"मौज-सी पानी में इक पैदा हुई,
बह गयी,
जैसे इक झोंका हवा का
पास से होकर निकल जाए कहीं
चंद रोज़ा आरज़ुओं का चिराग़
झिलमिलाकर बुझ गया"
- सआदत हसन मंटो
*****
(शादी से पहले दो मुलाकात)
- एक -
राशिद :चार दिनों से सूरज नहीं निकला, रूई के फाहे में लिपटे यह दिन देखना जरूर किसी दिन अचानक ज़ख्म पर लगे पट्टी की तरह फिसल कर गिर पड़ेगा.
सुधा : और गिरेगा तो हैरान होने को जब बैठेगे तब तक पसीने वाले दिन आ जायेंगे. वक्त यूँ तेज़ी से कटा करता है, वक्त यूँ तेज़ी से कटा....
राशिद : भीड़ में तुम्हारी पहचानी गंध हो जैसे.
सुधा : फ़र्ज़ करो कि यह लगभग खाली खोली, कुछ सस्ती शराब की बोतलें, एक गलीज़ रजाई, तार पर टंगे दो दिनों के गीले कपडे...
राशिद : गीले कपड़ों में क्या ?
सुधा : ज़ाहिर है मेरा पेटीकोट, और थोडा खुराफात सोचने के लिए तुम्हारे दोस्तों के अंडरवियर
राशिद : एक ही तार पर ?
सुधा : एक ही ग्रह पर बोलो
राशिद : और एक बड़ी मुख्तलिफ किस्म की बू, जिससे कलेजे में नफरत जगे और छोड़ कर जाया ना जाए
सुधा : हाँ ठीक... जैसे बेरोज़गारी का आलम में यह एहसास कि रोज़गार के दरम्यान ऐसे एहसासात से फिर रु-ब-रु ना हो पाएंगे...
राशिद : और किसी काम करने वाली, जवान होती लड़की की आँखों में हादसे भरी मटमैले से रंग देखने को तरस जायेंगे.
***
-दो-
(दूसरी और आखिरी मुलाकात ...)
सुधा : मेरा होने वाला पति भी तुम जैसा ही है. अब तुम भी कोई ढूंढ़ लो, मुझ जैसा
राशिद : मुझे तुम्हारे जैसी लड़की नहीं चाहिए
सुधा : ओफ्फ़ हो ! फिर तुम्हें कैसी लड़की चाहिए ?
राशिद : छोड़ो भी, तुम्हें मालूम है ... फिर भी..
सुधा : अपनी कविताओं से परे, सीधे सीधे समझाओ
राशिद : ठीक. गुज़रते दिनों जैसी लड़की, परत दर परत अनसुलझी, एक अँधेरे अजायबघर में अँधेरे से लडती मोमबत्ती के लौ में बनावटें देखती हुई, जिसका हाथ अपने हाथों में लो तो एहसास रहे कि यह छलावा है और चाय बनाने को कह कर किचन की तरफ रुख करे तो लौट ना आये.
सुधा : हाँ आने वाले दिनों की तरह ढीली लड़की, गिरिडीह के अभ्रक जैसे परतों वाली लकड़ी, सातो इन्द्रियों के सभी एहसास को साथ लेकर चलने वाली, कभी मद्धम प्रकाश में बुद्ध के तरह कुटिल मुस्कान होंटों पर लिए तो कभी तुम्हारी आँखों में मन भर रौशनी का झाग उड़ेलती.
राशिद : हाँ वही लड़की, गुलाब की कली में कसे पत्तियों जैसी, भीनी भीनी बरसात की खुशबु लिए, थोड़े गर्म हाथों वाली ...
सुधा : थोड़े गर्म क्यों ?
राशिद : ताकि पूरी गर्माहट की तलाश की गुंजाईश बनही रहे ता-उम्र सुधा
सुधा : वो तो तुम अभी अभी तलाश चुके हो !
राशिद : अभी बहुत तलाश बांकी है, सुधा ! मत भूलो की हम शरणार्थी है और हमारा सफ़र उम्र भर ज़ारी रहेगा. वो खुन्क हाथ तुम्हारे थे,
वो खुन्क हाथ तुम्हारे थे,
वो खुन्क हाथ तुम्हारे थे,
वो खुन्क हाथ तुम्हारे
वो खुन्क हाथ
वो खुन्क...
(आवाज़ डूबती जाती है, सुधा चली जाती है )
(थोड़ी देर के बाद इस शाम की आख़िरी चीख उभरती है)
'हमारा मकसद यह नहीं था सुधा, वो लड़की जिसे तकलीफ देकर माँ की याद आये.'
फ़र्ज़ करो कि यह लगभग खाली खोली, कुछ सस्ती शराब की बोतलें, एक गलीज़ रजाई, तार पर टंगे दो दिनों के गीले कपडे...
ReplyDeleteऔर बस क्या बचा बाकी...
@ज़ाहिर है मेरा पेटीकोट, और थोडा खुराफात सोचने के लिए तुम्हारे दोस्तों के अंडरवियर
ReplyDeleteमेरे ख्याल से इसके आगे सब निरर्थक है.
गुज़रते दिनों जैसी लड़की,
ReplyDeleteपरत दर परत अनसुलझी,
एक अँधेरे अजायबघर में
अँधेरे से लडती
मोमबत्ती के लौ में बनावटें देखती हुई,
जिसका हाथ अपने हाथों में लो
तो एहसास रहे कि यह छलावा है
और
चाय बनाने को कह कर किचन
की तरफ रुख करे तो लौट ना आये|
आने वाले दिनों की तरह ढीली लड़की,
गिरिडीह के अभ्रक जैसे परतों वाली लडकी,
सातो इन्द्रियों के सभी एहसास
को साथ लेकर चलने वाली,
कभी मद्धम प्रकाश में
बुद्ध के तरह कुटिल मुस्कान होंटों पर लिए
तो कभी तुम्हारी आँखों में
मन भर रौशनी का झाग उड़ेलती
...बस कहानियों जैसी लडकी लेकिन ऎसा होता है क्या?
किताब कब लिख रहे है ...कब तक किश्तों में पढेंगे हम
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ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - बूझो तो जाने - ठंड बढ़ी या ग़रीबी - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
'हमारा मकसद यह नहीं था सुधा, वो लड़की जिसे तकलीफ देकर माँ की याद आये...
ReplyDeleteदीपक जी सहमत
ReplyDeleteपढ़कर भला-भला से महसूस किये जा रहे हैं ..... आजकल अपना टिप्पणी करने का अभ्यास छूट सा गया है :)
ReplyDeleteबेहतरीन , बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeletepahle to manto pe thithkaa rahaa bahut der tak...usakaa jadoo utra to tumhaare shabdo ke tilism ne giraftaar kar liya...
ReplyDelete... umdaa !!
ReplyDeleteवाह...दिनों बाद गुजरा तो ठहरा!!
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