जिंदगी मौत का दीबाचा (भूमिका) है, क्या अजब कि इनको पढ़कर आपको मरने का सलीका आ जाए
----- सआदत हसन मंटो
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बड़े से आँगन के किनारे ढेर सारी अगरबत्तियां जल रही हैं... कुछ लोग खाना खा रहे हैं ... एक आदमी के सामने मैं बैठा हूँ... हालांकि वो खा रहा है फिर भी जबरदस्ती उसे खाने का आग्रह कर रहा हूँ. वो हाथ लगाकर इनकार कर रहा है. मैं ताली बजाकर परोसने वाले को बुलाता हूँ. लड़का बाल्टी ले कर आया है. खाने वाला शोव्ल ओढ़ कर बैठा है.. वो नहीं खाना चाहता ...लड़के के आते ही वो पत्तल लेकर उठ पड़ा है... गीली दाल किनारे से बहने लगा है... वो आदमी अब लगभग उठ खड़ा हुआ है...
मैं उसका हाथ पकड़कर उसे उसकी जगह पर बैठने का जिरह करता हूँ... बहुत मान मनौव्वल के बाद वो बैठ जाता है. वो और खाना लेने से फिर से इनकार कर रहा है. उसका हाथ बार बार उत्तेजना में सख्त मनाही के रूप में उठता है... मैंने जिद बाँध ली है...
पत्तल की दाल अब लगभग ख़त्म हो चुकी है... टप... टप... टप ! जैसे सईदा की पायल .. छम.. छम.. ! छम...छम... !
छिः ! मैं श्राद्ध भोज में भी कैसी बातें सोचता हूँ.
आँगन और बरामदे की लीपी गोबर से हुई है. ताज़ी लिपाई की हलकी सी महक गर्म होती हवा में घुल रही है. आँगन के बाहर द्वार पर झुके हुए रातरानी के पेड़ हैं. नवम्बर में यह शाम साढ़े पांच बजे से ही महकने लगता है, इसकी गंध तीखी है, माथे में चक्कर आता है... सभी लोग नशे में हैं, खाना खा रहे हैं ... नशे में ज्यादा खाते हैं, नशे में खाने से ज्यादा खिलवाड़ करते हैं... नशे में खाने से ज्यादा फैंकते हैं, यह बात मैंने अपने पूर्वजों से सीखी थी.... नशे में लोग सब कुछ ज्यादा करते हैं... मेरा एक दोस्त खुद धतुरा खाने के बाद अपनी बीवी को भी भांग खिलाता है... भांग से ज्यादा वक्त तो जरूर लगता है .. मेरा एक और दोस्त भांग खा कर ज्यादा कवितायेँ पढता है. अमृतेश नशे धुत होकर अपने बहुत पछताता है, मेरा एक दोस्त नशे में शांत हो जाता है, एकदम शांत, मेरा एक और दोस्त (मुझे नाम नहीं याद आ रहा चूकि मैं भी नशे में हूँ) मेरा एक और दोस्त.... ओह ! मेरा एक और दोस्त.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़... (लडखडाई/बौरायी जबान)
मैं कहाँ था... हाँ... खेत में... मेड़ काट रहा था... उस तरफ पानी जाना चाहिए अब... क्या ? ! नहीं ऐसा तो नहीं था... चांदनी रात में खेत में मेड काट कर पानी बहाना कितना सुखद है... लेकिन मैं कहाँ था ? यहाँ तो नहीं था... हाँ मैं अपने बाबा का गर्म शोव्ल पकड़ते चल रहा था... कितना गर्म था वो, दादी के कहानी जैसी.. नर्म सी... माँ जब चूल्हे के पास रोटी बेलती थी तो दोनों हाथों में आधा-आधा दर्जन चूरियां हौले हौले बजती थी.. कैसा संगीत था वो ? उफ्फ्फ... मेरा सर दर्द से फटा जा रहा है... हाँ आराम आ रहा है अब... मैं टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चला जा रहा हूँ ... थोड़ी थोड़ी देर पर सर में अचानक से चक्कर उठता है ... लगता है किसी ने मेरी बुद्धि हर ली है.... चाँद परात में गिरा हुआ है मेरे पैरों के पास... सबको नशे में रहना चाहिए... सूरज चाँद दूर थोड़े ना हैं... होश में आदमी कैसी पागलों वाली बातें करता है... प्लान बनाने लगता है ये चाहिए, वो करना है... फलाना -ढीम्काना.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...
बैठो यार, खा लो थोडा सा और, हाँ ढूधवाले तुम भी पैसा ले लेना... काकी तुमको सत्तर रुपैया देना है ना ... क्या कहा ! दादी ने बाद में ढेड सौ रुपये और लिए थे ... मतलब तुमको तीन सौ रुपये देने हैं. अरे रहने दो ना, सीधा हिसाब - तीन सौ देने हैं .... पीछे से गाडी की आवाज़ आ रही है... हांय ! यह तो ट्रेक्टर है... मादरच *** सारा कीचड हमें पर उड़ा गया... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...
सरकारी स्कूल, इसकी खिड़की के दो रोड तो मैंने ही तोड़े थे... यहाँ से काने हेडमास्टर को गरियाना ... आह ! बचपन फिर से लौट आये... क्लास टीचर चमचमाता कुर्ता पहनते थे ... कितने खिले हुए लगते थे... सांवले से शरीर में बंधा हुआ रेशम लगता था... उसकी बेटी ने मुझे पहली बार तब देखा था जब उसे खजूर के बीज से मारा था.... इनारे के पीछे आधे घंटे बैठे थे... कुल ढाई घंटे तक उसे भगाए रखा था... हडकंप मच गया था उस दिन... .. घंटा ! कहाँ गया था उस दिन अनुशासन का डींग हांकना... पहली बार मेरे कारण स्कूल में आधे दिन पर छुट्टी हुई थी...
जिस साल आम होता है, उसी साल लीची भी आती है... दोनों का क्या रिश्ता है आखिर... अबकी दुर्गा माँ किस पर सवार होकर आ रही है आशिन में, छह महीने तो पानी में ही खेत डूबा रहता है.. गेंहू का रंग कैसा सुनेहरा है, दुनिया क्यों सोने के पीछे मरती है ? गेंहू ... हाँ गेंहू जब पकती है तो माँ के दामन जैसा लगता है जब खड़ी - खड़ी खेत में लहराती है तो ... तो... तो ...
उस पार ले चलोगे नाव वाले ? बदले में अपने गमछे से तुमको कुछ मछली पकड़ कर दूंगा.... यह देखो मछली.. इसका गलफड़ा कितना लाल है, ताज़ा ताज़ा... !! तेरी बेटी की देह से भी मछली की गंध आती है ? शादी करा दो मेरी उससे... गोड़ पड़ता हूँ तुम्हारे ... शादी करा दो उससे मेरी... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
ReplyDeleteरहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे....
अभी नशा चढ़ना शुरू ही हुआ था की ये ख़त्म हो गई...
उफ़ !!! ... सोचालय है या मदिरालय :)
पत्तल की दाल अब लगभग ख़त्म हो चुकी है... टप... टप... टप ! जैसे सईदा की पायल .. छम.. छम.. ! छम...छम... !
ReplyDeleteछिः ! मैं श्राद्ध भोज में भी कैसी बातें सोचता हूँ.
नशे में खाने से ज्यादा फैंकते हैं, यह बात मैंने अपने पूर्वजों से सीखी थी....
मेरा एक और दोस्त (मुझे नाम नहीं याद आ रहा चूकि मैं भी नशे में हूँ) मेरा एक और दोस्त.... ओह ! मेरा एक और दोस्त.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...
माँ जब चूल्हे के पास रोटी बेलती थी तो दोनों हाथों में आधा-आधा दर्जन चूरियां हौले हौले बजती थी.. कैसा संगीत था वो ?
चाँद परात में गिरा हुआ है मेरे पैरों के पास... सबको नशे में रहना चाहिए... सूरज चाँद दूर थोड़े ना हैं... होश में आदमी कैसी पागलों वाली बातें करता है... प्लान बनाने लगता है ये चाहिए, वो करना है... फलाना -ढीम्काना.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...
जिस साल आम होता है, उसी साल लीची भी आती है... दोनों का क्या रिश्ता है आखिर...
गेंहू का रंग कैसा सुनेहरा है, दुनिया क्यों सोने के पीछे मरती है ? गेंहू ... हाँ गेंहू जब पकती है तो माँ के दामन जैसा लगता है जब खड़ी - खड़ी खेत में लहराती है तो ... तो... तो ...
दीबाचा इतना ख़ूबसूरत है... अब पूरी कहानी भी लिख डालिए... जल्दी से...
क्या वाकई दीबाचा है.......... तो सागर साहिब कहानी का इन्तेज़ार रहेगा......
ReplyDeleteनशे में वाकई इंसान जो करता है अति करता है - अनुभव ये बताता है पर सागर जी इनको शब्द देते है.......
बढिया.
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - कृपया ध्यान देंवे : अति विशेष सूचना - आलेख प्रतियोगिता और आप - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
तो पूरी की पूरी पोस्ट ही नशे में है या नशीली है या पीकर लिखी गयी है या पीते-पीते लिखी गयी है... लाफ्दाफ्ताफ...
ReplyDeleteएक लाइन से कुछ याद आ गया " उसकी बेटी ने मुझे पहली बार तब देखा था जब उसे खजूर के बीज से मारा था." हमलोग बचपन में खजूर खाते थे और उसके बीज एक खूसट पड़ोसी के आँगन में फ़ेंक आते थे. बड़ा मज़ा आता था कसम से... बचपन भी कम नशीला नहीं होता...
तो सागर साहब आजकल मूड में हैं... लगे रहिये.
हेलुसिनेशन !!! इसमें कहानी खतरनाक हो जाती है | मुझे ये बेहद पसंद आता है |
ReplyDeleteज़बरदस्त टुकड़ों में बंटी कहानी ...
ReplyDeleteजिसे मरना न आया, वह जीना क्या सीखेगा।
ReplyDeleteचाँद परात में गिरा हुआ है मेरे पैरों के पास... सबको नशे में रहना चाहिए... सूरज चाँद दूर थोड़े ना हैं... होश में आदमी कैसी पागलों वाली बातें करता है... प्लान बनाने लगता है ये चाहिए, वो करना है... फलाना -ढीम्काना.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...
ReplyDeleteपोस्ट का हर सेगमेंट नशे में लडखडाता है और सच्चाई सिर्फ सच्चाई कहता है....सबको नशे में रहना चाहिए!
अच्छी पोस्ट लगी !
ReplyDelete-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
शब्द कौशल अपने चरम पर है आपकी इस पोस्ट में...बधाई
ReplyDeleteनीरज
पी लिखने वाले ने... और हेन्गोवर पढ़ने वालों को....:-)
ReplyDeleteवह बहुत सुंदर लिखा !
ReplyDeleteकिसी ने पूछा क्या बढ़ते हुए भ्रस्टाचार पर नियंत्रण लाया जा सकता है ?
हाँ ! क्यों नहीं !
कोई भी आदमी भ्रस्टाचारी क्यों बनता है? पहले इसके कारण को जानना पड़ेगा.
सुख वैभव की परम इच्छा ही आदमी को कपट भ्रस्टाचार की ओर ले जाने का कारण है.
इसमें भी एक अच्छी बात है.
अमुक व्यक्ति को सुख पाने की इच्छा है ?
सुख पाने कि इच्छा करना गलत नहीं.
पर गलत यहाँ हो रहा है कि सुख क्या है उसकी अनुभूति क्या है वास्तव में वो व्यक्ति जान नहीं पाया.
सुख की वास्विक अनुभूति उसे करा देने से, उस व्यक्ति के जीवन में, उसी तरह परिवर्तन आ सकता है. जैसे अंगुलिमाल और बाल्मीकि के जीवन में आया था.
आज भी ठाकुर जी के पास, ऐसे अनगिनत अंगुलीमॉल हैं, जिन्होंने अपने अपराधी जीवन को, उनके प्रेम और स्नेह भरी दृष्टी पाकर, न केवल अच्छा बनाया, बल्कि वे आज अनेकोनेक व्यक्तियों के मंगल के लिए चल पा रहे हैं.
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