन नंबर की ईंट से बनी गली में हाथ पकड़ कर जोर से भागें तो इसके पीछे जिंदगी जीने का उत्साह नहीं था. पीछे था, तो एक उन्मादी भीड़ जिसमें भागते वक्त मेरे जूते भी छूटे थे और उपासना के जेवर भी गिरे थे. भागते हुए हमने एक एक बच्चा भी देखा था मासूम सा अपनी आँखों में गोधरा का खौफनाक हिंसा समेटे.. वहीँ बायीं ओर एक और बच्चा था वो सिर्फ दिखने में बच्चा था हाथ पेशेवर गोश्त काटने वाले जैसे थे और वो यों हंस रहा हो जैसे जाओ यह भीड़ तमाम गलियों का पता जानती हैं और संभव हुआ तो मैं ही इसे लेकर तुमरे पास आऊंगा...
सचमुच, डर से बचने को कोई रास्ता ना था, उपासना पर बहुत प्यार आता तो भी उसके बदन से गुज़रना होता. बदन से गुज़रना तब भी होता जब समर्पण में होता, इबादत में होता, शराब पी कर मर्दाने गुरूर में होता या फिर इस हेलिकोप्टर के पंखे सा सांय-सांय करते डर से...
इससे इतर करने को कुछ भी नहीं था. एक भयंकर उब थी शायद जब खुदा ने सम्भोग बनाया और इसमें सिनेमा के कल्पनालोक जैसा रोमांच भरा. इससे जब भी उबरे फिर वही हेलिकोप्टर का पंखा, सांय-सांय करता डर...
वों किस डर कि बात कर रहे हैं सबके अन्दर है ये तो...हर कोई भाग रहा है इस डर से...और इसी डर से शायद डर कर कोई यहाँ भी अश्लीलता का कमेंट्स मार कर भाग जायेगा...लेकिन बढियां है हमें पसंद है ये डर....ये डर जरुर जाहिर किये जाने चाहिए,.....कब तक भागेंगे हम इससे....
ReplyDeleteसाहित्य के अनछुये पहलुओं को शब्दों के माध्यम से खींच लाने का सफल प्रयास। इतनी बेबाकी से कैसे लिख लेते हैं, एकाग्रता के चरम मानकों के बारे में।
ReplyDeleteआहा..!! ये शब्दों का चक्रव्यूह रच दिया है दोस्त.. अन्दर ही अन्दर घुमते हुए.. खुली आँखों से खड़े रोंगटो को सँभालते हुए पढ़ा.. जबरदस्त कहूँ तो भी कम होगा..
ReplyDeleteसागर........ तुम्हारे इस पोस्ट पे कमेंट बाद मे करुंगा। अभी एक ख्याल ज़ेहन मे आया है। भई ये शराब पीकर ही मर्दानगी के एहसासात क्युं होते हैं आपको। कई पोस्ट मे ये पढ चुका हूं। अब आप समझ सकते है कि आपके पाठक आपको कितनी संजीदगी से पढते हैं।
ReplyDeletewould you like to add somthing apoorva and kush?
satya
शब्दों के भीतरी जंगल में ...घूमना ओर किसी खास सन्दर्भ को सामने रखना खास तौर से उसे जिसे लेकर थोड़ी अजीब किस्म की बाहुदरी चाहिए .....
ReplyDeleteकभी कृशन बलदेव वैद को पढ़ा है ?
आज सोचा की कुछ लिख के ही जाऊं वापस यहाँ से...:)
ReplyDeleteआपको पता तो चले की हम आपकी हर पोस्ट पढ़ भी लेते हैं, इन्तेज़ार भी करते हैं.
सहेलियों वाली पोस्ट भी पढ़ लिया..कमेन्ट यहाँ कर रहा हूँ.
कैसी लगी ये बताने की जुरुरत है क्या ?? :)