आईने से मुझे नफरत है कि उसमें असली शक्ल नज़र नहीं आती... मैंने जब कभी अपना चेहरा आईने में देखा, मुझे ऐसा लगा कि मेरे चेहरे पर किसी ने कलई कर दी है... लानत भेजो ऐसी वाहियात चीज़ पर... जब आईने नहीं थे, लोग ज्यादा खूबसूरत थे... अब आईने मौजूद हैं, मगर लोग खूबसूरत नहीं रहे...
-----सआदत हसन मंटो
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[जुहू चौपाटी पर का एक कमरा जिसमें चीजें बेतरतीबी से इधर उधर फैली हैं .. हरेक चीज़ इस्तेमाल की हुई लग रही है, बिस्तर पर सुजीत और श्यामा अलग अलग लेटे छत में कोई एक जगह तलाश रहे हैं जहाँ दोनों की निगाह टिक जाए और कहना ना पड़े की "मैं वहीँ रह गया हूँ " ]
सुजीत : उलझी से लटों में कई कहानियों के छल्ले हैं..... मैं एक सिगरेट हूँ और तुम्हारी साँसें मुझे सुलगाती रहती हो. मैं ख़त्म हो रहा हूँ आहिस्ता-आहिस्ता... तुम धुंआ बनकर कोहरे में समा जाती हो... किसी रहस्य की तरह...
श्यामा : तो तुम अपनी सासें कोहरे से खींचते हो ?
सुजीत : हाँ ! तुम ऐसा कह सकती हो, तुम्हारे पूरे वजूद में ही गिरहें हैं...
[श्यामा पलट कर सुजीत के ऊपर चढ़ आती है ]
श्यामा : तो ज़रा सुलझा दो ना !
सुजीत : मेरे बदन का तापमान बढ़ गया है.
श्यामा : (हलके से हँसते हुए) इतने बरस बाद भी ?
सुजीत : तुम इस दुनिया की सबसे हसीनतरीन औरत हो.
श्यामा : सबसे मतलब ? कितनों को जांचा है तुमने ?
सुजीत : कईयों को !
श्यामा : अब मेरी सारी गिरहें खोल दो !
सुजीत : कमबख्त यह कुर्सी भी ऐसे में पैर में ज़यादा लगने लगती है.
[कुर्सी की खटखटाहत बढ़ जाती है]
[तूफ़ान के थोड़ी देर बाद, सुजीत श्यामा पर निढाल पड़ा है, जैसे सपने में किसी ने पहाड़ से नीचे फेक दिया हो, माथे पर पसीने की हलकी चिकनाहट उभर आई है]
श्यामा : कैसा महसूस हो रहा है ?
सुजीत : फिलहाल तो पैरों में कमजोरी लग रही है ?
श्यामा : उम्म्म.... प्यार और सेक्स में क्या फर्क होता है ? जानते हो ?
सुजीत : सेक्स थोड़ी देर का उन्माद होता है; एक क्षणिक पागलपन जो ख़त्म होने के बाद शरीर, शक्ल और बिस्तर से विरक्त हो जाता है, वहीँ प्यार में सेक्स हो जाने के बाद भी मैं तुम्हें बड़े तबियत से जकड़े रहता हूँ.
श्यामा : आदमी और औरत क्या है ?
सुजीत : एक दूसरे को जानने की भूख और ना जान पाने के बाइस एक गैर जिम्मेदाराना उब.
श्यामा : जुहू चौपाटी पर कितने मर्द ऐसी बातें करते होंगे?
सुजीत : दुनिया में कितनी औरत में इतनी शिद्दत होगी.?
श्यामा (कान में) : हम्म... मुझे बना रहे हो !
सुजीत : औरत यह भी होती है, एक वक्त के बाद उसकी महीन-पतली आवाज़ भी गर्माहट देती है.
श्यामा : और आदमी ?
सुजीत : मैं फिर से खोजता हूँ, वैसे यह तुम्हें बताना चाहिए.... क्या कहती हो !
[सुजीत और श्यामा की धीमी हंसी उभरती है और एक साथ शांत हो जाती है. ]
सुजीत : क्या है आदमी ?
श्यामा : सिर्फ अपने सम्बन्ध के आधार पर बताऊँ ?
सुजीत : बता सकोगी ?
[बाहर ट्राफिक का शोर उभारना शुरू होता है जो बढ़ता जाता है ]
[सुजीत और श्यामा छत में फिर से कोई कोमन जगह तलाश रहे हैं]
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* जिज्ञासा, उत्कंठा
उन पलों के बाद क्या जीवन्तता खत्म हो जाती है ? जहां प्यार के मायने सेक्स रह जाता है वह पीड़ी प्यार के मायने कहाँ तलाश करे............ कुछ प्रशन छोड़ता जाता है ये नाटक.......... या फिर विचारों को इतना सबल बनाया जाए कि ऐसे नाटक पढ़ने की बाद खुद के प्रश्नों के उत्तर खुद ही तलाशे जाएँ..........
ReplyDeleteनाटक ? और इसका मंचन कैसे होगा जनाब ? भारतीय नाट्यशास्त्र के अनुसार प्रणय-दृश्य मंचित नहीं किये जा सकते, उन्हें संकेतित मात्र कर दिया जाता है. क्योंकि यह साहित्य की ऐसी विधा है, जो दृश्य होने के कारण सामाजिक है मतलब समाज में बैठकर देखी जाती है, जबकि और साहित्य आप अपने कमरे में अकेले पढ़ते हैं.
ReplyDeleteवैसे मनुष्य के मन को समझना एक कठिन पहेली को सुलझाने जैसा है, जो कि कभी नहीं सुलझती, और उस पर भी स्त्री-पुरुष संबंधों को समझना और भी मुश्किल...
एक नाटक जिसे लिखते हुवे लिखने वाले को अपने उर्दू ना आने पर अफ़सोस हुवा....लेकिन पढ़तेहुवे अपने को कभी अफ़सोस नहीं होता.....शायद ये हमारे दौर का मंटो है.......
ReplyDeleteभई नाटक तो नही है यह..नाटक का एक हिस्सा जरूर मान सकते हैं..हालाँकि आपकी शैली के परिचित तत्वों का पूरा समावेश..(वैसे यह पूछना था कि कहाँ प्ले किया जायेगा यह नाटक..एक टिकट बुक रखना..मज़ा तो आयेगा ना?)
ReplyDelete:-)
बेबाक...
ReplyDeleteएक नाटक, जिसके लिखने में कई दफा अफ़सोस हुआ कि उर्दू आनी चाहिए
ReplyDeleteपढ़कर लगा मंटो साहब को पढ़ रही होऊँ, घटनाओं में वही बेचैनी .. वही यथार्थ
ReplyDelete"सेक्स थोड़ी देर का उन्माद होता है; एक क्षणिक पागलपन जो ख़त्म होने के बाद शरीर, शक्ल और बिस्तर से विरक्त हो जाता है, वहीँ प्यार में सेक्स हो जाने के बाद भी मैं तुम्हें बड़े तबियत से जकड़े रहता हूँ."
बहुत खूब ....
नाटक तो हरगिज़ नहीं लगा.. पर हाँ नाटकीयता ज़रूर लबालब रही इसमें..
ReplyDeleteवैसे दुसरो के कमरे में बहुत झांकते हो प्यारे???
रोचक!
ReplyDeleteभाई…ईमानदारी से कहूं तो सिर्फ़ इतने हिस्से के भरोसे कुछ कह पाना मुश्क़िल है…वैसे जिस तरह से सब शुरु होता है एक तरह एक कलात्मक ऊंचाई से वहां से बड़े झटके से नीचे उतर गया है…अब आगे-पीछे का पढ़ा हुआ हो तो इसका ओर-छोर कुछ खोज पाऊं लेकिन अगर सिर्फ़ इतने के आधार पर पूछोगे तो भैये चमत्कार पैदा करने की लगातार कोशिश ने इसे बस एक सुनी सुनाई बासी सनसनी में बदल दिया है…अन्यथा मत लेना…मैं चाहूंगा कि पूरा पढ़ने के बाद मेरा नज़रिया ज़रूर बदल जाये!
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्तों, नाटक वाली बात बस मोडरेशन चेक करने के वास्ते डाली थी... अलबत्ता बहुत कुछ सीखने को मिला... आपने खुलकर अभी बात कही... मेरे लिए कुछ लिखना कई बार मास्टरी दिखाना नहीं है कुछ सीखना और नब्ज़ पकड़ना भी है...
ReplyDeleteमानता हूँ इसका मंचन संभव नहीं है और तकनिकी खामियां भी हैं... लेकिन अपनी तरफ से यही कहूँगा बातें परेशान करने वाली हैं...
आप लोगों का दिल से धन्यवाद जो चुप नहीं बैठे.