"जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहाँपनाह, उसे ना तो आप बदल सकते हैं ना मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले की उँगलियों में बंधी है. कब, कौन, कैसे उठेगा ये कोई नहीं बता सकता है. हाः, हाह, हाह, हाह हा........"
काली पैंट, झक-झक सफ़ेद शर्ट.. और उसके उपर काली हाफ स्वेटर पहने मैं किसी अच्छे रेस्तरां में वायलिन बजने वाला लग रहा हूँ.. कल मैंने म्यूजिक अर्रेंज किया था... १२ लोगों की ओर्केस्ट्रा को जब निर्देश दिया तो सा रे गा मा प ध नी ... सब सिमटते और मिलते जाते थे...
तीन रोज़ पहले जब पुराने झील के किनारे मैं आदतन अपने गाढे अवसाद में बीयर की ठंढे घूँट (चूँकि शराब की इज़ाज़त वहां नहीं है) गटकते हुए एक खास नोट्स तैयार की थी .. तब मेरी वायलिन जिस तरह बजी थी आज लाख चाह कर भी मैं वो धुन नहीं तैयार कर पा रहा हूँ.
दर्द के वायलिन किले में भी सिहरन देती है और हम उन सारे कम्पन को समूची देह में दबाये घूमते हैं.
ट्राफिक पुलिस वाले के लिए चलती रिक्शा का रोक देना कितना आसान होता है.... पर सवारियों को यूँ बिठाये हुए फिर से पहला पैडल मारना बहुत कष्टकारी होता है. भोर की इस सर्द हवा में कलेजा हिल जाता है. त्यागा हुआ पेशाब भी समतल या निचला रास्ता तलाशने लगता है. मैं अपना रिक्शा किसी किसी नोक पर छोड़ दूँ तो वो किधर जायेगा ? इस शहर की कई सड़कें ऊँची हैं.. सरकार हमारे खिलाफ हो गयी है माँ.
हमने चाहता था आसमान की नदी में बाल्टी डूबा कर ढेर सारा बादल तुम्हारी मेज़ पर उड़ेल दूँ... फिर तुम अपने हाथों की चारों उँगलियों में अबीर की तरह वो बादल मेरे गालों पर लगा दो... ऐसा करते ही वक़्त और सीमायें हमें एक दूसरे से दूर कर देती....
अच्छा अगर मेरी बातों को को गुज़ारिश के इथन (नायक) से जोड़ कर ना देखो तो तुम्हें नहीं लगता कि मैं भी एक विकलांग हूँ और बैठे बैठे कल्पनाओं कि कोरी ऊँची- नीची, हरियाले और पथरीली उड़ान भरता रहता हूँ ? कितना बेबस हो जाता हूँ अपनी जगह ईमानदार स्वीकारोक्ति में .... तुम गिड़गिडाने का मतलब समझती हो जिंदगी ? क्या एक ईमानदार वक्तव्य गिड़गिडाता है तो संसद में प्रधानमंत्री जैसा हो जाता है जो प्रतिपक्ष से घोटालों के बीच भी संसंद चलने देने कि गुज़ारिश करता है ?
यह शाम का चार से छह बजना कितना दुर्गम है .. शरीर से जन्मा यह माइग्रेन नवजात बच्चे कि तरह गोद में पांव पटक रहा है. अब इसे ढूध कहाँ से दूँ ...
चन्दन कि लकड़ियाँ बतियाती हैं - क्या लगता है कितनी जल्दी यह हमारी गिरफ्त में होगा ?
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यहाँ का पियानो कितना संगीन है ना माँ ?
शीर्षक इस शेर से...
ReplyDeleteजिंदगी तुने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है
हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, डोर न जाने किसके हाथों में है।
ReplyDeleteबहुत जबरदस्त लिखा है दोस्त..!!
ReplyDeleteयह शाम का चार से छह बजना कितना दुर्गम है .. शरीर से जन्मा यह माइग्रेन नवजात बच्चे कि तरह गोद में पांव पटक रहा है. अब इसे ढूध कहाँ से दूँ ...
Ultimate..!!!
"ट्राफिक पुलिस वाले के लिए चलती रिक्शा का रोक देना कितना आसान होता है.... पर सवारियों को यूँ बिठाये हुए फिर से पहला पैडल मारना बहुत कष्टकारी होता है."
ReplyDeleteये छोटी छोटी चीजें हमारी संवेदना को दिखाते हैं| अगर ये सब बातें लोगों को नज़र नहीं आती तो देश, दुनिया बदलने की बात करना फ़िज़ूल है|
प्रभावी लेख|
चन्दन कि लकड़ियाँ बतियाती हैं - क्या लगता है कितनी जल्दी यह हमारी गिरफ्त में होगा
ReplyDeleteवाह...गज़ब का लेख...पढते वक्त आपको अपने से ही अलग कर देता है...अद्भुत..
नीरज
कभी कभी दिल करता है की मै रिक्शा चलानेवाला होता
ReplyDeleteकही भी जाओ , या न जाओ
कोई deadlines नहीं होते.
ladies सवारियों को समझना कीसी clients के design brief से समझना से कही ज्यादा आसान लगता
ट्राफिक पुलिस वाले के लिए चलती रिक्शा का रोक देना कितना आसान होता है.... पर सवारियों को यूँ बिठाये हुए फिर से पहला पैडल मारना बहुत कष्टकारी होता है. भोर की इस सर्द हवा में कलेजा हिल जाता है. त्यागा हुआ पेशाब भी समतल या निचला रास्ता तलाशने लगता है. मैं अपना रिक्शा किसी किसी नोक पर छोड़ दूँ तो वो किधर जायेगा ? इस शहर की कई सड़कें ऊँची हैं.. सरकार हमारे खिलाफ हो गयी है माँ...........
ReplyDeleteदर्द बस दर्द...पूरी एक पोस्ट में दुनिया भर के दर्द सिमट आए हैं शायद इसलिए की हर के दर्द का भी रंग आशुवों के रंग की तरह एक होता है....
मौसम सच में बाहर से आते हैं या मन के अंदर से...उदास मौसम फरवरी के वसंत में भी तो परेशान कर देते हैं.
ReplyDeleteशाम के छः बजे की उदासी को क्या पता होता है कि ठीक दिन के किस पहर उसे नहीं आना है?