(विंध्यवासिनी मंदिर के ऊपर एक छज्जे पर बैठे दो कबूतरों की बातचीत (एक नर, एक मादा) ज्ञातव्य हो की दर्शन की बेला है और दोनों बातचीत में बार-बार अपने चोंच और नज़र को सीढ़ियों पर चढ़ते लोग की तरह इशारा कर रहे हैं )
एक घर होता है जहाँ तुम पैदा होकर बड़े होते हो. कुछ रिश्तेदारों के बीच एक और किरदार दिखता है जिसका आम सा संबोधन नहीं होता या घिसे हुए संबोधन होने के बावजूद वो खून का रिश्ता नहीं होता. पर उस किरदार का पूरे परिवार में और लिए जाने वालों फैसलों में पूरा दखल रहता है. तुम्हारे पिता के बाद वे मुखिया का स्थान ले लेते हैं. तुम बड़े होने तक नहीं जान पाते कि यह आखिर हैं कौन... पहले तो सिखाया जाता है कि इस किरदार को यह पुकारो, पर जब अक्ल खुलती है फिर पड़ताल करने पर यह पता चलता है कि इसका हमारे खानदान के खून से कोई रिश्ता नहीं .. यह एक अपरिभाषित रिश्ता है, एक अनाम सा जिसे तुम बुआ, ताई, जिज्जी, काकी या फिर नाम से ही बुलाते रहे हो. यह किरदार घर की भलाई के बारे में तुम्हारे पिता (अगर जिम्मेदार हुए तो ) से कम नहीं सोचता. ऐसा होने के कारण कई रहे होंगे और अब चूँकि वो अपनी जवानी खो चुकी है और सारे बदनामियाँ और जालालत उस उम्र में दोनों ने अपने सर माथे ले चुके हैं और पूरा परिवार इसका अभ्यस्त हो चुका है तो हम भी सोचना छोड़ इस रिश्ते को वैसा ही अपना लेते हैं जैसा सब मान चुका है. फिर कोई खोट भी नहीं दिखती क्यूंकि ना उसके बच्चे हैं और सारा प्यार तुम पर उसके द्वारा उडेला जा चुका है सो कोई संदेह नहीं बनता. जिससे पिता शादी नहीं कर सकते थे लेकिन उसे छोड़ भी नहीं सकते थे, वो दंगे में मिली होगी, वो मर रही होगी, उसने तुम्हारे पिता को कुछ ऐसे प्रोपोज किया होगा कि वो इनकार नहीं कर सके होंगे, कुछ कसम होगा, कोई रसम होगा कुछ नहीं तो इंसानियत होगा.
-आह इंसानियत (आज के सन्दर्भ से उठ कर बोलें) कितना गर्म शब्द है ! इस सर्दी में ठिठुरन का एहसास देता हुआ
- तुमने ठीक समझा ठिठुरन तभी होता है जब थोड़ी गर्माहट लगनी शुरू होती है.
(कबूतरी अचानक थोड़ी मोटी हुई जाती है, लगता है किसी ने हाथ से उसके सारे पंख उलटे कर दिए हों)
- ओह तुम्हारे फर रजाई जैसे हो गए हैं, लगता है रोंगटे खड़े हैं
- ह्म्म्म... अभी ठीक हुआ जाता है
- इसका एक इशारा और भी है कि तुम्हारी खून अब तक गर्म है और तुम जवान हो
- उफ्फ़ जवानी ! यह तो और भी गर्म शब्द है
- कितना गर्म ?
- तुम्हारे उफ्फ़ में मौजूद ठंढेपन कि तासीर जैसा गर्म ...
- गर्म ! गर्म भी कितना गर्म होता है, मिजाज़ का गर्म होना जैसे मैं... बदन का गर्म होना जैसे तुम,
- उफ्फ्फ...
- इस जवाब में वजह वाली गर्माहट थी.
- तुम्हें कुछ हुआ ?
- हाँ मेरा दिल धड़का.
- तो समझो तुम भी जवान हो.
- मेरे जीवन में तुम भी वही किरदार हो, अपनाई हुई पर अलग, अलग और साथ-साथ, साथ साथ और दूर दूर, दूर-दूर और करीब, करीब लेकिन शारीरिक सम्बन्ध की निषेध आज्ञा के फरमान के घेरे में
- हाँ, अपरिभाषित, एक मौन समझौता... मौन, शांति, चुप्पी, शरद चांदनी की रात में बर्फ के उजले फाहों जैसा, नीरव शांति में टूटता पत्ता जैसा. धूप का ज़मीन को छूने जैसा, रूई का वातावरण में विलीन हो जाने जैसा.
- देखो ज़रा, शोर मचाते हुए लोग कहाँ -कहाँ नहीं जाते.
(दोनों नीचे देखते हैं फिर एक दुसरे से नज़रें मिला कर तसबीहें फेरने लगते हैं )
सोलह आने सच बात, भले ही कबूतरों ने कही हो. तुम्हारी तारीफ़ क्या की जाय. तुम सच में रिश्तों के कितने करीब जाकर देख लेते हो. सच में क्या दूसरों के घर में झाँकने की आदत है ?
ReplyDeleteइस पोस्ट में कई वैयाकरणिक त्रुटियाँ हैं, जैसे इस लाइन में "ऐसा होने के कारण कई रहे होंगे और अब चूँकि वो अपनी जवानी खो चुकी है और सारे बदनामियाँ और जालालत उस उम्र में दोनों ने अपने सर माथे ले चुके हैं और पूरा परिवार इसका अभ्यस्त हो चुका है तो हम भी सोचना छोड़ इस रिश्ते को वैसा ही अपना लेते हैं जैसा सब मान चुका है" "सारे बदनामियाँ" का जगह "सारी" होना चाहिए था, जालालत सही है या जलालत, "दोनों ने" के साथ "ले चुके हैं" का प्रयोग सही नहीं है, इसमें से "ने" हटा दें, तो अच्छा हो. आखिर में "जैसा सब मान चुका है" नहीं "चुके हैं" होना चाहिए.
चलो अच्छा, चलेगा. अब कबूतरों की हिन्दी में थोड़ी बहुत कमियां तो हो सकती हैं ना :-)
सागर जी बिलकुल सही कहा.
ReplyDeleteकबूतरों ने सारी समझदारी अपहृत कर ली है, मानवता से।
ReplyDelete@ मुक्ति,
ReplyDeleteशुक्रिया, आपका यह सच ऊपर लिखे गए सच के सम्बन्ध में कहे जाने का एक एक्सटेंशन है. सोचालय पर अमूमन पोस्ट नशे में लिखी जाती है. आज सुबह मैंने जब खुद इसे फिर से पढ़ा तो ब्लंडर गलतियाँ दिख रही हैं. लेकिन पोस्ट करते समय अगर मैं फिर से पढ़ लूँ तो खुद को कन्विंस नहीं कर पाता हूँ की यह कहने लायक कोई बात है, (ऐसे में साल लग जायेंगे मुझे एक पोस्ट कहने में)
"व्याकरणिक गलती" यह पहली बार नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि ब्लॉग पर पढ़ते समय आप परोसे गए बात को पढने कि मनः इस्थिति बना लेते हैं. आप जो पढना चाहते हैं वो निकाल ही लेते हैं जैसे आपने निकाला या फिर मुझे प्रूफ रीडर की जरुरत है.
अब सुधार भी नहीं सकता फिर आपके कमेन्ट का मतलब ख़त्म हो जाएगा सो आपका ह्रदय के अंतिम छोर से भी धन्यवाद!
ओये-होये...इत्ते रोमांटिक कबूतर!!:-)
ReplyDeleteऔर फिर
"- हाँ मेरा दिल धड़का.
- तो समझो तुम भी जवान हो."
..भई दिल तो हमारा भी धड़का..पढ़-पढ़ कर!! :-)
Apoorv Miyaan bhi jawan hai iska matlab :)
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